रावण आया! / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
बड़े सवेरे नींद से उठाते हुए नानी ने कहा- “ जल्दी से जाग जाओ, आज रावण आएगा!”
रावण? ये नानी को क्या हो गया है? आज उन्होंने दिन की शुरुआत राम के बजाय रावण के नाम से क्यों की?
नानी थीं ही ऐसी भगतिन । बिलानागा एकासना करने वालीं । राजगीरे के आटे का हलवा बनाकर ठाकुरजी को भोग लगाने वालीं । नियमित भागवत-कथा जाने वालीं। गोरधननाथजी के पट खुलने से पहले मंदिर जाकर बैठ जाने वालीं । नित्यप्रति स्नान कर भाल पर चंदन टीका लगाने वालीं, पीतल के बालगोपाल को मांजकर जरी-गोटे वाले वस्त्र पहनाने वालीं, तुलसी - चिरौंजी - बताशे का प्रसाद मोहल्ले में बांटने वालीं ।
नानी ने आज सुबह-सवेरे रावण का नाम क्यों लिया?
और क्या कहा उन्होंने - रावण आएगा ? रावण भला कैसे आएगा? रावण भी कभी कहीं आता-जाता है? उन दिनों यों भी रावण दो ही जगह होता था - एक तो अमर चित्रकथा में, और दूसरे दत्त अखाड़ा घाट के रावण दहन में । दशहरे के दिन नदी किनारे रावण का पुतला खड़ा होता तो जल में उसका जादुई लहरिल प्रतिबिम्ब उभर आता। उस संध्या शिप्रा नदी को ही हम समुद्र समझ लेते । दत्त अखाड़े की लाल रंग की इमारत को हम लंका का महल मान बैठते | रामबाण छूटता
तो शिप्रा नदी की जलउर्मियां झिलमिला उठतीं । भगवान राम आते, तीर छोड़ते, बुराई का पुतला धू-धूकर जलता । एक बार तो ऐसा हुआ कि राम जी के तीर छोड़ने से पहले ही रावण जल गया। किसी ने शरारत की होगी या कोई असावधान आतिशबाजी रावण के वस्त्रों में जा घुसी होगी । तब रावण दहन कार्यक्रम की कमेंट्री कर रहे सज्जन ने चुटकी लेते हुए कहा- " और ये लीजिए, मण्डल कमीशन की सिफारिशों से तंग आकर रावण ने कर लिया आत्मदाह !” वो साल 1990 जो था !
नानी को हो क्या गया है, रावण भला कैसे आएगा ? अमर चित्रकथा के पन्नों से तो निकलने से रहा । और दत्त अखाड़ा घाट को लांघकर रामघाट से गणगौर दरवाज़ा और फिर कार्तिक चौक तक कैसे आएगा, उसके तो पांव धरती में धंसे हैं, अंगद की तरह ! एक और रावण था, किंतु वह टीवी पर आता था। बड़ा भारी उसका चेहरा था, घनी रौबीली मूंछें थीं । ठुड्डी में उसके एक गड्डा बनता था, जो उसे और भयावह बनाता। वह जोरों से अट्टहास करता । उसी के कारण माता सीता गेरुए वस्त्र पहने अशोक वाटिका में सुबकती रहतीं - हाथ में घास का तिनका लिए । प्रभु श्रीराम वियोग से आकुल दिखलाई देते । लक्ष्मण के उग्र चेहरे पर करुणा उमग आती। हनुमान लंका जलाने को उद्यत हो जाते।
