बरसात में गुमटी / बायस्कोप / सुशोभित

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बरसात में गुमटी
सुशोभित


आगरे वाले लालाजी ने मेरी गुमटी देखते ही कहा कि बाबू लिख लो, ये इस बार की बरसात नहीं निकाल पाएगी।

लालाजी की चाट बड़ी मशहूर थी । उनकी बातें भी मज़ेदार होतीं । उनके यहां काले कोट वाले वकीलों का तांता लगा रहता । उनकी दुकान कोठी महल के सामने थे। महल में अदालत लगती थी । लालाजी की दुकान के पास ही मेरी पान - तमाखू की गुमटी थी । मेरे पिता विरासत में मेरे लिए आजीविका का यही साधन छोड़ गए थे। यह गुमटी एक ठेले पर कसी गई थी, अंदर प्लाई का काम था। बीड़ी-सिगरेट के लिए पार्टिशन किए गए थे। कांच की स्लाइड्स थीं । एक शोकेस भी था। दुकान का नाम न्यू प्रीति पान सदन था, जिसमें पान शब्द पर हमने हरे रंग का तैलरंग पोता था ।

जून का महीना आधा निकल चुका था । पानी अब गिरा, तब गिरा वाला मामला था। अगर ये गुमटी पानी का मौसम नहीं निकाल पाएगी तो कैसे काम चलेगा? वह कच्ची ज़मीन पर खड़ी थी, पीछे खड्ड था । जिस ठेले पर कसी थी, उसके पहिये धंस गए थे। बॉडी में जंग लग गया था । गुमटी उलटे हाथ की तरफ़ झोल खा गई थी । एक बार की टपरे बजा देने वाली बरसात में ही यह धूल चाट जाएगी, यह उसको देखते ही कोई भी कह सकता था । और पानी अब आने ही वाला था । यानी गुमटी का काम लगाने के लिए अब सोचने का भी समय नहीं बचा था ।

जब फ़ैसला कर ही लिया तो मन कड़ा करके लोहे - लक्कड़ का काम कराने वालों के पास पहुंचा। उनको पूरी कहानी सुनाई। उन्होंने कहा, चाहे जितनी रामायण सुना दो, पर जब तक कारीगर वहां जाकर देख नहीं आएगा, तब तक कुछ नहीं हो सकता । अब ये कारीगर कहां मिलेगा ? मालिक - दुकान ने सामने चाय की थड़ी की ओर इशारा करते हुए कहा, वो जो बैठा है ना महेन, बस वही कारीगर है। उसको उठा ले जाओ।

महेन कोई चालीसेक साल का आदमी था । ताम्बई बदन, सिर के बाल आधे नदारद और बचे - खुले बालों में धूल - लकड़ी के बूरे की कनी, पीले दांत, ढीली कमीज़ और पतलून, रबड़ की चप्पलें । वो चाय पी रहा था । मैं उसके पास पहुंचा। बोला महेन भिया, अपने को एक काम लगाना है। उसने जैसे सुना ही नहीं, चुपचाप चाय पीता रहा । मैं इधर बोलता रहा। वो ताकता रहा । चाय पूरी पीकर दशरथ का बण्डल निकाला और बीड़ी सुलगाकर पीने लगा। यह काम चार-पांच मिनट में निबटाया । फिर जेब से गुटखे की पुड़िया निकाली - इंदौरी तमाखू, किमाम, लौंग और छिलन सुपारी । गुटखे का सेवन किया । फिर जैसे उसके बदन में करंट दौड़ा हो, लपककर साइकिल निकाली और बोला- चलो भिया, कहां चलना है।

ये साल 2002 की बात है । जानने वाले जानते हैं, उस साल उज्जैन में जैसा सूखा पड़ा था, वैसा इधर के चालीस-पचास साल में नहीं पड़ा होगा । गम्भीर बांध तल्ले तक आ गया था । चार दिन छोड़ पानी दिया जाता था। रोज़ सुबह अख़बार में सूचना छपती कि अब केवल बारह एमसीएफटी पानी बचा है, अब छह, अब दो। फिर एक दिन ख़बर आई कि दो दिन बाद शहर को पानी की आख़िरी सप्लाई की जाएगी। उसके बाद नगर निगम टैंकर से पानी पहुंचाएगी । जब तक धकेगा, धकाएंगे। आगे बाबा महान्काल की इच्छा।

