एक क़स्बे का नदी - किनारा / बायस्कोप / सुशोभित

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एक क़स्बे का नदी - किनारा
सुशोभित


मध्यभारत के मानचित्र पर कहीं एक महिदपुर है । महिदपुर में एक जवाहर चौक है । जवाहर चौक में एक जवाहर गली है । जवाहर गली में जवाहर निवास है, जहां जवाहर दोसी नाम के एक सज्जन रहते हैं । मैं उन्हीं से मिलने महिदपुर गया था।

किंतु मैं उनसे मिलने महिदपुर क्यों गया था ? माजरा यह था कि उज्जैन के एक समाचार पत्र में मुझे गांव-देहात के पन्ने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी । इसे हम डाक का पन्ना कहते थे । अख़बारों में डाक एडिशन अलग और सिटी एडिशन अलग होता है। डाक एडिशन जल्दी छूट जाता है । तड़के पहली डाक से ये प्रतियां ग्राम-अंचल तक पहुंचाई जाती हैं। नगर संस्करण इत्मीनान से छपता है । शहर में ही कार्यालय, शहर में ही छापाखाना, जल्दी तब किस बात की ?

मैं डाक एडिशन देखता था । उसमें तहसीलों की खबरें आती थीं । इन ख़बरों में छोटे कस्बों, गांव-खेड़ों की खुशबू होती थी । अमूमन जो अख़बार की एजेंसी लेता था, वही समाचार भी बनाकर भेजता था । मेरी इन सभी संवाददाताओं से जान-पहचान, यारी-दोस्ती थी । नगर मुख्यालय के बाद जिले का सबसे बड़ा शहर नागदा था, किंतु वो तहसील नहीं था। तहसील थी खाचरौद । बचपन में जब मैं रेलगाड़ी से थांदला-मेघनगर जाता था तो रास्ते में नागदा जंक्शन पड़ता था, किंतु वहां कभी उतरा नहीं । खाचरौद भी रास्ते में आता था । उसकी तुक मैं बागरौद से मिलाया करता था, जैसे ये जुड़वां-कस्बे हों : खाचरौद - बागरौद । एक तहसील उन्हेल थी। मैं एक बार खरसोदकलां गया तो लौटते समय रास्ते में उन्हेल फांटा पड़ा। वहां फोन करके अपने संवाददाता को बुलाया, उनसे मिला । एक तहसील बड़नगर थी, जहां के भुट्टे के लड्डू बड़े प्रसिद्ध थे । एक तहसील थी तराना । मैं तराना तो गया नहीं, लेकिन उससे थोड़ा पहले बिछड़ोद तक जरूर गया था। एक तहसील थी घटिया । यहां का जनप्रतिनिधि " घटिया विधायक" कहलाता था । नजरपुर, घटिया, घोसला - उज्जैन से आगर के रास्ते पर एक-एक कर ये तीन

कस्बे आते थे। नजरपुर से एक रास्ता मालीखेड़ी को कटता था । घोसला से एक रास्ता खेड़ाखजूरिया को कटता था । इसी रास्ते पर आगे चलकर महिदपुर था ।

जवाहर चौक की जवाहर गली में रहने वाले श्री जवाहर दोसी ने मेरे समाचार-पत्र की एजेंसी ले रखी थी । समय-समय पर वहां से समाचार-संवाद भेजते थे, “पीयूष” उपनाम से काव्यरचना भी करते थे ! बहुत दिनों से अनुरोध कर रहे थे कि महिदपुर पधारिए । एक दिन समय निकालकर मैं निकला। घोसला से उलटे हाथ की तरफ भीतर कटा, खेड़ाखजूरिया पर रुककर ऐसे कचौरी खाई और चाय पी, जैसे समरकंद में तैमूर ने घोड़ा बांधकर कलेवा किया था, काजीखेड़ी का झरना देखा और दोपहर होते-होते महिदपुर जा पहुंचा ।

यहां आने वाला मैं पहला सूरमा नहीं था । अ मेमॉइर ऑफ सेंट्रल इंडिया लिखने वाले सर जॉन मैल्कम भी उन्नीसवीं सदी में यहां आए थे । तफरी करने नहीं, जंग लड़ने। साल अठारह सौ सत्रह में महिदपुर की लड़ाई में जॉन मैल्कम के नेतृत्व में ही फिरंगियों ने होलकरों को हराया था। साल अठारह सौ सनतानवे में फिर इसी महिदपुर में सिंहस्थ का मेला लगा था, क्योंकि उज्जैन में अकाल पड़ा था और शिप्रा नदी में पानी नहीं था । शिप्रा की एक उगाल महिदपुर में भी थी । तब सिंधियाओं और होलकरों ने महिदपुर के गंगावाड़ी में महाकुम्भ करवाया था।

दोपहर का भोजन दोसी जी के यहां हुआ । पुरानी काट का वह घर था। रसोईघर अहाते में था, अचार -मुरब्बे की बर्नियां सजी थीं। बिजली के खटके थे । खूंटियां थीं। सागौन के दरवाजे-खिड़कियां थीं । क्यारियां थीं । पुराने गानों की कैसिटें थीं- बॉम्बे टॉकिज, न्यू थिएटर, मिनर्वा मूविटोन के जमाने की । भोजन करके मैं घूमने निकला। चौक- बाजार में दूधपाक खाया । पार्श्वनाथ मंदिर में फर्श पर बैठकर आरती देखी। सिक्कों का संग्रहालय निहारा, जिसमें तुर्कों - मुगलों के जमाने की अशर्फियां और मोहरें थीं। सूबायत का चक्कर लगाया । और सबसे आखिर में किला देखने पहुंचा । परकोटे के भीतर बस्तियां बस गई थीं। वहां के लोगों के नाम चिट्ठियां आतीं तो उसमें पता लिखा होता - किला अंदर, तहसील महिदपुर, जिला उज्जैन। ऊपर नाम और टिकटें । बात अपने मुकाम तक पहुंच जाती थी।