आंखें मलते उठ बैठा। “रावण आएगा ? भला कैसे ?” “ बताऊंगी बताऊंगी, पहले तैयार तो हो जाओ ।" मैंने तुरंत नीचे सरकारी नल पर जाकर दांत मांजे । मुंह-हाथ धोए। बाल काढ़े | हौद पर मुक्ता बाल्टी लिए दिखाई दी । यह वही हौद थी, जिसमें लालमोहर शास्त्री जी की घड़ी गिर गई थी । मैं मुक्ता को देख मुस्कराया। उसने कहा- “ आज तो बड़ी जल्दी राजा बाबू बन गया, बात क्या है?" मैंने कहा - " बात ये है कि आज रावण आएगा, नानी कह रही है ।" उसने कहा- “रावण कैसे आएगा ?” मैंने कहा- “तू उबी रे, सांझ को आकर बतलाता हूं।"
नानी ने कप से बशी में चाय उड़ेली, और मेरे सामने 'चौथा संसार' पेपर रख दिया- ले पढ़। अख़बार में समाचार था - “रामानंद सागर के चर्चित धारावाहिक 'रामायण' में रावण की भूमिका निभाने वाले गुजराती चित्रपट के कलाकार श्री अरविंद त्रिवेदी आज उज्जैन आएंगे। अपराह्न तीन बजे छत्रीचौक से कंठाल चौराहे तक वे एक शोभायात्रा में शामिल होंगे। सतीगेट पर बाल हनुमान नवयुवक मण्डल द्वारा उनका पुष्पमालाओं से अभिनंदन किया जाएगा । इस अवसर पर रसना शरबत का भी वितरण होगा ।"
ओह, तो ये कहानी थी। रावण आ तो रहा था, किंतु सचमुच का रावण नहीं। रामायण में रावण का रोल करने वाला एक्टर आ रहा था। इतने दिनों से हम रामायण देख रहे थे और रावण की प्रतिमा परदे पर अवतरित होते ही भयभीत हो जाते थे । क्या वह सच में ही ऐसे अट्टहास करता होगा ? क्या वह सच में ही इतना बलशाली होगा ? ये रावण कैसा दिखता होगा ? मन में कौतूहल कांस के फूलों की तरह भर आया ।
दो बजते न बजते हम निकल पड़े । खाती के मंदिर से आगे बढ़े, खत्रीवाड़ा पार कर गोपाल मंदिर पहुंचे, फिर छत्रीचौक | देखते क्या हैं, इधर से उधर तक भारी भीड़, जैसे पंचक्रोशी यात्रा आई हो, या जैसे अनंत चौदस का जुलूस निकल रहा हो, या फिर महान्काल महाराज की शाही सवारी । ओटलों पर बैठीं औरतें और बच्चे। मौका देखकर फुग्गे - फिरकनियां वाले अपना-अपना कारोबार लेकर आन पहुंचे थे। चना-पापड़ बिक रहा था । डुगडुगी बजाई जा रही थी । मेले का माहौल था, जैसे कि दशहरा !
रावण कंठाल से चल दिया है, सुनकर सब व्यग्र हो उठे । एक आवेग से आगे बढ़े। नानी ने मेरी अंगुली थाम ली । सतीगेट पर भीड़ का रेला सघन हो गया। उसने हमको डाबरीपीठे की गली की ओर धकेल दिया । हम सड़क किनारे जा खड़े हुए। अब तो टस से मस होने की गुंजाइश नहीं थी । आज तो बुरे फंसे, मैंने मन ही मन सोचा। नानी लाड़ से सिर पर हाथ फेरने लगी। तभी " रावण आया, रावण आया” का शोर गूंज उठा। लोग बौरा गए। स्पीकरों से रामायण सीरियल वाला वही चिर-परिचित अट्टहास सुनाई दिया। बाल हनुमान नवयुवक मण्डल ने माहौल को सजीव बनाने के लिए रामायण की कैसिट लगा दी थी । फूलमालाओं से लदा जुलूस आगे बढ़ता दिखा, और सबसे आख़िर में दिखाई दी रावण की छवि !
