पिक्चर देखने जाना / बायस्कोप / सुशोभित
सुशोभित
बचपन में घर से तैयार होकर बाहर निकलने के इने-गिने ही अवसर होते थे । जैसे शादी-ब्याह की रसोई में जीमने जाना, मेले में जाना, या गुदरी चौराहे पर श्रीमान स्टूडियो में फोटो खिंचाने जाना । और हाँ, यदा-कदा, छठे - छमासे, मां-पिता के साथ कोई पिक्चर देखने चले जाना ।
साल बानवे की एक दोपहर मेरे पिता ने कहा, चलो आज पिक्चर चलते । हम सब ख़ुशी से चहक उठे । पिक्चर देखने जाना किसी उत्सव से कम नहीं था। इस बात से फर्क नहीं पड़ता था कि कौन-सी पिक्चर, बस पिक्चर होनी चाहिए। तैयार होकर निकलना, पिता का साइकिल और मां का टेम्पो से टॉकिज़ पहुंचना, लाइन में लगकर टिकट लेना और सिनेमाघर के उस बड़े-से जादुई कमरे में मुग्ध होकर रंगीन तस्वीरों का खेल देखना, तिस पर इंटर में चना-चबैना, पकौड़ी-समोसा | ये सब चीजें रोज़-रोज़ नहीं होती थीं, इनके होने के बड़े मायने थे।
तीन से छह के शो में जाना तय हुआ । कौन-सी पिक्चर देखें ? इस सवाल के जवाब में पेपर खंगाला गया । तब दैनिक अवन्तिका में शहर में लगी फ़िल्मों पर पूरा एक सचित्र पेज निकलता था, जो उस अख़बार की पहचान था । उसमें फ़िल्मों का विवरण बहुत मज़ेदार शब्दों में प्रस्तुत किया जाता था । पेपर देखकर तय किया गया कि गोविंदा की फ़िल्म राधा का संगम देखी जाएगी। कारण ? शायद इसलिए कि इस फ़िल्म के गाने सुमधुर थे और रेडियो पर बजते रहते थे दूसरे यह कि शायद इसमें ज़्यादा मारधाड़ नहीं थी । तीसरे यह कि यह पारिवारिक मालूम होती थी। बच्चों के साथ देखी जा सकती थी ।
फ़िल्म भतवाल टॉकिज़ में लगी थी । यह टॉकिज़ कार्तिक चौक स्थित मेरे घर से बहुत दूर था। उस ज़माने में उज्जैन में कोई एक दर्जन सिनेमाघर थे, जिनमें लखेरवाड़ी का कैलाश टॉकिज़ सबसे पुराना था । चामुंडा माता चौराहे के पहले त्रिमूर्ति टॉकिज़ था, जो एक ज़माने में मध्यप्रदेश की शान कहलाता था ।
नई सड़क पर प्रकाश टॉकिज़ था । इंदौरगेट पर कमल टॉकिज़ था, जो 'खटमल टॉकिज़' कहलाता था । कारण बतलाने की ज़रूरत नहीं, क्यों । गोपाल मंदिर पर रीगल टॉकिज़ था, जहां धार्मिक फ़िल्में लगती थीं । शिप्रा नदी यहां से कोई दो किलोमीटर दूर थी। मेले-ठेले, सोमती - शनिश्चरी पर गांव-देहात के लोग नदी नहाने आते तो ढाबा रोड पर जलेबियां खाते और रीगल टॉकिज़ में 'भगवान की पिक्चर' देखते। इनमें से कुछ लगे हाथ अशोक टॉकिज़ भी चले जाते । फ्रीगंज स्थित इस बदनाम टॉकिज़ में वयस्क फ़िल्में दिखाई जाती थीं ।
