त्रिलोक नाथ की फ़ज़ीहत / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
मनसुखभाई वढेरा से जुड़े किस्सों पर तो अलग से एक पोथी लिखी जा सकती है।
उज्जैन के डाबरीपीठे में मनसुखभाई की जूतों की दुकान थी, जहां मैं साल निन्यानवे में काम करता था । ये दुकान दो हिस्सों में बंटी थी। उसका दो-तिहाई हिस्सा डिस्प्ले शोरूम जैसा चकाचक था। यहां नए-नवेले जूते, जूतियां, सैंडिल, चप्पलें, स्लीपर, वॉकर आदि टंगे रहते। यहां उम्दा कालीन बिछा था। फर्नीचर भी एक नम्बर था । ग्राहक - देवता के बैठने की उत्तम व्यवस्था थी। फर्श पर बहुत ही शानदार आईना रखा था, ताकि पादुका धारण करने के बाद ग्राहक - देवता उसमें पदत्राण का मुआयना कर सकें । कपड़े-गहनों की दुकान में आईना दीवार पर टंगा होता है, जूतों की दुकान में धरती पर धरा होता है। मनसुखभाई बोलते थे, “क्योंकि जूतियां पैरों का गहना होती हैं ना, इसलिए!”
दुकान का दूसरा एक-तिहाई हिस्सा कारखाना था, जिसमें अधिक से अधिक तीन लोग बैठ सकते थे । इसको दुकान में लकड़ी का एक पार्टिशन बनाकर तैयार किया गया था । इससे बाहर वालों को दिखता नहीं था कि भीतर कौन बैठा है। जूता - कारीगर होने के नाते अपनी बैठक यहीं थी। यहां न तो उम्दा कालीन था ना शानदार मेज - कुर्सी । हम धरती पर दरी बिछाकर काम करते। ये कमरा चमड़े, पॉलिश, लोशन और घासलेट की गंध से भरा रहता । जूते चिपकाने वाला जिद्दी लोशन केवल घासलेट से छुड़ाया जा सकता था। फर्मे, कीलें, हथौड़ियां, गत्ते के टुकड़े इधर-उधर बिखरे रहते । वहीं थोड़ी जगह बनाकर, अख़बार बिछाकर हम लोग खाना खाते । कुल्फी - सेठ गबरूभाई जब गांजे की चिलम पीने आते, तो यहीं बैठते । जब कोई खास दोस्त आता तो वो भी बिना झिझक भीतर चला आता । दो लोग आने पर मुझको उठकर बाहर बैठना पड़ता । वो प्रेम-कुटीर अति सांकरी जो थी ।
मनसुखभाई एक कीर्तन-सम्प्रदाय से जुड़े थे | दीवार के दीतवार वे उसकी बैठकों - सत्संगों में जाते। दुकान पर दिनभर रामधुन बजती रहती । उनके यहां जो भांति-भांति के किरदार नियमित आते थे, उनमें इस सम्प्रदाय से जुड़े दो लोग विशेष उल्लेखनीय थे। एक थे स्वामीजी, जिनका नाम किसी को नहीं मालूम था, लेकिन वो जाति से सुनार थे। दूसरे थे, त्रिलोकनाथ त्रिपाठी । स्वामीजी उस कीर्तनिया सम्प्रदाय के नगर प्रमुख थे और कार्यालय का संचालन करते थे । एक भीनी-भीनी मुस्कराहट उनके चेहरे पर तैरती रहती । वे हमेशा विजया - बूटी की तरंग में डूबे रहते। मुखमण्डल पर लालिमा दमकती । आहिस्ता-आहिस्ता ऐसे बोलते, जैसे बोल नहीं रहे, झाग के गुब्बारे उड़ा रहे हों । चाल-ढाल में अदा । व्यक्तित्व में माधुर्य । यानी जैसे एक स्वामीजी को होना चाहिए, ठीक वैसे। इसके उलट त्रिलोकनाथ खांटी युवा - तुर्क था । लम्बा, पतला, दढ़ियल । काला चश्मा लगाने वाला । कला- फ़िल्मों के जैसे नायक होते हैं, वैसा । ये जो मन की सीमारेखा है टाइप।
