दसवीं की मार्कशीट / बायस्कोप / सुशोभित

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दसवीं की मार्कशीट
सुशोभित


बारहवीं करके मेरे दिमाग पर जाने क्या धुन चढ़ी कि मैंने कह दिया, अब नहीं पढ़ना। सभी भौंचक रह गए। मैं क्लास टॉपर था । टीचर्स का चहेता था । सबने समझाया किंतु मैं न माना । मैंने कहा, मेरा मन नहीं है ये बाबूगिरी वाली पढ़ाई करने का, कुछ और करूंगा। उन्होंने पूछा, क्या करोगे? मैंने स्वयं को मैक्सिम गोर्की समझते हुए कहा कि जीवन के विश्वविद्यालयों में सिखाए जाने वाले सबक कम नहीं होते । ये साल निन्यानवे की बात है । मैं सत्रह का था।

पूरे तीन साल मैं अकादमिक पढ़ाई से दूर रहा। इस अवधि में भांति-भांति के खटकरम किए। मेरे पास क़िस्सों का जो पिटारा है, वो इन तीन सालों की ही देन है। इसी दौरान मैंने मनसुखभाई वढेरा की दुकान पर काम किया और जूते बनाना सीखे । मालीपुरे के गुप्ता साहित्य भण्डार में काम किया और छपाई उद्योग को करीब से देखा । एक सांध्य दैनिक की एजेंसी ली और चार लाइन में चार लड़के दौड़ाकर पेपर - सेठ बना ! नृसिंह घाट पर विपश्यना की ध्यान-साधना करके कुंडलिनी जागरण का विफल प्रयास भी इसी कालखंड में किया । इसी दौरान छत्रीचौक की युवराज जनरल लाइब्रेरी की सदस्यता ली और तीन सौ पृष्ठ प्रतिदिन की गति से पढ़ते हुए तीन साल में पूरी लाइब्रेरी को दीमक की तरह चट कर गया।

फिर इस सबसे ऊब गया तो सोचा अब थोड़ी पढ़ाई-लिखाई भी कर लेते हैं । यह निर्णय लेने के तात्कालिक आर्थिक दबाव भी थे। मैं माधव कॉलेज गया और बीए में एडमिशन का फॉर्म ले आया। उन्होंने मुझे दस्तावेजों की फेहरिस्त देते हुए कहा, ये तमाम पेपर्स ले आना। मैं घर आया और एक-एक कर तमाम दस्तावेज जुटा लिए। किंतु दसवीं की मार्कशीट का कहीं अता-पता नहीं । पूरी पेटी खंगाल दी, सूटकेस छान मारा, कागज - पत्तर उलट-पुलटकर देख लिए, कहीं नामो-निशां नहीं। मैंने उसके बिना ही फॉर्म भरा और सबमिट कर दिया। माधव कॉलेज वालों ने जस का तस फॉर्म लौटा दिया। कहा, टेंथ की मार्कशीट कहां है? मैंने कहा, खो गई। उन्होंने कहा, फिर एडमिशन की बात भूल जाओ। टेंथ की मार्कशीट में आपके बर्थ ईयर का सर्टिफिकेशन होता है । एक बार बारहवीं की मार्कशीट नहीं दो तो चलेगा लेकिन टेंथ की तो चाहिए ही चाहिए। गुम गई है तो नई बनवाना होगी ।

अब ये नई मुसीबत। दसवीं की मार्कशीट नई कहां से बनेगी? एक मित्र ने बताया कि इंदौर में माध्यमिक शिक्षा मण्डल का क्षेत्रीय कार्यालय है। वहां साक्षात जाकर बनवाना पड़ेगी। मैंने कहा, और कोई चारा तो है नहीं, तो अब यही करना होगा। एक दिन की छुट्टी ली और बस पकड़कर इंदौर पहुंच गया।

इतने बड़े सरकारी दफ़्तर में मेरे जैसे नाचीज़ चप्पल घिस - घिसकर मर जाएं लेकिन काम न हो, ये मुझको मालूम था । इसलिए जाने से पहले मैंने अपने एक परिचित पत्रकार से अनुरोध किया कि मैं इंदौर जा रहा हूं, आप जरा सिफारिश के लिए फ़ोन फाटे करवा देना। वो सज्जन शिक्षा विभाग की ख़बरें कवर करते थे और ये दावा करते थे कि प्रदेश का शिक्षा मंत्री रोज़ सुबह उनको फोन करके गुड मॉर्निंग बोलता है। उन्होंने कहा, अरे वो माशिमं का क्षेत्रीय अधिकारी अपना भाई है। तुम तो वहां जाकर मेरा नाम बोल देना । पेट का पानी हिलने नहीं देगा। हाथ जोड़कर मार्कशीट बनाएगा। ऊपर से चाय अलग पिलवाएगा। मैंने कहा, बस और क्या चाहिए ।