साल 1989 में उज्जैन में निर्मल सागर टॉकिज़ शुरू हुआ था, जो उस समय मध्यप्रदेश का सबसे अच्छा छबिगृह था। इसमें लगने वाली पहली ही फ़िल्म गोल्डन जुबली थी - मैंने प्यार किया। 1991 में मेट्रो टॉकिज़ चालू हुआ था। यहां अमिताभ बच्चन की अकेला लगी थी, जो दुर्भाग्य से बड़ी फ़्लॉप थी। मेट्रो टॉकिज़ के मालिक मेरी मां की जाति के थे। टॉकिज़ चालू होने की ख़ुशी में उन्होंने अपने समाज के लोगों को रसोई दी । इसमें रसमलाई परोसी गई । तब बहुत दिन चर्चा रहा कि जो आदमी रसोई में रसमलाई खिला सकता है और टॉकिज़ खोल सकता है, सोचो वो कितना रईस होगा ।
बानवे के सिंगत (महाकुम्भ ) में शहर को तीन नई सौगातें मिली थीं- हरिफाटक पुल, नानाखेड़ा बस स्टैंड, और स्वर्ग-सुंदरम् टॉकिज़ ।
1 ये जुड़वा टॉकिज़ थे, इनकी दीवार लगी हुई थी । तब ये सबके लिए आश्चर्य का विषय था कि जुड़वा टॉकिज़ भला कैसे हो सकते हैं, क्या उनकी आवाज़ें एक-दूसरे से नहीं टकराएंगी। लेकिन टॉकिज़ में अत्याधुनिक साउंड सिस्टम लगा था । जुड़वां टॉकिज़ से याद आया, इंदौर में भी ऐसा ही एक जुड़वां टॉकिज़ है- सपना-संगीता। उससे थोड़ी ही दूरी पर एक मधुमिलन टॉकिज़ भी है। अगर आप कभी इंदौर जाएं और ऑटो-रिक्शा वाला अगर आपके पास आकर पूछे- “सपना - संगीता से मधुमिलन ?” तो इस वाक्य का कोई दूसरा मतलब नहीं निकाल लीजियेगा ।
बहरहाल, हम पूरे परिवार के साथ भतवाल टॉकिज़ पहुंचे । टिकट लिया, भीतर प्रवेश करके सीट पर बैठे। मुझे जो सीट मिली, उसकी गद्दी कभी की फट चुकी थी और उसमें से भूसा निकल रहा था। फर्श पर मूंगफली के छिलके बिखरे थे। भारत के कस्बाई सिनेमाघरों और मूंगफली के छिलकों का चोली-दामन का साथ है। फ़िल्म में जूही चावला हीरोइन थीं, और उनका नाम राधा था। उस ज़माने में अनेक फ़िल्मों में नायिका का नाम राधा होता था । बोल राधा बोल की कामयाबी का यह नतीजा था । गोविंदा ने एक देहाती की भूमिका की थी और धोती-कुर्ता पहना था। कुछ दर्शकों को यह नागवार गुज़रा और उन्होंने इसके लिए गोविंदा को नकलची करार दिया। वे अनिल कपूर के प्रशंसक थे और उस साल फ़िल्म बेटा की बड़ी धूम थी । उनका मत था कि बेटा के बाद धोती पहनने का अधिकार अनिल कपूर के सिवा किसी और को नहीं था ।
हम कोई एक साल बाद फ़िल्म देखने आए थे। इससे पहले आख़िरी बार टॉकिज़ में हमने जो फ़िल्म देखी थी, वह थी सौदागर । वह बहुत बड़ी हिट पिक्चर थी, किंतु राधा का संगम उसके पासंग भी साबित नहीं हुई । फ़िल्म छूटी तो हम सब निराश होकर निकले । साल में एक बार पिक्चर देखने का अवसर मिला और फ़िल्म में मजा नहीं आया था । खाया-पीया कुछ नहीं, गिलास फोड़ा बारह आना । मेरे पिता ने मुंह बनाया- मैंने तो पहले ही कहा था कि आजकल की फ़िल्मों में दम नहीं। वो सत्तर के दशक में नौजवां हुए थे । उन्हें पता था कि दम वाली फ़िल्मों का क्या मतलब है । सत्तर का दशक बॉलीवुड सिनेमा का स्वर्णयुग था । एक-एक साल में बीस-पच्चीस सिल्वर जुबली फ़िल्में लगती थीं । हफ्ते - पखवाड़े परिवार के परिवार घर से तैयार होकर पिक्चर देखने निकलते । ये फिल्में अकसर फैमिली ड्रामा होती थीं । इनमें बहुत सुरीले गाने होते । लुभावने नायक-नायिका दो-ढाई घंटे तक अपनी अदाओं से सबका मन बहलाए रखते । पिक्चर देखकर हंसी-ख़ुशी दर्शक बाहर निकलते । मेरा अकसर मन करता है कि उस दौर में लौट जाऊं, जब टॉकिज़ में आराधना, अमर प्रेम, कटी पतंग लगा करती थीं।
इन फ़िल्मों से याद आया, मेरे पिता राजेश खन्ना के बड़े दीवाने थे । उसके जैसे ही कनटोपे बाल वो रखते थे । उनको देव आनंद की फ़िल्में भी बहुत पसंद थीं, किंतु पचास के दशक की ब्लैक एंड व्हाइट नहीं, बाद वाली रंगीन फ़िल्में । जैसे- वारंट, गैम्बलर, बनारसी बाबू, जॉनी मेरा नाम, ज्वेलथीफ | वो देव आनंद की ही शैली में चलते थे । मेरी मां को राजेंद्र कुमार पसंद थे । उनकी पसंदीदा फ़िल्म राजेंद्र कुमार - साधना की आरजू थी । इसके अलावा कश्मीर की कली । उनके गालों में गड्ढे पड़ते थे । कॉलेज के दिनों में उन्हें सब शर्मिला टैगोर कहकर बुलाते थे ।
इन्हें राधा का संगम क्या खाक लुभाती ? घर लौटते समय मेरा दिल बैठ गया। मुझे लगा, जैसे मेरा दौर उनके दौर के सामने कमतर है, तो यह मेरी जाती कमतरी है। मुझमें ही कोई कमी है, मैं ही अपने माता-पिता के सामने कुछ साबित नहीं कर पाया। मैं बड़ी शिद्दत से चाहता था कि उस शाम वो दोनों बहुत खुश होकर घर पहुंचते, ख़ुशी उन दिनों में बहुत ही अनमोल चीज़ थी । लेकिन मैं जान गया था कि गोविंदा कभी राजेश खन्ना नहीं हो सकता था, जूही कभी शर्मिला टैगोर नहीं हो सकती थी, नब्बे का दशक कभी सत्तर का दशक नहीं हो सकता था, और मुझे इसी अहसासे - कमतरी के साथ अब जीना होगा।
राधा का संगम के बाद मुझे याद नहीं आता, मेरे परिवार ने कोई फ़िल्म इस तरह सिनेमाघर में जाकर देखी हो । इसके कोई एक दशक बाद मेरे पिता की मृत्यु हुई । मुझे याद है, उनकी मृत्यु से एक दिन पहले टीवी पर सत्यकाम आ रही थी। वो डूबकर उसे देखते रहे थे । फ़िल्म ख़त्म होने पर वो देर तक चुप रहे । फिर बोले- यह बहुत ही अच्छी फ़िल्म है, ऐसा लगता है यह मेरी अपनी कहानी है। उसके बाद से मैं कभी सत्यकाम को स्थिर होकर नहीं देख सका ।
इसके कोई डेढ़ दशक बाद एक अस्पताल में लम्बी बीमारी के बाद मेरी मां की मृत्यु हुई। अंतिम समय में उनकी आवाज़ खो गई थी। कोई कभी जान नहीं सकता था कि पिता की तरह क्या वो भी अपने अंतिम लम्हों में अपनी किसी पसंदीदा पिक्चर के बारे में सोच रही थीं । या कौन जाने, उनके जीवन का चित्रपट ही किसी अठारह रील लम्बी पिक्चर की तरह उनकी आंखों के सामने से धीरे-धीरे गुज़र रहा हो ?