एक पागल औरत का किस्सा / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
ये पागल लोग कहां खो गए - आज यकायक मैं सोचने लगा । पागल यानी वो नहीं, जिनको हम लाड़ से कहते हैं कि - तू ना, बड़ा ही पागल है । या जिनको हम कहते हैं, दीवाना। या दीवानी। उस जैसा पागल नहीं । पागल यानी सच में ही पागल । जिसका दिमाग़ फिर गया हो। जिसके ज़ेहन ने एक तरतीब में सोचने की ज़िम्मेदारी से इस्तीफा दे दिया हो ।
जब मैं अपने बचपन में लौटकर देखता हूं तो पाता हूं कि मेरे आसपास बहुत सारे पागल लोग थे। सब उनसे डरते थे, लेकिन वो कभी किसी का नुकसान नहीं करते। कभी वहशत में वो आप पर लपकते भी तो उनका इरादा आपको चोट पहुंचाने का नहीं होता । समाज उनको लेकर सहज था । वो गली-नुक्कड़ पर बैठे खुद से बतियाते दिखलाई देते । अंगुलियों को लहराकर अजनबी संकेत करते रहते। कुछ केवल शून्य में घूरकर देखते, और जब-तब कोई एक बेबूझ बात कह बैठते। पागलों में वो भी शुमार थे, जो जन्म से ही अधपगले थे । कच्चे दिमाग़ के। जिनको कि हमारे मालवा में कहते थे - गेली ग्यारस । या, बेंडो बले । या निरा पग्गल । पूरे का पूरा बावला ।
उस ज़माने में जब कोई पागलपन की हरकत करता, तो उससे कहा जाता- तुम्हें आगरे भेजना पड़ेगा । तब आगरे का पागलखाना आगरे के ताजमहल से कम मशहूर नहीं था। लेकिन मैंने तो कभी किसी पागल को आगरा जाते नहीं देखा। ये मानसिक रूप से अर्धविकसित, विक्षिप्त, सनकी लोग हमारी आंखों के सामने ही बड़े हुए और मरे - खपे । लेकिन इधर वो मुझको कहीं दिखलाई नहीं देते। पता नहीं पागल लोग कहां गुम हो गए ।
मेरा बचपन उज्जैन के कार्तिक चौक नामक मोहल्ले में बीता। पूरे मोहल्ले में कोई आधा दर्जन पागल तो रहे होंगे। लेकिन एक पागल औरत मेरे घर के ठीक सामने रहती थी। यह घर एक बाड़े में मौजूद था और वो बाड़ा हाथीवाले पण्डे का था। यह नाम हाथीवाला कैसे पड़ा, यह कोई नहीं जानता था, लेकिन बाड़े के बाहर गली के मुहाने पर बाकायदा एक हाथी की आकृति बनी थी, जिसका हर साल रंग-रोगन किया जाता । हाथी वाले पण्डे के बाड़े में मेरा घर लालमोहर शास्त्री जी के घर के सामने था । ये वही शास्त्री जी हैं, जो साप्ताहिक समाचार पत्र निकालते थे और जिनकी कलाई घड़ी हौद में गिर गई थी ।
शास्त्री जी पापा जी कहलाते थे । उनकी पत्नी मम्मी जी कहलाती थीं । उनका नाम शीला था । उन्हीं के नाम पर पापा जी ने अपने साप्ताहिक का नाम शीला समाचार रखा था । मम्मी जी की जेहनी हालत दुरुस्त नहीं थी । समय के साथ उनके दिमाग़ के पेंच ढीले पड़ते गए और पागलपन बढ़ता गया । इसकी वजह क्या थी, कोई नहीं जानता था । लेकिन एक समय के बाद यह नौबत आ गई कि मम्मी जी को सब लोगों से अलग करने का फैसला लिया गया। उन्हें एक कमरे में कैद कर दिया गया। सुबह - शाम कमरे में खाने की थाली सरकाई जाती । दिन- दोपहर में चाय भी भिजवाई जाती । लेकिन इससे अधिक उनसे किसी को कोई सरोकार नहीं रह गया था । बाड़े में होली मनती, दिवाली मनती, राखी बंधती, रावण जलता, लेकिन मम्मी जी का कमरा हमेशा बंद ही रहता । वो पागल औरत हम बच्चों के लिए भय और कौतूहल का विषय बन गई थी। उनके बारे में तरह-तरह की अफवाहें चलाई जातीं । कोई-कोई रौ में आने पर कहता, वो औरत नहीं है, डाकन है । उनको जिस कमरे में बंद किया गया था, उसका दूसरा दरवाज़ा एक बड़े से बरामदे में खुलता था । मालिक-मकान ने वो बरामदा एक प्राथमिक शाला चलाने के लिए किराये पर उठा रखा था, लेकिन मम्मी जी की चीख-पुकार से तंग आकर स्कूल वाला बरामदा खाली करके चला गया। उस पर ताला जड़ दिया गया । एक दिन मालिक - मकान चौबे जी किसी काम से आए तो बरामदे का ताला खोला और अन्यत्र चले गए। मौका देखकर हम सब बच्चे बरामदे में घुस गए। जो दरवाज़ा बरामदे और मम्मी जी के कमरे को बांटता था, उसमें दरारें थीं। हम दरार से झांककर देखने लगे। जो देखा, उससे हमारे होश फाख्ता हो गए ।
भीतर वह भयावह स्त्री - आकृति थी । बिखरे बाल, कुचैले कपड़े, विकृत मुख । वह पलंग पर बैठी इधर-उधर ताक रही थी, मानो किसी को खोज रही हो । फिर वह एक दिशा में संकेत कर बतियाने लगी। किंतु वहां तो कोई भी न था। हमारे रौंगटे खड़े हो गए | क्या सच में ही यह औरत एक डाकन है ? क्या वो किसी ऐसी चीज़ को देख सकती थी, जिसे हम नहीं देख पा रहे थे ? क्या वो भूतों से बात कर सकती थी? क्या उसका नाता किसी उच्चतर मेधा से था, जिसने उसकी लौकिक बुद्धि को विच्छिन्न कर दिया था ? मम्मी जी ने नज़रें घुमाईं और अब दरवाज़े पर नज़र जमा दी । हमसे उनकी नज़र मिली । ऐसा मालूम हुआ, जैसे वो दरवाज़े के आर-पार देख सकती थीं । हममें से एक की चीख निकल गई। अगले ही पल हम सबों की पीठ पर धौल पड़ी। एक हाथ में छतरी थामे, दूसरे से धोती सम्भाले चौबे जी हमारे पीछे खड़े थे और गुस्से से उबलते हुए हमें वहां से दफा हो जाने को कह रहे थे। मेरी मां से मम्मी जी की जाने कौन-से जन्म की दुश्मनी थी । जब कभी किसी विशेष अवसर पर उन्हें बाहर निकाला जाता, वो सबसे तो सामान्य ही बर्ताव करतीं, लेकिन मेरी मां को देखकर आपा खो बैठतीं । एक बार तो वो मेरी मां पर झपट पड़ीं और उनके बाल दबोच लिए। बड़ी मुश्किल से मां को छुड़ाया गया। मां का नाम शोभा था । क्या शोभा नाम की किसी स्त्री से मम्मी जी का अतीत में कोई विवाद रहा था ? या उनकी शक्ल-सूरत उन्हें किसी अप्रिय प्रसंग की याद दिलाती थी? कौन जानता है । फिर एक दिन ख़बर आई कि मम्मी जी ने खाट पकड़ ली है । कुछ दिन इलाज चला। फिर डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए। बाहर - गांव के नाते-रिश्तेदारों को ख़बर कर दी गई कि अब चला चली की वेला है, आख़िरी दर्शन के लिए आ जाओ। तब एक विचित्र घटना घटी।
