नदी किनारे ध्यान लगाने के वृत्तांत / बायस्कोप / सुशोभित

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नदी किनारे ध्यान लगाने के वृत्तांत
सुशोभित


वर्ष 1999 में 17 वर्ष की वय में अध्यात्म के सम्पर्क में आने के बाद मैंने ध्यानादि करना आरम्भ कर दिया था। ध्यान के लिए विपश्यना को चुना था और आसन जमाने के लिए सबसे उपयुक्त स्थान पाया था- उज्जैन का नृसिंह घाट।

उज्जैन में शिप्रा नदी का रामघाट तो ख़ैर बहुत जनाकीर्ण रहता है। उसके ठीक सामने है जूना अखाड़ा घाट। सभी मुख्य नहान इन्हीं दो घाटों पर होते हैं। एक अन्य प्रमुख घाट त्रिवेणी है, जहाँ शनि मंदिर है। फिर गऊघाट है, गंगाघाट है, भूखी माता घाट, मंगलनाथ घाट, सिद्धवट घाट, ऋणमुक्तेश्वर घाट भी हैं। किंतु नृसिंह घाट इनकी तुलना में तब निर्जन रहता था। कहते हैं यहाँ नदी सबसे उंडी है। एक पर एक खड़े दो हाथी डूब जाएँ, इतनी गहरी। नदी की धार यहाँ बँट जाती थी। बीच में एक द्वीप था, तर्जनी में मरकत मणि के नग जैसा। पानी का रंग गहरा हरा, जिसकी जलउर्मियाँ संध्या के आलोक में गैरिक-वसना हो जातीं। नदी में साँप बहुत थे। घाट से थोड़ा ऊपर बायें हाथ की ओर एक बहुत पुराना पीपल था, जिसमें चींटियों के कोटर और वल्मीक। इसी स्थान को मैंने ध्यान लगाने के लिए उचित पाया।

मैं संध्यावेला में नृसिंह घाट पहुँचता। आध घंटे घाट पर बैठा सूर्यास्त को ताकता। सूर्य डूबता तो वायु में शीत चला आता। एक सहस्राब्दी समाप्त हो रही थी और नई आरम्भ होने को थी। तिस पर नदी का किनारा। संध्या की ऊष्मा धीरे-धीरे मेरी त्वचा पर गृहस्त हो जाती। पूरा अंधकार नहीं, किंतु एक धूसर रंग का झुटपुटा जब सब तरफ़ झुक आता, तब विपश्यना को प्रवृत्त होता। विपश्यना यानी भली प्रकार से देखना। इसमें श्वास पर अवधान केंद्रित करते हैं। शाक्यमुनि बुद्ध को यह विधि बहुत प्रिय थी। बाद के सालों में इसने उत्तरोत्तर लोकप्रियता पाई। आती साँस को देखना, जाती साँस को देखना- जैसे मनके गिनना। माला पहनना, माला उतार देना। और यह जानना कि मैं इस गतानुगति से पृथक हूँ।

पहले दिन बहुत कठिनाई से पंद्रह मिनट एकाग्रता रही। फिर उठ गया। हफ़्ता होते-होते ध्यान की अवधि को आध घंटे तक ले आया। जिस दिन चालीस मिनट बैठा, उस दिन मन में संतोष की एक तरंग उठी। फिर उस तरंग को भी ध्यान से देखा- जैसे शिप्रा की जलउर्मि। ध्यान से चेतना तंद्रिल हो जाती थी। देह में शिथिलता आ जाती। पीपल पर चींटियों की लीक से टूटकर एक चींटी मेरी गरदन पर चलने लगती तो उसे हटाने को प्रवृत्त होता। फिर यत्नपूर्वक स्वयं को रोक लेता। त्वचा पर उसके स्पर्श को अनुभव करता। तब मुझको लगता यह सृष्टि एक सुदूरगामी अनुगूँज है, जो मेरे और उस चींटी के बीच घटित हो रही है।

रजनीश की बहुत सुंदर पुस्तक है- क्रान्तिबीज। यह उनके पत्रों का संकलन है। आत्मप्रबोध के सूत्र उस पुस्तक में हैं, कथाओं और वृत्तांतों के माध्यम से रजनीश उसमें बात करते हैं। उस पुस्तक का एक अंश तब मेरे भीतर गूँजता रहता- "अमावस उतर रही है। पक्षी नीड़ों में लौट आए हैं। नगर में दीप जलने लगे हैं। कोई साथी नहीं है- एकदम अकेला हूँ। कोई विचार नहीं है- बस बैठा हूँ। मैं हूँ ऐसा जैसे कि नहीं हूँ!"

मैं भी ठीक वैसा ही हो जाना चाहता था, जैसे कि नहीं हूँ!