मैं किले की दीवार पर खड़ा था, किंतु इसके बाद के दृश्य के लिए मैंने स्वयं को तैयार नहीं किया था । नजर घुमाते ही शिप्रा नदी का पाट दिखाई दिया। मैं स्तब्ध रह गया। ओह तो यहां नदी भी है ? इसमें अचरज वाली कैसी बात थी। नदी थी तभी तो यहां कुम्भ का मेला लगा था । बचपन से ही यह सुनते हुए बड़ा हुआ था कि जब उज्जैन में पानी गिरता है तो महिदपुर में पूर आती है। यानी उज्जैन का पानी बहकर सीधे महिदपुर जाता है । काजीखेड़ी का झरना तब भादौं में फूट रहता है । ये सब बातें सच हैं किंतु फिर भी जाने क्यूं भूल ही गया था कि यहां नदी भी थी । किले की दीवार से नजर घुमाकर पहली झांकी देखी तो चकित रह गया।

नदी का पाट यहां चौड़ा था । काई, सेवार और रूख की छांह के कारण पानी की रंगत हरी और गझिन मालूम होती थी । मेरा पूरा जीवन शिप्रा तीरे बीता था, किंतु रामघाट पर जैसी शिप्रा दिखलाई देती थी, यहां वह उससे भिन्न थी । रामघाट पर वह पुण्यसलिला थी, यहां जंगल में बहती एक आदिम लहर । तटरेखा दूर तक खिंच गई थी । सोमती - शनिश्चरी का नहान तो यहां क्या होता होगा ? दूर तक कोई पुल दिखलाई नहीं दिया, जिस पर से जब रेलगाड़ी गुजरे तो नदी में सिक्के उछाले जाएं। मुझे लगता था मैं शिप्रा नदी की संतान हूं, उसे भली प्रकार जानता हूं, किंतु यहां पर वो निहायत अपरिचित मालूम हुई । तब मैंने सोचा कि नदी केवल वो नहीं होती, जो आपके नगर से बहकर गुजरती है । वहां तो केवल एक खिड़की से देखा गया दृश्य होता है । नदी अपनी सम्पूर्णता में एक बहुत व्यापक, गतिमय और सजल संरचना होती है

एक नाव तैरती दिखी। नाव में अनेक यात्री थे । एक किनारे से दूसरे किनारे जा रहे थे। मैं एक ऊंचाई से यह दृश्य देख रहा था, इसलिए उनकी बातें सुन नहीं सकता था । चप्पुओं का शब्द भी मेरे लिए अश्रव्य था । ऐसा लगा, जैसे नाव बिना आवाज किए बही जा रही है । उसकी गति इतनी मद्धम थी कि मालूम हुआ, वो बीच मंझधार में जाकर रुक गई है। नदी का द्वीप बन गई है। मुझे बहुत पहले की एक बात याद आई । कार्तिक चौक में जब रहता था, तब महिदपुर के देलची गांव की एक लड़की वहां पढ़ने आई थी। उसके मां-पिता ने उसे अपने मामा के यहां उज्जैन भेज दिया था । कोई आठ-नौ साल की पतली- दुबली देहाती किशोरी । हम उसे देलची की छोरी कहते थे। वो पूरे समय रोती रहती। उसकी नाक बहती रहती । तब हम उसका मखौल उड़ाते । हमको देखकर वो किसी गिलहरी की तरह सहम जाती । कभी कुछ बोलती नहीं, जैसे गूंगी हो। विधाता की एक निरी कातर कृति । एक ही साल वो वहां रह पाई। इम्तिहाल में फेल हो गई तो उसे गांव लौटा दिया। बहुत दिनों बाद सुना कि गांव में ज्वर उसको खा गया । देलची की छोरी मर गई, हमारे बाड़े में एक दिन संवाद आया था, बीसियों दूसरी ख़बरों जैसी और एक खबर । किसी ने सुना, किसी ने नहीं, किसी ने याद रखा, कोई सुनकर भूल गया । जैसे कि वो मनुष्य नहीं हवा का एक झोंका थी ।

मेरे पास से कोई गुजरा। मैंने उसे रोककर पूछा, भाई ये नावें कहां को जाती हैं? उसने कहा, रोज आसपास के गांव खेड़ों से बहुत लोग महिदपुर आते हैं, सांझढले नाव से लौट जाते हैं । यही सब, चितावद, दुबली, पर्वतखेड़ा, देलची के लोग। मैंने धीरे-से सिर हिला दिया, वो आगे बढ़ गया । नाव धीरे-धीरे दूसरे किनारे की ओर बढ़ती रही, जैसे स्वप्न में तैर रही हो । एकबारगी मुझे लगा, मैं एक दीर्घायु जी चुका हूं। कभी समाप्त न होने वाले आवागमन का तटस्थ साक्षी हूं। मैं दूर खड़ा देखता रह गया था, और जीवन बिना कोई आवाज किए मेरी आंखों के सामने से गुजर गया था - नदी - नाव संयोग ।