सौ रुपए का नोट / बायस्कोप / सुशोभित

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
सौ रुपए का नोट
सुशोभित


साल छियानवे में सौ रुपयों की क्या कीमत थी? ये जानने के लिए आपको साल छियानवे में सौ रुपए का एक नोट जेब से टपकाकर देखना था । और वो भी तब, जब आपकी आमदनी अढ़ाई सौ रुपया महीना हो !

क़िस्सा ये था कि साल गून्नीस सौ छन्नू (1996) में मैं एक अख़बार-हॉकर था। सुबह पांच बजे उज्जैन के दौलतगंज - फव्वारा चौक से दैनिक अग्निपथ के प्रभात संस्करण का बंडल उठाता और शहर की परिक्रमा करके सवा सात बजे तक घर लौट आता। इस दरमियान कोई सत्तर - अस्सी जगहों पर अख़बार डाला जाता। बंद दरवाज़ों की दरार से भीतर पेपर सरकाने में अतीव संतोष मिलता। दो मंजिल ऊपर घर पर रबड़ बांधकर गड्डी उछाली जाती, जो अकसर किसी गमले में गिरकर मिट्टी में लथपथ हो जाती । कभी खिड़की के कांच पर जाकर लगती और सुबह की अलार्म का काम करती । आख़िरी पेपर डालकर अपन तेज़ पैडल मारते यों घर लौटते, मानो दुनिया जीत ली हो ।

अढ़ाई सौ रुपया इस काम का मिलता था । मैं हिसाब लगाकर सोचता, एक दिन का कितना? आठ रुपय्ये से ज़्यादा, नौ रुपय्ये से कम । एक दिन ऐसा हुआ कि पेपर बांटकर लौटते समय साइकिल पंक्चर हो गई । उस ज़माने में पंक्चर तीन रुपए में पकता था। मालूम हुआ, साइकिल के टायर का कर्णवेध-संस्कार दो जगह से हुआ था। बाबू ख़ां मदारगेट वाले ने कहा, डबल पंक्चर का छह रुपया लगेगा । हमने कहा, बनाओ । ये सब तुम्हारा करम है आका, जो बात अब तक बनी हुई है- गाढ़ा नीला रंग पुते बाबू भाई के लोहे के शोकेस पर सफेद अक्षर में लिखा था । दीवार पर पेण्डुलम वाली घड़ी टंगी थी, जिस पर लिखा था - नज़र के सामने, जिगर के पास | पूरी दुकान में ग्रीज और ऑइल की महक । कालिमा की कौंध । फर्श पर हठीले दाग । बाबू भाई ने पंक्चर पकाया। हमने मन ही मन कहा, साढ़े आठ में से छह गए, बचे अढ़ाई । आज की कमाई, रुपैये अढ़ाई ।

तब क्या हो, जब जेब से सौ रुपय्ये का नोट कहीं गिर जाए ? दुनिया ना हिल जाए। ब्रह्मा की आसन्दी ना डोल जाए । चित्रगुप्त की बही ना गड्डमड्ड हो जाए। ठीक वही हुआ, साल छियानवे की उस मनभावन भोर।

काटो तो खून नहीं । नींद पूरी खुली न थी, इसलिए जेब दोबारा चेक की । फिर दूसरी जेब। फिर निक्कर की चोर - जेब । उलटकर देख ली । ना चूना निकला ना गारा, तो सौ रुपय्ये का नोट कहां से मिलता ? रास्ते में कहीं टपक रहा। जिसे मिलेगा, वो आज धनवान । पर हम तो कंगाल हो गए। ना केवल कंगाल, बल्कि उल्टे चूड़ी चढ़ गई। अभी चार दिन पहले पेपर बांटना शुरू किया था, पैंतीस रुपए कमाए होंगे, सौ चले गए, तो बचा क्या ? अब पहले ये चूड़ी उतारो, फिर कुछ कमाओ। महीने के अंत में अब डेढ़ सौ ही बचेगा | वो सौ रुपए पेपर-सेठ के थे। उनको जाकर दुखड़ा सुनाया । वो दांत चियारकर बोले, वाह मेरे कमाऊपूत, जितने कमाए नहीं, उससे अधिक गंवा आए । जीवन में खूब नाम कमाओगे । हम अपना सा मुंह लिए लौट आए।

जो भी हो, उस दिन पेपर - सेठ पर बड़ा गुस्सा आया । तब ये नहीं सोचा था कि छह साल बाद हम खुद पेपर-सेठ बनेंगे । पर उसकी रामायण तो पाठक पहले ही सुन चुके हैं। कोई बहुत भारी सेठ नहीं, लेकिन उज्जैन में ही एक सांध्य दैनिक की एजेंसी हमने दो हजार रुपया पेशगी रखकर ले ली। कचकड़े की पतलून पहनकर इतराते हुए प्रेस पर जाते । हमारी चार लाइन चलती थी, चार लड़के उन पर पेपर लेकर दौड़ते । कालापीपल का बंडल रेलगाड़ी से जाता था, जिसको हम खुद टेसन में बिल्टी-पर्ची बनवाके गाड़ी में रख आते। एक बंडल इंगोरिया जाता। जिसके लिए दानीगेट पर एक टेम्पो वाले को पकड़ना पड़ता । अकसर यों होता कि चार लाइन में से एक का लड़का तड़ी मार जाता। उस दिन अपन खुद पेपर लेकर बांटने निकलते । सेठ हुए तो क्या, पेपर तो टाइम पर पहुंचना ही चाहिए | बहुत से लोग ऐसे हैं, जिनकी शाम की चाय हलक से नहीं उतरती, जब तक कि पेपर के फ्रंट पेज की मुख्य हेडिंग ऊंचे सुर में ना पढ़ लें । यों पेपर-सेठ होना कोई हंसी - खेल नहीं। एजेंसी लेने पर आपको कमीशन पर पेपर मिलता है। जितने पेपर बिकेंगे, उतनी आमदनी होगी । चार लाइन और दो गांव के ढाई सौ पेपर मेरे एक दिन के जाते तो आप मान लो सूखी आमदनी साठ रुपया रोज़। लेकिन जीवन इतना सरल होता तो बात ही क्या थी । पेपर भले आप टाइम पर दे दो, एक तारीख के बाद उगाही करके बताओ तो जानें। दादा- भैया बोलके, हाथ-पांव जोड़के भी भाई लोगों की जेब से तीस रुपए नहीं निकलते। चाय वाला मीठी मुस्कान के साथ चाय पिला देता । कटिंग वाला