जब जून की पंद्रहवीं तारीख निकली तो लोग बेचैन हो गए। पानी अब तक आ जाना चाहिए था, पर दूर तक एक बदली तक नहीं दिखलाई देती । टोटके शुरू हो गए। मेंढक-मेंढकी का ब्याह रचाया गया । शंकर जी की पिंडियों को पूरे नगर में पानी में डुबोया गया । चौरासी महादेव ने जलसमाधि ली । यज्ञ-हवन होने लगे। पर्जन्य-देवता को पुकारा जाने लगा । पर पानी गिरने का नाम ना ले । इधर मैं तो मन ही मन खुश था । गुमटी बनकर तैयार हो जाए, उसके बाद ही पानी आए - यह मेरे लिए सुभीते का था । दुनिया का चाहे जो हो जाए, आदमी सबसे पहले अपनी ही सोचता है ।

जिस दिन अख़बार में ख़बर आई कि दो दिन बाद पानी की आख़िरी सप्लाई होगी, उसके ठीक दो ही दिन बाद मेरी गुमटी बनकर तैयार हुई | सेठीनगर में एक हार्डवेयर दुकान पर वो खड़ी थी। अंदर का ढांचा सही-सलामत था, पर बाहर की बॉडी बदली गई थी । लोहे का काम हुआ था और वेल्डिंग के निशान जहां-तहां नीले घावों की तरह उभरे हुए थे। दुकान चार एंगल पर खड़ी थी। ये ढांचा अब ठेले पर दुलाकर सेठीनगर से कोठी महल तक ले जाना था । वहां इसको खड़ा करके ईंट - गारे की चिनाई करके इसको पुख़्ता कर देना था।

रामजी का नाम लेकर हमने गुमटी को ठेले पर टिकाया । मेरी पूरी बचत दुकान में खप गई थी, अब लेबर लेने का पैसा नहीं था । महेन भिया ने कहा, ऐसे तो मैं मिस्त्री-कारीगर हूं, मजदूर नहीं हूं, पर तुम भी क्या याद करोगे । एक हाथ तुम लगाना, एक मैं लगाऊंगा, अपन ठेला धकाकर ले जाएंगे। बस दुआ करो कि पानी नहीं आना चाहिए ।

बस पानी नहीं आना चाहिए- इस वाक्य के कितने अर्थ हो सकते थे। अगर उस दिन कोई हमें यह वाक्य कहते सुन लेता, तो निश्चय ही शाप देता । जब पूरा शहर बरसात के लिए प्रार्थना कर रहा था, जिस दिन नगर को पानी की आख़िरी सप्लाई की गई थी, उस दिन हम मन ही मन मना रहे थे कि आज पानी नहीं गिरना चाहिए। क्यों ? ताकि हमारी दो पैसे की पान - तमाखू की गुमटी ठिकाने पर लग जाए ? भई वाह । आदमी की जात और उसकी खुदगर्जी ।

ठेला चला। सेठीनगर से कोठी महल कोई पांच किलोमीटर दूर रहा होगा । आधा सफ़र मजे से कटा । किंतु जैसे ही उदयन मार्ग से काटकर कोठी रोड पर हमने अपना ठेला लगाया, गगन-मण्डल में नगाड़े गूंज उठे।

जब बादल गरजते हैं तो किसी के मन में लड्डू फूटते हैं, किसी का दिल सहमकर नुक़्ता हो जाता है- ये मिसाल सुनी तो बहुत थी, उस दिन इसे सच में जाना। यह इस पर निर्भर करता है कि आपका महल गारे का है या सोने का । इतने दिन निकाल लिए, आधा घंटा और निकाल लो, इंद्र देवता- मैंने मन ही मन कहा, लेकिन इंद्र देवता को अब चैन कहां था। पूरे नगर की आशाएं साथ जुड़ा गई थीं। बहुत दिनों का जैसे उनका भी दिल भरा हुआ था ।

कोठी रोड पर एक किलोमीटर और चलना हुआ कि धारासार बरखा शुरू हो गई। वह सामान्य वर्षा नहीं थी, महावृष्टि थी । उज्जैन नगर ने वैसी वर्षा उसके बाद नहीं देखी। प्रलय जैसा दृश्य उपस्थित हुआ। बांध की प्यास मिटने लगी। शिप्रा नदी ने आशीष दिया । नगरवासियों ने छतों पर जाकर इंद्रदेवता को नमन किया। बाबा महाकाल ने लाज रख ली, आज के दिन पानी नहीं गिरता तो जाने क्या होता ।

