प्रकृति और स्वभाव / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल

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हिन्दी के राजाश्रित कवि प्राय: अपना और अपने आश्रयदाताओं का कुछ परिचय अपनी पुस्तकों में दे दिया करते थे। पर भक्त कवि इसकी आवश्यकता नहीं समझते थे। तुलसीदासजी ने भी अपना कुछ वृत्तान्त कहीं नहीं लिखा। अपने जीवनवृत्ता का जो किंचित् आभास उन्होंने कवितावली और विनयपत्रिका में दिया है वह केवल अपनी दीनता दिखाने के लिए। किसी किसी ग्रन्थ का समय भी उन्होंने लिख दिया है। उनके जीवनवृत्ता के सम्बन्ध में लोगों की जिज्ञासा यों ही रह जाती है। दूसरे ग्रन्थों और कुछ किंवदन्तियों से जो कुछ पता चलता है उसी पर सन्तोष करना पड़ता है। उनके जीवनवृत्ता सम्बन्धी दो ग्रन्थ कहे जाते हैं-(1) बाबा बेनीमाधवदास का 'गोसाईंचरित', (2) रघुबरदासजी का 'तुलसीचरित'। पहला ग्रन्थ-अथवा उसका संक्षिप्त रूप-नवलकिशोर प्रेस से प्रकाशित 'रामचरितमानस' के एक संस्करण के साथ छप चुका है। पर उसमें लिखी अधिकतर बातें निश्चित ऐतिहासिक तथ्यों के विरुद्ध पड़ती हैं। दूसरा ग्रन्थ कहीं पूरा प्रकाशित नहीं हुआ है। हमारी समझ में ये दोनों पुस्तकें गोस्वामीजी के बहुत पीछे श्रुतिपरम्परा के आधार पर लिखी गई हैं। इनमें सत्य का कुछ अंश मात्र कल्पित बातों के बीच छिपा हुआ माना जा सकता है। अत: गोस्वामीजी की प्रकृति का परिचय प्राप्त करने के लिए हमें उनके वचनों का ही सहारा लेना पड़ता है।

उनकी भक्ति के स्वरूप का थोड़ा आभास ऊपर दिया गया है उससे स्पष्ट है कि वह भक्ति केवल व्यक्तिगत एकान्तसाधना के रूप में नहीं है;व्यवहारक्षेत्रों के भीतर लोकमंगल की प्रेरणा करनेवाली है। अत: उसमें ऐसे ही उपास्य की भावना हो सकती है जो व्यावहारिक दृष्टि में लोकरक्षा और लोकरंजन करता दिखाई पड़े अर्थात् जो उच्च और धर्ममय हो। इसी उच्च की ओर उठकर जब हृदय उमंग से भरता है तब उसमें दिव्यकला का प्रकाश होता है-

उरवी परि कलहीन होइ, ऊपर कला प्रधान।

तुलसी देखु कलाप गति, सावन घन पहिचान।।

जबतक मोर की पूँछ के पंख जमीन पर लुढ़ते चलते हैं तबतक वे कलाहीन रहते हैं पर जब लोकरक्षक और लोकरंजक मेघ को देख मयूर उमंग से भर जाता है और पंख ऊपर उठ जाते हैं तब वे कलापूर्ण होकर डगमगा उठते हैं। जिस उपासना में उपास्य का स्वरूप मेघ के आदर्श तक पहुँचा हुआ न होगा उसके प्रति तुलसी की सहानुभूति न होगी। इस प्रकार उनकी उपासना सम्बन्धिनी उदारता की एक हद हो जाती है। भूतप्रेत पूजनेवालों के प्रति उनका यह उदारभाव नहीं था कि जो अपनी विद्याबुद्धि के अनुसार परोक्ष शक्ति की जिस रूप में भावना कर सकता है उसका उसी रूप में उपासना करना ठीक है-वह उपासना तो करता है। भूतप्रेत पूजनेवालों की गति तो वे वैसी ही बुरी बताते हैं, जैसी किसी दुष्कर्म से होती है-