बोलता, आओ फोकट में बाल काट दूं, पर पैसे बाद में ले जाना। अभी गिराकी नहीं चल रही है। ज़्यादा इसरार करने पर अगला बोलता, देख भाई ऐसा है तो कल से मत डालना, तेरे जैसे बहुत आते हैं । अग्निबाण न सही, अक्षर विश्व ही सही। फिर उसमें ईनामी कूपन भी तो निकलता है ।

लेकिन ये तो रही 2002 की बात, जब अपन पेपर- सेठ बन गए थे। यहां तो किस्सा 1996 का बयां किया जा रहा है, जब अपन ने पेपर - लाइन में काम शुरू ही किया था और आते ही चोट खा गए थे ।

सौ रुपया जिस दिन जेब से गिरा, उसके अगले दिन काम पर जाने का मन नहीं हुआ। फिर भी गया । बहुत बुझे मन से पहले सौ रुपए की चूड़ी उतारी। फिर जैसे-तैसे क़िस्मत को कोसकर पूरा महीना काटा । महीना पूरा हुआ तो नया महीना इस उमंग से शुरू किया कि इस बार पूरे अढ़ाई सौ मिलेंगे, कुछ कटेगा -पिटेगा नहीं । एक से दूसरा, दूसरे से तीसरा महीना हुआ और फिर एक-एक कर कोई दो साल निकल गए। सौ रुपल्ली की चोट धीरे-धीरे भूल गई ।

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि बेगमबाग़ कॉलोनी में अण्डा पहलवान की दुकान पर पेपर देकर लौट रहा था कि देखता क्या हूं, सड़क के कोने में हरियाली की एक झलक । नहीं, यह वह नहीं हो सकता, लेकिन पास जाकर देखा तो वही था- आंखें खुली की खुली रह गईं । सौ रुपए का नोट पड़ा था । जाने किसकी जेब से गिरा होगा। किसी ने अण्डा पहलवान के यहां जस्ते की तश्तरी में शोरबा पीकर पानी पीने के बाद रूमाल से मुंह पोंछा होगा और नोट गिर गया होगा । हमने साइकिल स्टैंड पर टिकाई और चेन चढ़ाने के बहाने सौ रुपए का नोट उठाकर जेब में रख लिया । फिर नज़र बचाकर चले अपने घर । उसके बाद वही हिसाब, ये सौ रुपया मिलाकर आज दिन की कमाई कितनी हुई । महीने की कमाई कितनी? नफे-नुकसान का पूरे बराबर का हिसाब | डायरी - खाता । फिर ये खयाल कि उस गुमे नोट के लिए जो दिल दुखाया, मन मारा, चार बार कचौरी नहीं खाई, उसका हर्जाना कौन देगा । फिर यह कि इस वाले के लिए जो रोएगा, उसका पाप किसके सिर चढ़ेगा? मैंने चुराया तो न था, मुझे वो मिल भर गया था । इसमें मैं क्या कर सकता था ?

दुनिया में दो तरह के लोग हैं- एक वो, जिनकी जेब से पैसे गिर जाते हैं । दूसरे वो, जिन्हें किसी की जेब से गिरे पैसे मिल जाते हैं । और फिर एक तीसरी तरह के खुशनसीब, जो बहुत ही कम होते हैं, जिन्हें अपने गुमे पैसे जस के तस मिल भी जाते हैं।

तब मुझको लगा, ये सौ रुपए का नोट माजिद माजिदी की फ़िल्म का वो शुतुरमुर्ग है, जो एक दिन अपनी बाड़ से फ़रार हो जाता है, और इस कारण एक भलेमानुष की नौकरी चली जाती है । बहुत दिनों बाद वो शुतुरमुर्ग एक दिन बाड़ में लौट भी आता है, लेकिन तब तक वो गरीब फाकाकशी और बदनसीबी के बुरे दिन भुगत चुका होता है । उसको आकर ख़बर दी जाती है कि सुना है, जिस शुतुरमुर्ग के कारण तुम आज ये टांग तुड़वाकर बैठे हो, वो लौट आया है। वो जाकर देखता है कि शुतुरमुर्ग बाड़ में पंख फैलाकर नृत्य कर रहा है, मानो उसे इस पूरी कहानी का कोई संगीन राज मालूम हो । वो ग़रीब चुपचाप मुस्करा देता है। घर लौट आता है । ठीक वैसे ही, जैसे मैं लौट आया था, लेकिन जेब में दबाए सौ रुपए का नोट, मन ही मन ये सोचते, कि तराजू का कांटा जो इतने दिनों से दूसरी तरफ़ झुका था, अब जाकर बीच में आ रुका है, या डोल गया है अब किसी दूसरे पहलू की ओर ?