मेरी पहली कहानी / बायस्कोप / सुशोभित

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मेरी पहली कहानी
सुशोभित


यों तो सम्पादक के नाम मेरे पत्र यदा-कदा छपते रहे थे । वसंत या पावस ऋतु पर एकाध टुटपूंजिया कविता भी यत्र-तत्र छपी । किंतु मई 2000 में पहली बार सही मायनों में मेरी एक रचना का प्रकाशन हुआ था । एक कहानी । छोटी-मोटी कहानी नहीं, यही कोई तीन-चार हजार शब्दों की ! आधे पन्ने पर फैलाकर छापी गई ! जिसे कि अख़बार की तकनीकी भाषा में 'पचास बाय आठ' कहते हैं । पचास सेंटीमीटर, आठ कॉलम, आधे पन्ने का कवरेज !

कहानी का शीर्षक था : 'आत्महत्या' । किशोरावस्था के उन दिनों में मेरे जेहन में जो स्यूसाइडल विचार ऊभचूभ करते रहते थे, आख्यान में उनका निरूपण । कहानी के नायक का नाम : सेर्गेई पोक्रोव्स्की । नायिका, मारिया पेत्रोव्ना। शहर, सेंट पीटर्सबर्ग। सड़क, नेव्स्की स्ट्रीट । नदी, नेवा । यानी कहानी के साथ सम्पादक को बाकायदा यह टीप छापनी पड़ी थी कि यह किसी रूसी कहानी का अनुवाद नहीं है, युवा लेखक की मौलिक कृति है ।

ये उन दिनों की बात है, जब मुझे कोई नींद से उठाकर भी मेरे बाप का नाम पूछता, तो मैं कहता : 'फ्योदोर मिखाइलोविच दोस्तोयेव्स्की' ।

दोस्तोयेव्स्की की ही मनोवैज्ञानिक कथा - शैली में रचा गया वो लघु-आख्यान था। जाने किस अवसाद में उसे लिख डाला था। लिखने के बाद कुछ और सूझा नहीं तो साइकिल उठाकर उज्जैन के '6, घी मंडी' स्थित 'दैनिक अग्निपथ' समाचार पत्र के साहित्य सम्पादक डॉ. श्रीराम दवे की मेज पर किसी पेपरवेट के नीचे दबाकर उसे छोड़ आया था । साहित्य का पन्ना रविवार को छपता था। मैं उसी अख़बार में रातपाली में प्रूफरीडिंग की नौकरी करता था ।

बात आई गई हो गई। उम्मीद तो कोई थी नहीं । एक बार शनिवार शाम मैं नियमित रूप से काम पर पहुंचा। ऑफिस के टाइपसेट कम्पोजर्स मुझे अर्थपूर्ण नज़रों से देख रहे थे। मैंने उनकी उपेक्षा की और अपनी डेस्क पर बैठ गया। देखता क्या हूं, मेरे सामने रविवार के अख़बार का जो प्रूफ प्रस्तुत किया गया है, उसमें मेरी ही कहानी छपी हुई है। आधे पन्ने की कहानी ! छत्तीस पॉइंट में कहानी का शीर्षक। बारह पॉइंट बोल्ड में मेरा नाम । 'सुशोभित' । मैंने एक बार फिर पढ़ा- 'सुशोभित'। यह तो मेरा ही नाम मालूम होता है । 'सुशोभित सक्तावत' । हां, यह तो मैं ही हूं। यह तो मेरी ही कहानी है । मैंने ही तो इसे लिखा था। तो क्या सच में ही यह कहानी छप रही है?

माथा भन्ना गया । कनपटी सुन्न हो गई । कान की लवें लाल हो गईं धड़कते दिल से उस प्रूफ को पढ़कर कम्पोजर्स के पास भेज दिया । फिर चप्पलें पहनी और दौलतगंज चौराहे तक घूम आया। वहां से तोपखाना चला गया और गुलरेज बेकरी के सामने वाली थड़ी पर मुसलमानी चाय पी, जिसमें दो चुटकी नमक पड़ता था। फिर एक और कप लिया। आधे घंटे तफरीह करके लौटा। मुझे यह देखकर अचरज हुआ कि प्रूफ़ पर अब भी मेरा नाम मौजूद था। मानो आधे घंटे की तफरीह के बाद उसको वहां से हट जाना चाहिए था !