माध्यमिक शिक्षा मण्डल पहुंचकर मैंने बड़े साहब को चिट्ठी भिजवाई कि मैं उज्जैन में फलां अख़बार से आया हूं और ढिकां पत्रकार ने मुझको भेजा है । उन्होंने मुझको भीतर बुलवाया। फिर बैठने को कहा । पेपरवेट घुमाते हुए पेपर पढ़ते रहे। मैंने कुछ देर इधर-उधर की बात की । फिर धीरे से अपने आने का प्रयोजन बताया- वो सर, बात ये है कि मेरी टेंथ की मार्कशीट गुम गई है, मुझको नई बनवाना है ।

अबकी बड़े साहब ने चश्मा नाक पर सरकाकर मुझको ऊपर से नीचे तक देखा, मानो स्वगत होकर कह रहे हों, कहां कहां से चले आते हैं । फिर बोले, अर्ज़ी लिखकर दे दो। तीन दिन बाद आना और पता कर लेना कि मार्कशीट कब तक बन जाएगी। मेरा दिल बैठ गया। मैंने हिम्मत जुटाकर कहा, सर हाथोंहाथ नहीं बन सकती ? उन्होंने अब खीझकर कहा, मार्कशीट बनवाने आए हो या भेलपूरी खाने आए हो? हाथोंहाथ यहां पर कोई काम नहीं होता । अब जाओ ।

जी सर, बोलकर मैं बाहर आ गया । यही होना था ! एक दिन में भला कोई काम होता है? तो अब तीन दिन बाद फिर इंदौर आऊं, केवल ये पता करने के लिए कि अगली बार कब आना होगा ? ये तो बुरे फंसे । मेरे चेहरे पर हवाइयां उड़ते देख एक सयाना बाबू मेरे पास आया और बोला, मार्कशीट बनवाना है ? साहब से क्या बोलते हो, इधर के बोस तो अपन हैं। दो सौ रुपए दो, आज के आज बना देंगे। मुझको सहसा लगा जैसे मुझ अंधे के हाथ बटेर दब गई । ईश्वर ने मुझ पर कृपा कर दी। मानो काम हो ही गया । मैं तुरंत बड़े साहब के केबिन में गया और सधे हुए शब्दों में कहा- “सर, आपका कहना था कि हाथोंहाथ मार्कशीट नहीं बन सकती, किंतु आपके कार्यालय के एक बाबू का दावा है कि दो सौ रुपए दूं तो वो आज ही बना देंगे। मैं यहां पर आपके कथन को अधिकृत मानूं या उनके ? ख़बर तो उनके कथन के आधार पर ही बनेगी। किंतु चूंकि यहां अथॉरिटी आप हैं अतः बयान तो आप का ही दर्ज होगा । कृपया अपने नाम की ठीक-ठीक वर्तनी बता दीजिए, ताकि कल सुबह के पेपर में आपका नाम गलत ना छपे !”

बड़े साहब की कनपटी सुन्न हो गई । तैश में आकर घंटी बजाई । सयाने बाबू को बुलवाया। और उसको घूरकर देखते हुए कहा- हुए कहा- ये फलां पेपर से आए हैं, शाम तक इनकी मार्कशीट तैयार करके दे दो। उसने कहा- सर, टेलीप्रिंटर काम नहीं कर रहा। उन्होंने कहा - तो हस्तलिखित मार्कशीट बना दो और उस पर सील लगा दो। जाओ !