स्वामीजी की बड़ी सलोनी बिटिया थी कुसुम । उसके इश्क में गिरफ्तार थे त्रिलोकनाथ त्रिपाठी और ख़बर थी कि आग दोनों तरफ बराबर की लगी है । स्वामीजी को पटाने की गरज से ही वो कीर्तनिया बने थे और भरी जवानी में भजन कर रहे थे। लेकिन स्वामीजी उनको अधिक भाव नहीं देते थे। इससे त्रिलोकनाथ मन ही मन स्वामीजी से खुन्नस रखते थे ।
स्वामीजी की आदत थी, झोले में गुलाब की पंखुड़ियां लेकर चलना और जहां जाएं, वहां पुष्पवर्षा करना । वो जब भी मनसुखभाई की दुकान पर आते, फूल - पत्ती का इतना कचरा करके जाते कि मुझको दीया - बत्ती के बाद भी झाडू निकालनी पड़ती। मन ही मन मैं उनको कोसता और जाने-अनजाने त्रिलोकनाथ त्रिपाठी का समर्थन करता ।
एक दिन ऐसा हुआ कि स्वामीजी आए और आदत के मुताबिक फूलों की बहार उन्होंने बिखेर दी । फिर जाने क्या सूझी कि भीतर कारखाने में आकर बैठ गए और कोल्हापुरी चप्पलों की नई खेप देखने लगे । स्वामीजी कोल्हापुरी के बड़े पारखी थे और उसकी चोंच देखकर, वज़न भांपकर बता देते थे कि माल में कितनी जान है । अब भीतर हम तीन जन ठसकर बैठे थे। वो अपनी चिर-परिचित शैली में मंद-मंद मुस्काते बतिया रहे थे | कोल्हापुरी की तोतापुरी काट के बारे में बतला रहे थे। मैं चुपचाप उन दोनों का कुशल - संवाद सुन रहा था ।
तभी जाने कहां से घूमते-घामते त्रिलोकनाथ चले गए। उस दिन उन्होंने चढ़ा रखी थी। भांग की पिनक में थे । आए, बैठे, गुलाब की पंखुड़ियां देखकर बोले- “माहौल देखके तो लग रहा है कि बुढ़ऊ आया था !”
मनसुखभाई और मुझे काटो तो खून नहीं । बुढ़ऊ हमारे सामने ही बैठा है, ये मनसुखभाई चाहकर भी इशारा करके त्रिलोक को बता नहीं सकते थे। आज तो बुरे फंसे, हमने सोचा ।
लेकिन त्रिलोकनाथ अपनी रौ में बोलते रहे- “अमां, तुमको तो ऐसे सांप सूंघ गया, जैसे बुढ़ऊ यहीं बैठा हो । मुंह पर मत बोलो पर पीठ पीछे बुराई करने की तो रखी है, माना बहुत बड़े वाले भगत आदमी हो । फिर तुमको उससे बिगाड़ का ऐसा भी क्या खटका? तुम बाल-बच्चेदार, तुमको कौन-सी उसकी बिटिया ब्याहनी है, और उसी ने कौन - सा तुमको जंवई बनाना है।" फिर आंख दबाकर त्रिपाठी बोले- "अजी, ससुर जी तो वो हमारे हैं !”
मेरे पेट में चींटियां रेंगनी लगीं। आज तो प्रलय का दिन है, मैंने सोचा । मेरे बंधु त्रिलोकनाथ को सद्बुद्धि आए और वो चुप लगा जाए, नहीं तो अनहोनी हो जाएगी, मन ही मन प्रार्थना करने लगा ।
लेकिन त्रिलोकनाथ ने लगा रखी थी, वो भला क्यूं चुप होने लगे ?