रात को सोनू भैया ने कहा, चलो तुमको 'मंछामन' का भंडारा जिमाकर लाता हूं। मैंने बुदबुदाते हुए कहा, 'चलो ।' ऐसा लगा, जैसे स्कूटर सपने में चल रहा हो। भंडारे में गर्म पूरी की भाप से जीभ जल गई तो भी खयाल नहीं रहा । सोनू भैया यानी श्री सोनू गेहलोत । अगर मैं भूल नहीं कर रहा तो आज वे उज्जैन नगर निगम के सभापति हैं। तब वे नवनिर्वाचित पार्षद थे और ‘अग्निपथ’ के लिए एक बहुत ही लोकप्रिय स्तम्भ 'ख़बरों के उस पार' का लेखन करते थे । कौन जाने, वो स्तम्भ आज भी छपता है या नहीं । तब कांतिलाल नागर के स्तम्भ ‘शहर का चक्कर' और सतीश गौड़ - एसएन शर्मा की 'दूरबीन' को भी पाठक बहुत चाव से पढ़ते थे। सतीश गौड़ की दाढ़ी को मैं गौर से देखता था । मुझे वे अन्तोन चेखोव जैसे दिखाई देते थे I

अगर ये सभी महानुभाव आज यह पुस्तक पढ़ रहे हैं तो उन्हें मेरा सादर नमन। मैक्सिम गोर्की के मुहावरे में कहूं तो 'दैनिक अग्निपथ ' मेरे जीवन का पहला विश्वविद्यालय था । और ये सभी, मेरे पहले गुरुजन।

अलसुबह घर लौट आया। डाक एडिशन में वह कहानी जा रही होगी, सिटी एडिशन में यकीनन उसको 'आल्टर' कर दिया जाएगा, इस सांत्वना के साथ सोया। सुबह उठकर देखा, तो अख़बार में बाकायदा पूरी की पूरी कहानी छपी हुई थी। अपनी आंखों पर एकबारगी विश्वास नहीं हुआ । गौरव से छाती फूल गई । लाख लिख लो ब्लॉग और फेसबुक पर, छपे हुए शब्द का रोमांच आज भी अपनी जगह पर है । जब किसी अख़बार या पत्रिका में आपकी पहली रचना छपती है तो उस अवसर पर होने वाला रोमांच अद्भुत होता है । सहसा, आपको अनुभव होने लगता है कि आप महत्वपूर्ण हैं, आप कोई 'नो-बडी' नहीं हैं। आप कोई ‘जस्ट अनॉदर पर्सन' नहीं हैं । आप एक कवि हैं, कहानीकार हैं, लेखक हैं । और अख़बार में आपका नाम छपता है । 'ये देखिये, बारह पॉइंट बोल्ड अक्षरों में, ‘सुशोभित सक्तावत' । ये मेरा ही नाम है ना?

जिस दिन कहानी छपी, उस दिन का आलम कुछ ना पूछो। कहानी की कतरन की एक दर्जन नकलें उतरवाकर मैं गुब्बारा बना घूम रहा था । धरती पर पैर नहीं पड़ते थे। पीठ में गुदगुदी होती थी । ऐसा जान पड़ता था, जैसे पूरा शहर आपकी पीठ को निहार रहा है, मन ही मन फुसफुसाते हुए - 'यही है वो लेखक, जिसकी कहानी आज छपी है ।' सड़क पर चलते हुए मालूम होता, अभी किसी गली से कोई निकलकर आएगा और कहेगा- 'यार, क्या कमाल कहानी लिखी है, मेरे जीवन का सच कह डाला ।' सिनेमाघर की टिकट खिड़की पर स्टूडेंट कंसेशन का पास दिखाते हुए अनुभव होता, मेरा नाम पढ़कर टिकट देने वाला कहेगा- ‘सुशोभित सक्तावत ? तुम वही हो ना, जिसकी कहानी उस दिन अख़बार में छपी थी ?'

जाहिर है, ये तमाम ख़ामख़यालियां थीं । ना वैसा कुछ हुआ, ना वैसा कहीं होता है । फिर भी अनुभूति के वृत्त में वे सभी कल्पनाएं बनी रहीं।

मई 2000, कितने साल बीत रहे, शिप्रा में कितना पानी बह गया, लेकिन वो बुद्ध-बौड़म दिन जेहन में आज भी जिंदा है, कमबख़्त मरने का नाम ही नहीं लेता !

जब भी किसी युवा लेखक की कोई रचना पहली बार प्रकाशित होती है, तो मैं उस दिन की अनुभूति को एक बार फिर जी लेता हूं ! और यह ईश्वर का आशीष है कि पिछले एक दशक में असंख्य बार उसने यह अवसर दिया है कि किसी युवा लेखक को फ़ोन या मैसेज या ई-मेल करके यह इत्तेला दे सकूं कि : 'आगामी रविवार को तुम्हारी रचना प्रकाशित होने जा रही है, अपनी प्रति सहेज लेना, और अग्रिम शुभकामनाएं !'

और वैसा कहते समय मैं हर बार 'मई 2000' का वही सुशोभित बन जाता हूं, जिसने भीगी हुई आंखों से अपनी ही कहानी का प्रूफ पढ़ा था, वर्तनी की भूलें छूट जाने की फिक्र किए बगैर ।