हम दोनों बाहर आए। सयाने ने कहा, तुमने बताया नहीं कि तुम पत्रकार हो। मैंने कहा, आपने पूछा ही नहीं । उसने कहा, नहीं शक्ल से शरीफ लग रहे थे, इसलिए शक नहीं हुआ ।

दोपहर थी। मार्कशीट लेने शाम को आना था । मैं राजबाड़ा गया और उपाध्याय भोजनालय पर खाना खाया । फिर कृष्णपुरा छतरी पर जाकर बैठ गया! फिर कोठारी मार्केट में टहलता रहा। छप्पन दुकान गया और रबड़ी खाई । फिर ऑटो वाले को बोला, दैनिक भास्कर कार्यालय, प्रेस कॉम्प्लेक्स चलो। बस वाले ने उज्जैन से इंदौर लाने में जितने पैसे नहीं लिए थे, उससे ज़्यादा ऑटो वाले ने छप्पन दुकान से प्रेस कॉम्प्लेक्स ले जाने में छीन लिए। मैं अपने साथ कुछ कविताएं लेकर आया था। ऑफिस के रिसेप्शन पर कविताएं दीं और कहा, ये रसरंग में छपवाना हैं । रिसेप्शन वाले ने रख ली। मैंने कहा, छप जाएंगी ना? उसने मुस्कराकर कहा, भय्यू, ये भास्कर है, यहां दिन में सौ कवि और सवा सौ शायर आते हैं। अगर छपी तो आपको दिख जाएगी। मैंने कहा, जी सर । और लौट आया। कविता नहीं छपना थी, सो नहीं छपी । संयोग था कि सालों बाद इसी इंदौर वाले कार्यालय में हिंदी की श्रेष्ठ पत्रिका के लिए काम करने का सुअवसर मिला।

शाम हो गई। मैं सीधे माशिमं पहुंचा । सब चले गए थे । कर्मठता की प्रतिमूर्ति सयाने बाबू इकलौते बैठे मेरी मार्कशीट की नकल तैयार कर रहे थे। मुझको देखकर हाथ जोड़ा और कहा, ले भाई, तेरी मार्कशीट । अब इसको गमछे में लपेटकर रखना। आज दर्शन दिए, अब इसके बाद कृपया दिखाई नहीं देना । मैंने कुछ नहीं कहा। बस पकड़कर उज्जैन लौट आया । देवासगेट पर उतरा तो गायों के हुजूम को देखकर सहम गया । कहीं कोई गाय मेरे हाथ से फाइल झपटकर मार्कशीट समेत उसे चर जाए तो? मैंने फाइल को कसकर पकड़ लिया । रिमझिम शुरू हो गई। कहीं बारिश से मार्कशीट गल जाए तो? मैंने फाइल को कमीज के अंदर डाल लिया । चामुंडा चौराहे पर टेम्पो पकड़ा और सीधे फ्रीगंज पहुंचा। मार्कशीट का लेमिनेशन करवाया और आठ फ़ोटोकॉपी करवाईं। तब जाकर जान में जान आई।

इसी मार्कशीट से फिर मैंने बीए पास किया । अंग्रेजी साहित्य में एमए भी इसी की कृपा से किया । पत्रकारिता की पढ़ाई का फॉर्म भी इसी की मदद से डाला । फिर ऐसा भी समय आया, जब यह मार्कशीट अप्रासंगिक हो गई और पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, मतदाता प्रमाण पत्र का महत्व अधिक हो गया । आधार कार्ड तब नहीं था ।

उस बात को फिर बहुत साल हो गए । एक दिन मैं अपना सूटकेस जमा रहा था कि वह मेरे हाथ से फिसला और नीचे गिर गया। देखता क्या हूं- किसी मुकद्दर के सिकंदर ने जैसे ताशपत्ती के खेल में तुरुप का इक्का फेंका हो, ठीक वैसे ही दसवीं की ओरिजिनल मार्कशीट बाहर निकलकर गिर पड़ी। अरे, ये कहां से आई ! मैंने सूटकेस का मुआयना किया तो पाया कि मार्कशीट उसके कपड़े के अस्तर में घुस गई थी। एक यही जगह थी, जहां मैं तफ्तीश नहीं कर पाया था । मैंने मन ही मन कहा, धत्तेरे की । नाहक ही इतना झमेला हो गया, मार्कशीट तो गुमी ही नहीं थी । फिर सोचा, माध्यमिक शिक्षा मण्डल वाले उस सयाने बाबू को जाकर बतलाऊं कि अच्छी ख़बर है । ओरिजिनल मार्कशीट मिल गई । उसको प्रेम से चाय पिलवाऊं। और अंत में जोड़ दूं कि भाई, दिल में मत रखना, उस दिन बेकार ही मेरी वजह से तुमको डांट पड़ी, शाम को देर तक काम करना पड़ा, और दो सौ रुपए का नुक़सान हुआ, सो अलग!