रफी साहब का दीवाना / बायस्कोप / सुशोभित

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सुशोभित


[इस कहानी में रफ़ी साहब वैसे ही एक अंतरात्मा की तरह मौजूद हैं जैसे पतझड़ के पीछे बहार रहती है ! ]

उज्जैन के बड़ा गोपाल मंदिर से एक गली मगरमुंहे की तरफ कटती है। उधर से और एक गली खत्रीवाड़े को जाती है । यहां से आगे चलो तो कार्तिक चौक, फिर गणगौर दरवाज़ा, और फिर छिप्राजी की पुण्यधार । खत्रीवाड़े में दस घरों का एक बाड़ा था, जो तम्बोलियों का बाड़ा कहलाता, क्योंकि वहां रहने वाले परिवार तमाखू-सुपारी का काम करते थे । गली कहलाती थी सांप वालों की गली, क्योंकि वहां सांप पकड़ने वाले और जहरमोहरे से सांप काटे का इलाज करने वालों का भी एक कुनबा था । उसी बाड़े में अपना बसेरा था । और मेरे घर की दीवार से ही लगी हुई थी उसकी दीवार ।

वो, यानी कोई बीस-इक्कीस साल का तगड़ा जवान | हम आठ-नौ साल के छोकरों का सरदार। हम बारीकों का उस्ताद । गुरुघण्टाल ! हेकड़बाज और अड़ियल। लुंगी-टॉवेल पहनकर ही मोहल्ले में घूमा करता । हम उसके साथ क्रिकेट खेलते, तो वो दिनभर आउट नहीं होता । गेंद को वह सीधा नहीं खेलकर अजहरुद्दीन की तरह कलाइयों का हुनर दिखाता था । भले ऑफ के बाहर टप्पा पड़े, उसको वो मिडविकेट पर ही खेलता । हम प्लास्टिक की गेंद से खेलते थे । उस ज़माने में तीन तरह की प्लास्टिक की गेंदें आती थीं- एक रुपये वाली इकरंगी, दो रुपये वाली दोरंगी और चार रुपए वाली बहुरंगी । एक वाली से बच्चे खेलते थे। चार वाली चेंटती बहुत जोर से थी और उससे मुश्टंडे लोग खेलते थे । हम बीच वाले बारीक दो वाली से खेलते थे ।

वो बहुत अच्छा स्पिनर भी था, लेकिन आप जानते हैं कि प्लास्टिक की दो रुपये वाली बॉल को कलाइयों से नहीं घुमाया जा सकता, उसको अंगुलियों की पकड़ से घुमाना पड़ता है। वो गेंद को अपनी लम्बी अंगुलियों से पकड़ता और चुटकी बजाने के अंदाज में बॉल डालता । कभी गेंद अंदर आती, कभी बाहर जाती। हम उसे समझ नहीं पाते और बोल्ड हो जाते। गेंदबाजी की इस शैली को वो कटाचूर कहता था ।

लेकिन उसकी सबसे बड़ी खूबी थी, उसका सधा हुआ गला । वो कमाल का गवैया था। रफ़ी साहब का दीवाना था और उन्हीं के गाने गाता । शैली भी हूबहू वही। उसने अपने घर में रफ़ी साहब की एक तस्वीर फ्रेम में मंडवा रखी थी, जिसे बाकायदा सुबह-शाम सिर नवाया जाता । रफ़ी साहब के गानों की दो दर्जन कैसिटें उसने कंठाल चौराहे वाली म्युझिकल शॉप से भरवा रखी थीं। इन कैसिटों को वो लोहे की एक संदूकची में पेपर बिछाकर सजाता । उसके पास रफ़ी साहब के फ़िल्मी गानों के साथ ही उनके नॉन फ़िल्मी एलबम और विभिन्न लाइव शो की दुर्लभ रिकॉर्डिंग भी थीं, शैतान ही जानता है वो उनको कहां से जुगाड़कर लाया था। रफ़ी साहब के दो गानों पर वो जान छिड़कता - “आने से उसके आये बहार” और “बहारो फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है ।" जिस दिन रंग में होता, उस दिन ये गाने खूब तरन्नुम में गाता । “सजाई है जवाँ कलियों ने अब ये सेज उल्फत की / इन्हें मालूम था आएगी इक दिन रुत मुहब्बत की " - इन पंक्तियों पर तो वो निसार हो जाता । बोलता, अगर मैं मर गया तो ये गाना मत बजा देना, नहीं तो अर्थी पर उठ बैठूंगा और सारे मातम वाले मजमेबाज पायजामा गीला कर देंगे । एक दिन वो किसी उस्ताद के मुंह से " पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है" सुनकर आया तो एक हफ़्ता उसके नशे में गिरफ्तार रहा। वो बोलता, इस गाने के अंतरे में जब रफ़ी साहब की बुलंद आवाज़ वाली आमद होती है- “कोई किसी को चाहे / तो क्यों गुनाह समझते हैं लोग", तब मेरे रौंगटे खड़े हो जाते हैं । - एक बार मोहल्ले में होली की शाम ढोलक - पेटी की बैठकी सजी । यार लोगों ने कहा कि आज तो तुमको गाना पड़ेगा । उसने इससे पहले कभी चार लोगों के सामने नहीं गाया था, लेकिन उस दिन पहली बार गवैये की गादी पर जाकर बैठा। मोहल्ले की एक लड़की पर वो मरता था । उसने देख लिया कि हरी खिड़की में चिलमन की ओट से वो देख रही है। उसने किंचित झिझक के साथ “परदा है परदा” गाना शुरू किया, लेकिन धीरे-धीरे रंग में आ गया । “परदानशीं को बेपरदा ना कर दूं” पर उसकी आवाज़ लहक उट्ठी । “मैं देखता हूं जिधर / लोग भी उधर देखें” पर उसने खिड़की की तरफ़ नज़र घुमाकर देखा हम समझ गए कि इशारों-इशारों में क्या खिचड़ी पक रही है । लेकिन चुप रहे । हम इस खामोश मोहब्बत में खलल डालकर " तैयब अली, प्यार के दुश्मन, हाये हाये" नहीं बनना चाहते थे !