“बुढ़ऊ स्साला बिटिया को यूं छुपाके रखता है, जैसे मुनीम बहीखाते में हिसाब छुपाता हो। इसका पांव तो कबर में लटका है, पर हमको कब तक सत्संग करवाता रहेगा? बिटिया कुंवारी मर जाएगी, तब कुछ सोचेगा? भाई मनसुख, तुम ही उसको समझाओ कि ऐसी सुंदर कन्या को घर पर गऊ की तरह खूंटे से बांधकर रखना पाप है । लाख सत्संग कर लो, ये वाला पाप नहीं धुलेगा ।"
“मेरे बाप, बस कर”- मैंने और मनसुखभाई ने मन ही सोचा- “स्साले, मरवाएगा क्या आज?” स्वामीजी के चेहरे पर किंतु अब भी तन्मय मुस्कान खेल रही थी, ये अलग बात है कि उनका चेहरा अब अजीब तरह से विकृत हो गया था। जबड़े भिंच गए थे । “आज तो सर्वनाश होकर ही रहेगा", हमने सोचा ।
आख़िरकार त्रिलोक उठा और बोला, “छोड़ो भी यार, काहे को बुड्ढे की बात करके मुंह खराब करूं, तुम तो इलायची वाली चाय पिलाओ", और ये कहता हुआ भीतर आ गया ।
भीतर जैसे ही उसने वहां मनसुखभाई और मेरे साथ स्वामीजी को बैठे देखा तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। सूरमा भोपाली की तरह सुर बदलकर बोला- “अरे स्वामीजी, आप यहां ? सब कुशल - मंगल तो है ? पाय लागूं ।” उसके बदले बोल सुनकर लग रहा था, जैसे कैसिट की “साइड ए" के बाद अब “साइड बी" बज रही हो, लेकिन " साइड ए" में उसने इतना दिल खोलकर भावनाओं को अभिव्यक्ति दे दी थी कि अब कोई भी पलटामार दांव उसकी रक्षा नहीं कर सकता था। माजरा यह था कि बात खुल गई थी, लेकिन बात खुली है, इसको जाहिर करना दोनों ही ज़रूरी नहीं समझ रहे थे । अव्वल दर्जे की चिलमनदारी अब चालू हो गई थी बोले
स्वामीजी ने भीनी-भीनी मुस्कान के साथ त्रिलोकनाथ को प्रणाम किया । कुछ नहीं। मैं इस संगीन दृश्य की गम्भीरता को भांपकर बोला, “मैं चाय लेकर आता हूं” और तुरंत दुकान से बाहर चला गया । कंठाल पर बहुत अच्छी इलायची चाय मिलती थी !
कुछ दिन बाद ये समाचार सुना कि स्वामीजी ने कुसुम का ब्याह तुरत-फुरत में स्वर्णकार समाज के किसी युवक से कर दिया । कुसुम का समाचार यह मिला कि वो भी प्यार-व्यार भूलकर पति की सेवा में मन लगाने लगी, जैसा कि होता ही है । त्रिलोकनाथ का कुशल - संवाद फिर यह मिला कि दिल टूटने के बाद उन्होंने सेवा-सत्संग त्याग दिया और किसी ठिकाने की नौकरी की तलाश करने लगे, क्योंकि पैसा-कौड़ी न हो तो कोई आपसे बिटिया नहीं ब्याहने वाला, यह वो समझ गए थे। साथ ही यह ज्ञान भी उनको मिल गया था कि प्रेमिका के बाप की बुराई ना तो उसके मुंह पर करना है और ना उसके पीठ पीछे करना है, इससे बहुत बड़ा वाला पाप लगता है।
उधर बिटिया ब्याहकर स्वामीजी गंगा नहाए । उनके वैराग्य में और निखार आ गया। व्यक्तित्व का सम्मोहन और बढ़ गया। हां, उन्होंने एक बात अवश्य की। अब वो गुलाब की पंखुड़ियां झोले में लेकर नहीं चलते, इसके बजाय गुलाबखास इत्र में भीगा रूई का फाहा कान में खोंसकर रखते और जब भी कोई मित्र मिलता, कुर्ते से गुलाबखास की शीशी निकालकर एक बूंद चुआ देते । फिर अपनी चिर-परिचित मंद-मंद मुस्कान के साथ बोलते - “प्रभु समस्त चराचर जगत का कल्याण करें। ये लगाइये योगी मत्येन्द्रनाथ की समाधि की विशेष सुगंधी, इसको लगाने से दुष्ट आत्माएं आपसे दो हाथ दूर रहती हैं ! "