साइकिल चोरी हो जाने का क़िस्सा / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
मेरे जीवन की जो पहली साइकिल थी, वो एक दूध वाले से ख़रीदी गई थी ।
उस साइकिल में दूध की टंकी टांगने के हुक लगे थे । भारी वजन उठाने के लिए हैंडल के नीचे सपोर्ट देने के लिए लोहे के सरिये थे। शॉक-अप की तरह इस्तेमाल करने के लिए उन सरियों में स्प्रिंग भी लगाई गई थी । इसी से मैंने साइकिल चलाना सीखा। नदी पार बड़नगर रोड खुला रहता था। वहां इतवार के इतवार हम साइकिल सीखने जाते। पहले कैंची साइकिल चलाना सीखी। फिर डंडे पर बैठकर चलाई। और फिर सीट पर बैठकर, जिसमें जब पैडल पर पूरे पांव नहीं पहुंचते तो बारम्बार खिसककर डंडे पर बैठना होता ।
बाद इसके, वो गौरवशाली क्षण आया, जब एक चमचमाती हुई एटलस साइकिल ली गई, किंतु वो भी नई नहीं थी । उसे भी सेकंड हैंड ही खरीदा गया था। लेकिन दूध वाले की साइकिल के उलट वह दिखने में कहीं सुंदर और सुघड़ थी । उसको देखकर बलैयां लेने का दिल होता । उस दौर में क्रिकेट हमारे अंतर्मन में बसा हुआ था। तो हमने कहा, ये साइकिल नहीं, ये तो सचिन तेंडुलकर है!
अब घर में दो साइकिलें हो गईं । चलाने वाले तीन थे। तो कुछ दिन बाद एक और लेडीज साइकिल ले ली गई । उसको शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय महाराजवाड़ा क्रमांक 3 के एक सहपाठी से उसके घर जाकर खरीदा गया। वो मक्खन की तरह चलती थी। वो भी खूब दौड़ी। घर में साइकिलों का कुनबा आबाद होता रहा ।
और फिर, सबसे आख़िर में आई मेरी सपनों की साइकिल - लाल कलर की रेंजर !
रेंजर यानी हर लिहाज़ से नए ज़माने की सवारी । एटलस की तरह उसके हैंडल मुड़े नहीं होते थे, सीधे होते थे । एटलस की तरह उसको स्टैंड पर खड़ा नहीं किया जाता था, उसमें एक साइड स्टैंड लगा था, जिस पर वो तनिक झुककर बांकी अदा से टिकती तो उसकी गर्दन घूम जाती । हम उसको देखकर निहाल हो
जाते। लगता, जैसे साइकिल नहीं फटफटी खड़ी हो । उसको चलाकर लगता कि आप कुछ हो। आपकी कोई शान है । बारात वाली घोड़ी की तरह हम इतराते । ऊपर से जैकेट पहन लेते । सिर पर रूमाल बांध लेते। जींस को नीचे से फाड़कर उसमें बूट-कट चेन लगवा लेते । साइकिल से घूमने निकलते तो हवा बालों से गुफ्तगू करती । जीवन में रस घुल जाता ।
लेकिन एक दिन ये सारा सुख जाता रहा। मैं अपनी रात - पाली की नौकरी करके लौटा। साइकिल नीचे दीवार पर टिकाई, ताला लगाया और ऊपर जाकर सो रहा। दोपहर तक उठकर खिड़की से झांका तो साइकिल नदारद । आंखों पर यकीन नहीं हुआ। फिर खुद से कहा, यहीं कहीं होगी। किसी ने क्रिकेट खेलने के लिए साइकिल के पहिये को स्टम्प बना लिया होगा । मुंह धोकर नीचे चला आया। साइकिल दूर-दूर तक नहीं । किसी ने पूछा, क्या ढूंढ रहे हो? मैंने कहा, मेरी साइकिल यहां खड़ी थी। उसने कहा, देखी तो हमने भी थी सुबह पांच बजे तक । फिर कोई तोक ले गया होगा । इधर पीछे ही कलाली है । दारूकुट्टे लोग गुलाब छाप पव्वे के लिए चोरी - चकारी करने से बाज नहीं आते। कोई ले गया होगा, भंगार में बेच आया होगा, अब वो लौटकर नहीं आनी । मेरा दिल टूट गया । उस दिन टेम्पो पकड़कर अख़बार के दफ़्तर गया । उसमें बैठे-बैठे गला रुंध गया। ऑफिस में प्रूफ पढ़कर जगत नारायण जोशी जी को देने गया तो उन्होंने कहा- ये मुंडी क्यों लटका रखी है, कोई मर गया क्या? मैंने कहा- मेरी साइकिल चोरी हो गई है। जोशी जी बहुत बड़ी तोप थे । एक स्कूल के संचालक थे और खाली समय में अख़बार में समाचार लिखने चले आते थे । उन्होंने कहा- इतनी सी बात। हमको क्यों नहीं बताया । हम हैं तो क्या गम है, शिप्रा नदी में पानी कम है। फव्वारा चौक पर एक साइकिल वाला मेरा दोस्त है, उसके पास चले जाओ। वो नई साइकिल कसवा देगा। मैंने कहा, नई साइकिल बारह सौ की आएगी, मेरे पास अभी केवल छह सौ हैं । उन्होंने कहा, हमने बोल दिया तो बोल दिया। तुम तो जाओ । एक चिट्ठी लिख देता हूं, वो ले जाकर दिखा देना ।