मम्मी जी के जीवन का वो अंतिम दिन था, लेकिन ऐसा लगा, जैसे इस आख़िरी लमहे में उनका जेहन पूरी तरह से दुरुस्त हो गया था। जैसे वे कभी पागल थीं ही नहीं, केवल पागल होने का अभिनय कर रही थीं। वे सामान्य मनुष्यों की तरह सबको पहचानकर उनसे बात कर रही थीं । हम बच्चों को भी पास बुलाकर उन्होंने बहुत दुलार दिया। हाथ में सिक्के रखे । फिर उन्होंने पूछा, वो मोढ़न कहीं दिख नहीं रही ? चौबे जी के बाड़े में एक सिंधन थी, एक मिश्राइन थी, एक पटलन थी, एक ठकुराइन थी और एक मोढ़न भी थी । यह मोढ़न मेरी मां थी। मोढ़ गुप्ता समाज की होने के कारण वो मोढ़न कहलाती थीं । उन तक ख़बर पहुंचाई गई कि मम्मी जी याद कर रही हैं। वो सहमते - सहमते उनके पास गईं। मम्मी जी ने एक स्नेहपूर्ण मुस्कराहट से उनको देखा, पास बुलाया । सिर पर हाथ रखा और कहा -- बेटा, अब चलती हूँ, मुझसे कभी कोई भूल-चूक हुई हो तो माफ कर देना ।
ये साल बानवे की बात है। उस बात को अट्ठाइस साल हो गए, लेकिन मुझको वो दृश्य भुलाए नहीं भूलता। मां के सिर पर मम्मी जी का हाथ और स्नेहल मुस्कराहट के साथ अंतिम क्षमायाचना । मैं उस पल की कल्पना करने लगा, जब अपने आखिरी समय में इंसान पछतावा करता है, सबसे माफी मांगता है और अपनी आत्मा की जूठी थाली को अच्छे से मांजकर दुनिया से विदा लेता है । वो लमहा कितना जादुई होता होगा !
मम्मी जी के देहान्त के बाद उनका अंतिम संस्कार विधिपूर्वक किया गया । मृत्युभोज की दावत उसी बरामदे में दी गई, जिससे उनका कमरा सटा हुआ था । रसोई मेरी नानी ने पकाई । वो शादी - ब्याव में रसोई बनाने का काम किया करती थीं। दान-दक्षिणा हुई । आख़िर में कमरा खाली कराने का उद्यम शुरू हुआ। कोने - कंगूरे साफ किए गए। मकड़ी के जाले हटाए गए। पेटियां और पोटलियां खुलीं। एक छोटी संदूक उनके पलंग से नीचे से निकली । उसे खोला तो उसमें से कुछ गहने, कुछ कंगन, कुछ चांदी के सिक्के और एक तस्वीर मिली । तस्वीर को सब देखते ही रह गए।
साल छियासठ का आषाढ़ । उसी अवसर पर अजन्ता स्टूडियो में उतरवाई गई तस्वीर। पापा जी के साथ युवा मम्मी जी । दुलहिन की तरह सजी-संवरी और सुंदर । उनके साथ उनके चार बच्चे । तीन लड़के, एक लड़की। दो लड़के लम्बी उम्र जीये और कालान्तर में सबसे बड़े ने उनकी चिता को अग्नि दी। किंतु एक लड़का वासुदेव पांचवीं का परचा देने के बाद चेचक से चल बसा। लड़की सात साल जीकर शिप्रा नदी की पूर में बह गई । मैं टकटकी बांधे उस लड़की को देखता रहा। फिर अपने घर लौट गया और पुराने एलबम टटोलने लगा । अपनी मां के बचपन की एक तस्वीर मैंने खोज निकाली, जिसमें वो पांच साल की थीं । मैं इसी तस्वीर को खोज रहा था । एकटक देखता रहा- हूबहू वही आंखें, वही चेहरा, गालों में वैसे ही गड्ढे, मुखमण्डल पर वैसा ही निर्दोष-भाव ।
जैसे कि पूर में बहकर मरने से पहले मम्मी जी की इकलौती बिटिया अपना सारा रूप-रंग, नयन-नक्श मेरी मां को दान में देकर चली गई हो !