आम का झोलिया / बायस्कोप / सुशोभित

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आम का झोलिया
सुशोभित


ये कोई बारह-तेरह साल पुरानी कथा है । मैं इन्दौर में एक वेब सर्विस प्रोवाइडर कम्पनी में काम करता था । निवास उज्जैन में था । इसलिए रोज उज्जैन-इंदौर अपडाउन करता था। रेलगाड़ी का पास बनवा रखा था, इसलिए आने-जाने के खर्चे की चिंता ना थी । एक दिन एक मित्र का फोन आया। और क्या नई - जूनी, सब कुशल - मंगल, क्या नया उतापा, सब ठीक-ठाक, आदि के उपरान्त उन्होंने कहा कि बुधवार को गणेज्जी के दिन एक छोटा-सा प्रोग्राम रखा है। बालक का मुण्डन है भोजन - भण्डारा भी होगा । घर-परिवार की बात है, तो अपने को आना है । अलग से धर्मशाला बुक नहीं करी है, घर की छत पर ही टेंट लगवा लेंगे। मैंने कहा, जरूर आऊंगा, पर एक शर्त है- रसोई कहारवाड़ी वाले दयाराम हलवाई से बनवानी होगी, वो कच्चे आमों का झोलिया बहुत बढ़िया बनाता है । मित्र ने कहा, हो जाएगा, और हुकुम करो? मैंने कहा, इतना बहुत है, फिर बुध को मिलेंगे। फ़ोन रख दिया गया ।

मैंने कैलेंडर देखा। आज गुरुवार था, अभी समय था । सोचा मंगल की शाम छुट्टी मांग लूंगा। मुझे छुट्टी मांगना संसार का सबसे कठिन काम लगता था । आज भी लगता है । ऐसा मालूम होता है, जैसे छुट्टी नहीं किसी से कर्जा मांग रहा हूं। मैं भरसक इसे टालता रहता हूं और जिस दिन छुट्टी लेना है, उससे एक दिन पहले दफ्तर छूटने से पहले बड़े संकोच से अर्जी देता हूं | दुनिया का कोई बॉस खुशी-खुशी छोड़ता नहीं, लेकिन अगर काम का दबाव न हो तो थोड़ी ना-नुकुर के बाद छुट्टी मिल ही जाती है।

देखते-देखते दिन बीत गए । मंगल का दिन आया। मैं शाम का इंतजार कर रहा था कि पांच बजे बॉस ने अर्जेंट मीटिंग बुला ली। कहा, नई टास्क आई है और डेडलाइन टाइट है । आप लोगों की इस वीकेंड की छुट्टियां रद्द की जाती हैं और कल से सभी लोगों को एक घंटा जल्दी काम पर आना है।

मेरा दिल धक्क से रह गया । कहां तो मैं आज शाम छुट्टी मांगने जा रहा था, कहां यह अतिरिक्त काम सिर पर आ गया । फिर छुट्टी मांगने की हिम्मत ही ना हुई। मांगता भी तो मिलती नहीं । मित्र के बालक का मुण्डन है- इस पर भला दुनिया का कौन-सा बॉस लीव देता है ? और झूठ बोलकर छुट्टी मांगने की कला जीवन में सीखी नहीं ।

पर अब मित्र को क्या बोलूंगा, इसी उधेड़बुन में रहा । रात को उसको फोन करके बोला कि भाई, माफ कर देना, नहीं आ पाऊंगा । मित्र बिगड़ गया । बोला, माना कि इन्दौर में बहुत नोट छाप रहे हो, पर दोस्ती - यारी में इतना भी नहीं कर सकते? मैंने कहा- भाई, मेरी इन्दौर के सियागंज में दुकान नहीं है, जहां नोट छाप रहा हूं। जॉब करता हूं । काम है तो जाना पड़ेगा । उसने कहा, तू हमको सर्विस और बिजनेस का फ़र्क मत बता । तेरे को नहीं आना है तो मत आ । पर शाम सात बजे प्रोग्राम शुरू हो जाएगा और दस बजे तक चलेगा, तेरी जानकारी के लिए बता रहा हूं । कहकर उसने फ़ोन रख दिया ।