घाट के पास कुछ बस्तियाँ थीं। वहाँ रहने वाला एक व्यक्ति रोज़ संध्यावेला में घाट पर नहाने आता, फिर चाहे कितनी ही शीत हो। भोरवेला में भी वह यहीं नहान करता। क़द उसका दरमियानी था। रंग साँवला। धूप में सींझा देशी चेहरा। वय, यही कोई चालीसेक साल। वह रोज़ मुझे देखता। कुछ नहीं कहता। नहाकर लौट जाता। बाद में नाम मालूम हुआ- रामछबीला मिश्र, सरयू पार का ब्राह्मण, जो अब यहाँ शिप्रातीरे रहता है। एक नदी से दूसरी तक की यात्रा।

एक दिन ध्यान करने आया तो देखा- पीपल के नीचे फूलों की सज्जा है, जैसे किसी ने चौक पुराया हो, मंचक सजाया हो। शायद किसी ने पीपल पूजा हो, सोचकर बैठ गया। अगले दिन आया तो वहाँ दरी बिछी थी। यह तो निश्चय ही किसी मनुज का सुचिंतित कृत्य। सतह खुरदुरी थी, उस संध्या दरी पर बैठना सुखदायी लगा। एक दिन ध्यान में बहुत समय हो रहा। मैं भीतर डूबा रहा, बाहर झींगुर बोल उठे। मैं उनका सामगान सुनता रहा। कोई एक घंटा हुआ तो आँखें खोलीं- देखा रामछबीले जी सामने हाथ जोड़े बैठे हैं। मुझको देखकर प्रणाम किया- "स्वामीजी, लोटे में चाय लाया हूँ, ग्रहण कीजिये!" मैंने कहा- "मैं स्वामी नहीं, बस यों ही ध्यान लगाने चला आता हूं।" उन्होंने कहा- "इस वय में यह सिद्धि सरल नहीं। कोई पूर्वजन्म का पुण्य है।" मैंने विनोद से कहा, "मैं तो समझता था यहाँ यों बैठे रहना मुझ प्रमादी का आलस्य है!"

फिर वो रोज़ ही चले आते। एक दिन गेंदे की माला ले आए। एक दिन श्रीफल-मिश्री का जलपान कराया। फिर एक दिन आग्रहपूर्वक मुझसे तिथि उचरवाई। मैंने कहा- "मैं तो ब्राह्मण भी नहीं, बनिया-ठाकुर माँ-बाप की संकर नस्ल हूँ।" किंतु वे माने नहीं। बोले, "घर में मंगल-प्रसंग है, आप तो जो मन में आए, तिथि उचार दें। हम उसी को स्वीकार लेंगे।" मैंने अनुभव किया कि भारतभूमि के जन बड़े भोले होते हैं। जहाँ अनुकूलता लगती है, सहज जुड़ जाते हैं। जीवन के प्रति एक गहरी आस्था और स्वीकार उनमें रहता है।

मैंने कोई छह माह नृसिंह घाट पर ध्यान रमाया। कुंडलिनी नहीं जगनी थी सो नहीं जगी। फिर मुझे लगा, यह भी मन की एक तरंग ही थी, जो यहाँ ले आई। अब यहाँ से चलें। तब मैं संसार में लौट आया। आगे की पढ़ाई का परचा डाल दिया। नानाविध काम-धंधों में रम गया। किंतु यह विचार उसके बाद फिर कभी छूटा नहीं कि इधर से ये साँस आई, उधर से बाहर गई, एक दिन होगा जब यह न आएगी, न जाएगी, उस दिन मैं कहाँ रहूँगा? जब तक यह प्रतीति नहीं है, तब तक सब व्यर्थ है।

बाद उसके, उज्जैन ही छूट रहा। 2016 के सिंहस्थ में गया था तो नदी पर बने नए पुलों को निहारता रहा। नृसिंह घाट पर वैसे जन-अरण्य में जाने का मन नहीं हुआ। बाद में और एक अवसर पर हरसिद्धि पाल लाँघकर साक्षीगोपाल मंदिर में एक परिचित से मिलने गया, तो नृसिंह घाट का भी फेरा लगा आया। वही तटरेखा, वही जलधार, वही मरकत-मणि जैसा द्वीप, वही हरा पानी, और वही पीपल का बिरछ। मैं मन ही मन मुस्करा दिया। पीपल के पास चला गया और पूछा- "मुझे पहचानते हो, बंधु? देखो इतने दिनों बाद लौटा हूँ।" हवा चली- चैत्र का समीरण। पीपल की डाल काँप उठी। पत्तों ने अभिवादन में हाथ हिलाया। चींटियों की एक पंक्ति दीखी। मैंने स्वयं से कहा- "सब समाप्त हो जाए, तब भी ये चींटियाँ अमर ही रहेंगी।"

बाहर आकर रामछबीले जी की पूछताछ की। मालूम हुआ, वो तो कई साल पहले अपने मुलुक लौट रहे- विकासखण्ड लम्भुआ, ज़िला सुलतानपुर। मैंने मन ही मन उनका कुशलक्षेम पूछा, अपना समाचार सुनाया। संध्या हो रही थी तो गाड़ी-अड्‌डे चला आया। अपने नगर की बस में बैठ रहा। घर लौट आने की वेला थी, किंतु घर कहाँ है, यह भला कौन जानता है? कहाँ जाना है, किसको मालूम? मैंने आँखें मूंदीं और स्वयं में खो रहा। कदाचित्, मेरी चेतना के भीतर भी कहीं तो वो औघट घाट होगा, इतना उंडा कि दो हाथी डूब जाएँ- एक पर एक!