रावण ने मुकुट नहीं पहन रखा था। ना ही अंगवस्त्र । ना कोई आभूषण । धोती नहीं बांधी थी। रावण तो पतलून और कमीज में था। अलबत्ता मूंछें उसकी वैसी ही रौबीली थीं । चेहरा वैसा ही गोलमगोल था, लेकिन टीवी पर जैसा भीमकाय दिखता था, वैसा नहीं था। पास जाकर देखो तो मालूम हो, अपने ही मोहल्ले के दुबे जी हैं, जिनकी तोंद निकली है । रावण सबको हाथ जोड़कर नमन कर रहा था, जैसे चुनाव में वोट मांगने निकला हो । लेकिन उसकी एक झलक देखने को लोग उतावले हो गए ।
मैं टकटकी बांधे देखते रहा । पलभर को रावण की आंख मुझसे मिली । मेरे शरीर में सिहरन दौड़ गई । निमिषभर को भयाक्रान्त हो गया। रावण ने आंख घुमा ली। आज उसे किसी एक चेहरे को निहारने का भला कहां अवकाश, किंतु मुझे रोमांच हो आया था ।
तभी जोर का धक्का लगा । " ओ बई वो" की ध्वनि के साथ नानी नीचे गिर गईं, जैसे चौके में पाटला खिसक जाने से कोई धप्प से धरती पर बैठ जाता हो। हाथ से अंगुली छूट गई। दूसरे रेले से मैं डोल गया । तब एक भलेमानुष ने नानी को हाथ देकर उठाया । वो उठीं और मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया । खींचकर जैसे-तैसे मुझे एक ओटले पर ले गईं। खम्भे से टिककर खड़ी हो गईं, मुझे गोदी उठा लिया। मैं रुआंसा हो गया। उन्होंने लाड़ से चुप कराया। वैसा रावण देखना भी किस काम का ?
पर घर लौटकर किसी को नहीं बतलाया कि वहां ऐसे फजीते हुए थे। रास्ते में गोपाल मंदिर से एक चकरी और सुनहरी पन्नी वाली लकड़ी की तलवार ले ली । पोरवाल के यहां से कांच की बर्नी से संतरे की गोलियां मोल ले लीं । फिर अगले दिन बाड़े से लेकर स्कूल तक सबको डींगें हांकी । मेरे मन में एक स्वप्न था, वो पूरा तो हुआ नहीं था, किंतु उसका बेधड़क बखान करने में कोई विवाद नहीं था। तो मैंने कहा- “रावण आया, मुझको देखकर रुक गया, रथ से नीचे उतरा, अपना मुकुट उतारा, मुझे गोद में उठाया, और ये हाथ घुमाया कि संतरे की गोलियां प्रकट हो गईं। उसने वो सब मेरी जेब में भर दीं। ये देखते हो, पूरी दस गोलियां?” कथा सुनकर सब निहाल हो गए। मुक्ता तो टकटकी बांधे सुनती रही। कहीं खो सी गई ।
उसके बाद जब भी टीवी पर रावण को देखा, एक भीनी मुस्कान के साथ ही देखा एक गौरव के साथ कि इस मानुषी - बिम्ब को हाड़-मांस में हमने अपनी आंख से निरखा है, तो क्या हुआ अगर भीड़ में बुरा हाल हो गया था ?
अरुण गोविल ने जैसे राम की सौम्य मूर्ति रची थी, वैसी फिर कौन रच सका? दीपिका चिखलिया जैसी माता सीता थीं, वैसी पवित्र प्रतिमा फिर कभी साकार नहीं हुई। दारा सिंह तो जैसे हनुमान का रूप धरने को ही इस धरती पर आए थे। लक्ष्मण बने सुनील लहरी एक निष्ठावान छोटे भाई का सजीव चित्र थे । ललिता पवार की कानी आंख मंथरा होने का ही प्रयोजन थी । और आप मानें या ना मानें, लेकिन सुषेण वैद्य की भूमिका निभाने वाले अभिनेता हमारे उज्जैन में देवासगेट बस अड्डे पर पान-गुटखे की बड़ी सजीली दुकान लगाते थे । ये सभी कलाकार अब अमर हो गए हैं। और अमर हो गए हैं अरविंद त्रिवेदी, जिन्होंने रावण का रूप धरकर हम सबको मर्मांतक त्रास दिया ।
क्या अरविंद त्रिवेदी इतने बड़े सितारे थे - अमिताभ बच्चन और मिठुन चक्रवर्ती की तरह- कि उनको देखने एक शहर उमड़ आए, उनकी एक झलक के लिए भगदड़ मच जाए ? नहीं, यह अरविंद त्रिवेदी का अकेले का प्रताप नहीं था । रविवार सुबह नौ बजे आने वाले कार्यक्रम का यह गौरव था, यह रामानंद सागर का यश था। यह अपार लोकप्रियता अकेले अरुण गोविल या अरविंद त्रिवेदी की नहीं थी, यह किंवदंती बन गए उस धारावाहिक की कीर्ति थी, जिसने जन-मन को वैसे बांध दिया था, जैसे फिर कोई कभी बांध ना सकेगा ।