जगत नारायण जी ने चिट्ठी लिखी— “परवेज भाई, ये लड़का अपने बच्चे जैसा है । अपने ही पेपर में काम करता है। इसको इसकी पसंद की साइकिल दिला देना । इसके पास पूरे पैसे नहीं है, हिसाब-किताब से देख लेना । प्यार-मोहब्बत से जो भी लगे, बता देना । भोत दिन से उधर आया नहीं । फव्वारा चौक का चक्कर लगा तो आऊंगा। आदाब ।” मैं खुशी-खुशी फव्वारा चौक पहुंचा । परवेज़ भाई की दुकान पर जाकर बोला- मैं फलां अख़बार से आया हूं। जोशी जी ने भेजा है। एक चिट्ठी भी लिखकर दी है। उन्होंने कहा- जोशी जी ने भेजा है तो फिर चिट्ठी - विट्ठी क्या देखना, आप तो हुकुम करो । जो साइकिल पसंद आए, कसवा लो।
पूरी की पूरी दुकान आपकी । मैंने एक ब्लू कलर की रेंजर पसंद की । एकदम पेटीपैक। पन्नी चढ़ी हुई। क्या रंग था उसका। क्या चमचमाते कांटे वाले टय्यर थे। मैंने इससे पहले कोई नई साइकिल नहीं चलाई थी, सब सेकंड हैंड ही ली थी। उस समय मेरी तनख़्वाह नौ सौ रुपए महीना था, बारह सौ की साइकिल का सपना भी नहीं देख सकता था, लेकिन जोशी जी की कृपा से काम हो गया था। मैंने कहा, ये वाली साइकिल चाहिए | परवेज भाई ने अपने लड़कों को आवाज़ दी । वो तुरंत चले आए। साइकिल कसने लगे । भाईजान ने बिल बनाकर थमा दिया ।
बारह सौ रुपए, कसवई के पचास अलग। मैंने बिल लिया और पैसे देते हुए कहा- ये लीजिए । भाईजान ने गिने और बोले - छह सौ ? बाकी के पैसे? मैंने कहा, शायद चिट्ठी नहीं पढ़ी आपने? एक बार पढ़ लीजिए, उसमें सब लिखा है । भाईजान ने चिट्ठी ली और पढ़ते-पढ़ते ही लड़कों को बोला- रुको रुको, अभी मत कसो साइकिल। इसको अंदर ले जाओ । ये लड़का पूरे पैसे नहीं लाया है । शर्म से मेरा चेहरा सफेद पड़ गया । लगा जैसे औकात से बड़ा सपना देख लिया हो। वो ब्लू रेंजर साइकिल अपने नसीब में आख़िर नहीं है।
भाईजान बोले- एक चिट्ठी मैं भी लिख दे रहा हूं । ले जाकर जोशी जी को दे देना। भाईजान ने चिट्ठी लिख दी -
“पंडित जी, प्रणाम। आपका हुकुम सिर आंखों पर । आपकी बात मैं टाल नहीं सकता। आप बोलो तो आपके घर के आगे साइकिलें ही साइकिलें खड़ी करवा दूं और एक पैसा नहीं लूं । पर अभी धंधा मंदा है। मार्केट में उठाव नहीं है। बारह सौ की साइकिल छह सौ में मेरे को पूरेगी नहीं । बाकी सब राजी - खुशी । कभी हमारी दुकान पर पधारिये । सेवा का अवसर दीजिए। आपका छोटा भाई, परवेज बेग ।”
मैं अपना-सा मन लेकर लौट गया। हाथ में परवेज भाई की चिट्ठी मुंह चिढ़ाती रही। जोशी जी को वो चिट्ठी देने का दिल नहीं हुआ । उनको जाकर बोल दिया कि आपकी कृपा से नई साइकिल मिल गई है, ये अहसान कभी नहीं भूलूंगा । फिर चुपचाप घर लौट गया । अटाले से पुरानी वाली साइकिल बाहर निकाली, वही जिसे दूध वाले से लिया गया था। कैरियर पर टंकी टांगने का हुक, हैंडल के नीचे स्प्रिंग वाले सरिये । उसको धोया-पोंछा, ताड़ी ठीक कराई, चेन कसवाई, तेल - पानी कराया, ब्रेक टाइट कराए, और उसी को चलाने लगा।
इस साइकिल की घंटी बड़ी अच्छी बजती थी । दूर तक सुनाई देती थी आवाज़ भी बहुत मीठी। मैंने खुद से कहा- जो ब्लू रेंजर नई लेकर आता, उसमें सबकुछ भी होता, तब भी ऐसी शानदार घंटी तो नहीं ही होती ना !