किंतु कोठी रोड पर ठेला धकाकर ले जा रहे उन दो जनों के दिल कांप गए । महेन की तो मजूरी का सवाल था, मेरी तो रोज़ी-रोटी पानी में जा रही थी । लकड़ी का काम, कांच का काम | प्लाई फूल गई तो स्लाइड नहीं चलेगी। बॉडी पर पानी लग गया तो जंग लगते देर ना लगेगी । तब महेन भिया ने ठेला एक पेड़ के नीचे लगाकर कहा, तुम रुको, मैं सेठीनगर से बरसाती लेकर आता हूं। गुमटी गल गई तो सारा किया-धरा बराबर हो जाएगा । मैंने हामी भर दी । पर रुआंसा होते हुए कहा- जल्दी आ जाना भैया I

अब वृष्टि थी, मैं था और सड़क किनारे ठेले पर खड़ी मेरी गुमटी थी । बिजली कड़की। अंधड़ का झोंका आया । मुझे लगा, कहीं ठेला ना उलट जाए। बीच रस्ते असहाय होने का बोध क्या होता है, उसकी जो आदिम त्वरा होती है, यह मैंने उस दिन जानी । मुझको लगा, जैसे मैं धरती में धंस गया हूं, मेरे घुटने टूट गए हैं, अब प्रार्थना के सिवा कोई उपाय शेष नहीं रह गया है । और जैसे ही मन में वह कातर-भावना आई, सब शांत हो गया । उस महावृष्टि के भीषण सौंदर्य से मेरा भी मन जुड़ा गया ।

आधी घड़ी बीती कि महेन भिया मोमपप्पड़ की बरसाती लेकर साइकिल पर आते दिखे। हम दोनों जनों ने मिलकर गुमटी को ढांका । रस्सी से बांधा। सड़क किनारे से ईंट-पत्थर के टुकड़े उठाकर बरसाती पर रखे । और फिर अपनी जमात शुरू की। धीरे-धीरे, एक-एक डग, संघर्ष करते हुए हम कोठी महल पहुंचे, तब जाकर पानी रुका। प्रकृति मुस्कराई। इंद्रधनुष खिल आया । ऐसा लगा जैसे किसी का दिल अब जाकर हलका हुआ है । महीनों से जो भारी था ।

अपूर्व चमत्कार! कल गम्भीर बांध खाली था, आज पूरा लबालब । एक दिन में एक साल का पानी आ गया । नदी-नाले बह निकले। गांव खेड़ों में डबरियां उलाल हो गईं। अख़बार ने पहले पन्ने पर सुर्खी छापी - नगरवासियों को बधाई । बांध में सालभर का पानी आया। कल से रोज़ पानी की आपूर्ति शुरू होगी ।

और मेरी गुमटी ? कहीं जरा-सा कांटा लगा, कहीं कंकड़, बाकी पूरी की पूरी साबुत । प्लाई जरूर फूल गई पर दो बार की कड़ी धूप में फिर खिल जाने वाली। न्यू प्रीति पान सदन में पान शब्द पर हरा तैलरंग अवश्य विवर्ण हो गया, पर एक बार के रोगन में फिर चहक जाने वाला । ठेला आया देखकर आगरे के लालाजी दौड़े। दो जनों ने हाथ लगाया। गुमटी चार एंगल पर सीना तानकर खड़ी हुई। जैसे अपनी ख़ुदमुख़्तारी पर नाज कर रही हो । चाय के दो गिलास सामने आए। मैंने चाय पीते-पीते महेन भिया को गले लगा लिया। आज आप ना होते तो, मेरे लिए तो आप देवदूत समान !

दो दिन बाद मिस्त्री आकर ईंट - गारे की चिनाई कर गया। दुकान अब ऐसे खड़ी थी कि सौ साल तक नहीं हिले । पर मैंने कहां सौ साल तक यहां कत्था - चूना लगाना था। जीवन मुझको कलमनवीसी की दुनिया में ले गया । गुमटी वहीं रह गई। किराये पर चढ़ा दी। बहुत दिनों तक किराया आया । फिर किरायेदार ने पांच हजार रुपए में उसे ले लिया।

बाद उसके, मैं जब भी कोठी महल जाता, अपनी गुमटी पर आमद दर्ज कराता, जो अब मेरी नहीं थी । इधर कई सालों से उधर नहीं गया हूं । पर वो गुमटी आज भी वहां खड़ी है । जिस दिन वहां जाऊंगा, उस महावृष्टि को याद करूंगा और मुस्कराऊंगा । और सबों से बड़े ही गौरव से कहूंगा - यह छोटी-सी गुमटी नहीं है, यह तो मेरे जीवन का एक महान स्मारक है !