मेरे दिमाग में एक विचार आया। दफ़्तर सात बजे छूट जाता था, किंतु रेलगाड़ी नौ बजे चलती थी। तीन सौ रुपया महीने का मेरा पास था, यानी एक बार का फेरा पांच रुपए का पड़ता था । इसी रूट पर चलने वाली बस एक फेरे का पैंतीस रुपया लेती थी। रेल और बस की यात्रा में तीस रुपए का अंतर था, इसलिए मैं बस से कभी नहीं आता था। ऑफिस से छूटकर मैं दो घंटा इन्दौर में पैदल भटकता रहता था । कभी बक्षी गली चला जाता तो कभी कोठारी मार्केट I कभी राजबाड़े पर जाकर बैठ जाता । कभी रणजीत हनुमान चला जाता और श्रीविकास रबड़ी भण्डार पर गोरस की मिठाइयों का भोग लगाता । फिर साढ़े आठ तक स्टेशन पहुंचकर आठ पचपन पर खुलने वाली इन्दौर - ग्वालियर इंटरसिटी पकड़ लेता था। मैंने सोचा, अगर बुधवार के दिन रेलगाड़ी के लिए नहीं रुकूं और सात बजे बस पकड़कर उज्जैन निकल जाऊं तो नौ बजे तक पहुंच सकता था । फिर घर जाकर मुंह-हाथ धोकर, कपड़े बदलकर साढ़े नौ बजे तक कार्यक्रम में जा सकता था। यही ठीक रहेगा, यह सोचकर मैंने मित्र को मैसेज डाल दिया कि पक्का तो नहीं है, पर आने की पूरी कोशिश करूंगा ।

समय पर कार्यालय छूटा। छप्पन दुकान से सिटी बस पकड़कर सरवटे बस स्टैंड पहुंचा। वहां शुक्ला की उज्जैन जाने वाली बस बाहर ही लगी हुई थी । बस में बैठा। बस ने चलने में सुस्ती दिखाई, लेकिन एमआर - 10 रिंगरोड के बाद अरबिंदो हस्पताल क्रॉस करते ही स्पीड पकड़ ली। मैं अपनी कुर्सी में धंस गया और खिड़की से बाहर देखने लगा। हवा मेरे बालों से खेलने लगी । चेहरे पर धूल की परत जमने लगी, आंखों में तंद्रा आ गई - जो यात्राएं करने वालों को मिला समय-देवता का उपहार होता है ।

धरमपुरी निकला, सांवेर अभी आया नहीं था कि अचानक बस खड़खड़ाकर बंद हो गई। अब ये नया उत्पात । क्या हुआ ? पूछने पर पता चला, इंजिन फेल हो गया है। गई भैंस पानी में, मैंने खुद से कहा । गरीबी में आटा गीला होता ही है। जिस दिन जल्दी करो, उस दिन और देर होती है । यही विधाता का नियम । अब कोई चारा नहीं था । इन्दौर से आने वाली सभी बसें खचाखच भरी थीं, इसी गाड़ी से जाना था, जब भी ले जाए । ड्राइवर, कंडक्टर, क्लीनर सब गाड़ी की मरम्मत में जुटे । लेकिन रेत की घड़ी में जैसे छेद हो गया हो, वैसे समय तेजी से हाथ से निकलने लगा । आठ के साढ़े आठ बजे, फिर नौ, साढ़े नौ, पौने दस - तब जाकर गाड़ी स्टार्ट हुई। अभी तो सांवेर आएगा, फिर शिप्रा नदी क्रॉस होगी, नानाखेड़ा पर बस खाली होगी । मुझको तो देवासगेट तक जाना है । ग्यारह से पहले तो क्या पहुंचूंगा । तो मित्र के यहां जाना आज मेरी नियति में ही नहीं था, उसके सामने मेरी नाक कट जाएगी - मैंने सोचा और घोर हताशा में डूब गया ।

बस उज्जैन पहुंची। मैं उतरा । बाइक स्टैंड से मोटरसाइकिल उठाई । किक मारने ही वाला था कि मित्र का फोन गया- क्या गुरु, अभी तक राजबाड़े पर ही मंडरा रहे हो? मैंने कहा, बस अभी उज्जैन उतरा हूं । उसने कहा- तो क्या तुम्हारे लिए अलग से चौघड़िया निकलाऊं ? या पीले चावल भेजूं? मैंने चौंककर कहा- अभी? ग्यारह बज रहा है, क्या प्रोग्राम अभी चल रहा है? उसने कहा - मेहमानों के लिए तो कार्यक्रम दस बजे ख़तम हो गया, टाट- पट्टियों की घड़ी बन गई। लेकिन घर-परिवार के लोग अभी बैठे हैं, जीम रहे हैं। तुम आ जाओ। मैंने कहा- पर कपड़े सफर के कारण मैले हो रहे हैं। उसने कहा - तो हम कौन-सा कलफ वाले कुर्ते में घूम रहे हैं? दिनभर काम किया है, गैस की टंकियां तीन मंजिल ऊपर चढ़ाई हैं। अभी अपन दिखने में एकदम भेरू हो रहे हैं। मैंने कहा- पर मैं कोई उपहार नहीं ले पाया । उसने कहा- मैं तेरे लगन में खाली हाथ जीमने आ जाऊंगा, पर तू अब आ जा । देर मत कर, मैं पांच तक गिन रहा हूं।