बाद उसके, फिर वो मोहल्ला छूट गया । खत्रीवाड़े से अपना डेरा उठा तो मोतीबाग के पंजाबी मोहल्ले में सजा, जहां दिनभर ठठेरे कांसे के हंडे ठठका रहते। फिर वहां से घासमण्डी चले गए । बातचीत छूट गई । यों भी उससे एक बार क्रिकेट में एलबीडब्ल्यू को लेकर मनमुटाव हो गया था। गेंद सीधे पांव पर लगी थी, लेकिन उसने हेकड़ी में बैटिंग छोड़ने से मना कर दिया था। हमने गुस्से में कह दिया- “साले, तू मरेगा तो तेरे को पानी का नहीं पूछेंगे ।" उसने भी कह दिया- " जा बे, तेरे जैसे बहुत देखे ।” फिर बहुत सालों बाद सुना कि उसका ब्याह हो गया। फिर सुना कि माली हालत खस्ता है और घर पर खटपट चलती है। एक जगह नौकरी की, बात नहीं बनी। फिर लोन लेकर प्लास्टिक का सामान बनाने वाली मोल्डिंग मशीन डाली । गुजरात से शुरू-शुरू में कुछ ऑर्डर मिले, फिर वो भी बंद हो गए। सिर पर कर्जा चढ़ गया । उसकी आख़िरी ख़बर जो सुनी, वो ये थी कि उसका दिमाग़ फिर गया है और कमरे में अकेले बैठा बड़बड़ाता रहता है।

फिर इसके बहुत - बहुत साल बाद एक शादी पार्टी में जाना हुआ। लाड़ा-लाड़ी स्टेज पर सजे थे । खाना-पीना चल रहा था । हम दूध - जलेबी पर हाथ साफ कर रहे थे कि कानों में एक चिर-परिचित आवाज़ सुनाई दी - हूबहू रफी साहब की स्टाइल ! पीछे मुड़कर देखा, स्टेज के पास एक ऑर्केस्ट्रा कम्पनी गा - बजा रही थी। उस शादी में रिकॉर्डेड गानों के बजाय लाइव गाने गाए रहे थे। मैं उसके पास चला गया। एक-एक कर हर आर्टिस्ट के चेहरे का मुआयना किया । फिर गायक के चेहरे पर आंखें ठहर गईं। उसकी आंखें मुंदी हुई थीं, और वो एक के बाद एक रफ़ी साहब के हिट गाने पेश कर रहा था ।

मैंने पहचान लिया। ये वही था। तो अब वो रोज़ी-रोटी कमाने के लिए शादी-पार्टी में गाना गाकर काम चलाता था !

मैंने एक चिट भिजवाई - " पत्ता पत्ता बूटा बूटा" का रफ़ी साहब वाला अंतरा । वो इस हटके फरमाइश से चौंका । नज़र उठाकर फरमाइश भेजने वाले की तरफ़ देखा और मुस्करा दिया । आज्ञाकारी की तरह वो गाना गा दिया। फिर हमने “आए बहार बनके लुभाके चले गए" की फरमाइश की, उसने गाया । फिर, “जाग दिले दिवाना रुत जागी वस्ले यार की", यह भी गाया। सबसे आख़िर में हमने कहा- “बहारो फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है।” अबकी उसने खूब मन से गाया। “नजारो हर तरफ अब तान दो इक नूर की चादर" पर आकर वो ठिठक गया। उसका गला रूंध गया था । मुझे भी महसूस हुआ कि मेरी छाती में एक बहुत पुराना उफान ज्वार बनके लहलहा रहा है।

मैं फ़ौरन फूड काउंटर पर गया। पानी कहां है, पूछा। उन्होंने इशारे से बताया। मैंने डिस्पोजल ग्लास में पानी भरा और भागता हुआ ऑर्केस्ट्रा के पास चला गया। सीधे स्टेज पर चढ़ गया । पानी का गिलास उसके हाथों में थमाते हुए कहा- “लो उस्ताद, थोड़ा पानी पी लो । गला तर हो जाएगा ।” उसने कुछ नहीं कहा। चुपचाप पानी पी लिया । मरते दम तक पानी का नहीं पूछने की मेरी कसम टूट गई थी !

जिंदगी की अंगुलियों से मजबूत कुछ नहीं । वो हमें गेंद की तरह घुमाती है, कभी अंदर कभी बाहर, हम कभी समझ नहीं सकते कि ज़िंदगी की अगली बॉल कैसे घूमेगी- मैं यह सोचता हुआ नीचे उतर आया, बचपन की यादों में गुमशुदा । मेरे कानों में गूंज रही थी शइनाइयों से होड़ लगाती वो बुलंद आवाज़ - "हवाओ रागिनी गाओ मेरा मेहबूब आया है", जिसको सुनके जन्नत में मुस्करा रहे होंगे रफ़ी साहब !