मैं उल्लास से भर गया । तो अभी सबकुछ खत्म नहीं हुआ था ? एक गुंजाइश बाकी थी ? जीवन ने अभी हार नहीं मानी थी। नैराश्य इतना भी सघन नहीं था कि उम्मीद की एक किरन भी नजर ना आए । मैंने किक मारी, और हवा से बातें करने लगा। सीधे मित्र के घर के सामने मोटरसाइकिल रोकी । दौड़ते हुए छत पर पहुंचा। हवा में भोजन - भण्डारे की वही जानी-पहचानी महक थी, जो भारतभूमि के गांव-कस्बे में रहने वालों की आत्मा में बसती है। बिजली के गुलुप की झालर टंगी थी। कोने में तेज रोशनी वाले दो फोकस लगे थे, जिन पर पतंगे भिनभिना रहे थे। लोहे के दरवाजे के पीछे जूते-चप्पल बिखरे पड़े थे । टाट-पट्टियां घड़ी कर ली गई थीं, लेकिन एक कोने में घर के तीन लोग जीम रहे थे, उनकी दरी अभी बिछी हुई थी। झारिये में पूरियां उतर रही थीं । मित्र ने मुझको देखते ही कहा, बोस, एकदम सही टाइम पर आए हो, ये बस लास्ट वाली पूरियां उतर रही थीं, इसके बाद हलवाई अपनी दुकान मंगल करने वाला था ।

मैं सीधे जाकर मित्र के गले मिला । उसको बहुत बधाइयां दीं। एक तरफ मुण्डित शीश वाला बालक घोंट - मोट होकर बैठा था, उसे जाकर दुलारा । एक कोने में लोटा-बाल्टी रखी थी, उससे हाथ-मुंह धोया और जूता निकालकर जीमने बैठा। तुरंत पत्तल बिछ गई। सबसे पहले पानी पिलाया गया । आलू-भटे की सूखी सब्जी परोसी गई, फिर दाल और रायता आया । मीठे में खोपरा - पाक रखा गया । नमकीन में सेव-बूंदी थी । पूरियां प्रस्तुत की गईं । पत्तल के कोने में चुटकीभर नमक रखा गया। मित्र ने कहा- बोल महान्काल महाराज की... मैंने उद्घोष किया- जय... और भोजन शुरू कर दिया । दिनभर की थकान, चिंता, दौड़धूप, लाचारी के अहसास के बाद अब मन विश्रान्त हो गया था । हृदय में उत्फुल्लता खेलने लगी थी। संसार विद्वेषी नहीं मित्रवत लग रहा था, नियति शत्रु नहीं बंधु मालूम होती थी। मैंने सोचा, शायद सबकुछ गंवाने वाले के पास भी कुछ ना कुछ पूंजी शेष रह ही जाती थी, जिस पर वह गौरव भले ना करे, संतोष अवश्य कर सकता था।

पूरी भोजन- प्रसादी पाई । तब पत्तल समेटकर उठा और हाथ धोए । तभी मित्र स्टील का एक गिलास लेकर आगे बढ़ा और बोला- ले भाई, तेरा आम का झोलिया। मान गए तेरी पसंद को । एक लम्बर झोलिया बना था, सब मेहमान लोग लोटा भर-भरके पी गए । मैंने तेरे लिए एक गिलास बचा लिया था कि भाई आएगा तो पूछेगा। भोलेनाथ का नाम लेकर गटक जा । मैं इस बात पर मुस्कराया और एक सांस में पूरा गिलास पी गया । चित्त में तरावट तैर गई । सेंधा नमक की बांकी करवट लहू में घुलकर दौड़ने लगी । तब मैं सोचने लगा, कि मेरे घर में भी कभी कोई लगन - मुण्डन, सूरज - पूजा का कार्यक्रम निकला, तो उसकी रसोई कहारवाड़ी वाले दयाराम हलवाई से ही बनवाऊंगा !