जे परिहरि हरि हर चरन भजहिं भूतगन घोर।

तिन्हकै गति मोहिं देउ बिधि जो जननी मत मोर।।

फिर भी उनकी यह अनुदारता उस कट्टरपन के दरजे को नहीं पहुँची है जिसके जोश में ऍंगरेज कवि मिल्टन ने प्राचीन सभ्य जातियों के उपास्य देवताओं को जबरदस्ती खींचकर शैतान की फौज में भरती किया है-उस कट्टरपन के दरजे को नहीं पहुँची है जो दूसरे धर्मों की उपासनापद्धति (जैसे,मूर्तिपूजा) को गुनाहों की फिहरिस्त में दर्ज करती हैं। गोस्वामीजी का विरोध तो इस सिद्धान्त पर है कि जो जिसकी उपासना करता है, उसका आचरण भी उसी के अनुरूप रहता है।

जिस भक्तिपद्धति में लोकधर्म की उपेक्षा हो, जिसके भीतर समाज के श्रद्धापात्रों के प्रति द्वेष छिपा हो उसकी निन्दा करने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया है।

'विश्वास' के सम्बन्ध में भी उनकी प्राय: वही धारणा समझिए जो उपासना के सम्बन्ध में है। यदि विश्वास का आलम्बन वैसा श्रेष्ठ और सात्विभक नहीं है तो उसे वे 'अन्धाविश्वास' मानते हैं-

लही ऑंखि कब ऑंधरे, बाँझ पूत कब पाय।

कब कोढ़ी काया लही, जग बहराइच जाय।।

तुलसी के ऐसे पहुँचे हुए भक्त के दैन्य और विनय के विषय में तो कहना ही क्या है! सारी विनयपत्रिका इन दोनों भावों के अपूर्व उद्गारों से भरी हुई है। 'रामचरितमानस' ऐसा अमर कीर्तिस्तम्भ खड़ा करते समय भी उनका ध्या्न अपनी लघुता पर से न हटा। वे यही कहते रहे-

कबि न होउँ नहीं चतुर प्रबीना। सकल कला सब बिद्या हीना।।

कबित बिबेक एक नहिं मोरे। सत्य कहौं लिखि कागद कोरे।।

बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के।।

तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धिग धर्मधवज धाँधरक धोरी।।

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ।।

पर यह भी समझ रखना चाहिए कि 'लघुत्व' की यह परमानुभूति परम महत्तव के साक्षात्कार के कारण थी। अत: लोकव्यवहार के भीतर उसका कितना अंश समा सकता था, इसका विचार भी हमें रखना पड़ता है। दुष्टों और खलों के सामने उसकी उतनी मात्र नहीं रह सकती थी, जो गोस्वामीजी को उन्हें दुष्ट और खल कहने तथा उनके स्वरूप पर ध्या न देने से रोक देती। साधुओं की वन्दना से छुट्टी पाते ही वे खलों को याद करते हैं। उनकी वन्दना करके भी वे उनसे अनुग्रह की आशा नहीं रखते; क्योंकि अनुग्रह करना तो उनका स्वभाव ही नहीं-

बायस पालिय अति अनुरागा। होहि निरामिष कबहुँ कि कागा।।

राम के सामने तो उन्हें अपने ऐसा कोई खल ही संसार में नहीं दिखाई देता, उनके सामने तो वे कदापि यह नहीं कह सकते कि क्या मैं उससे भी खल हूँ। यहाँ तो वे 'सब पतितों के नायक' बन जाते हैं। पर जब खलों से वास्ता पड़ता है, तब उनके सामने वे अपना लघुत्व प्रदर्शन नहीं करते;उन्हें कौवा कहते हैं और आप कोयल बनते हैं-

खल परिहास होहिं हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा।।

जब तक 'साधना' के एकान्त क्षेत्रों में रहते हैं, तब तक तो वे अपने सात्विहक भावों को ऊँचे चढ़ाते चले जाते हैं; पर जब व्यवहार क्षेत्रों में आते हैं, तब उन्हें कम से कम अपने वचनों का सामंजस्य लोकधर्म के अनुसार संसार की विविध वृत्तियों के साथ करना पड़ता है। पर इससे उनके अन्त:करण में कुछ भी मलिनता नहीं आती, व्यक्ति के प्रति ईर्ष्यार द्वेष का उदय नहीं होने पाता। द्वेष उन्हें दुष्कर्म से है, व्यक्ति से नहीं। भारी से भारी खल के सम्बन्ध से भी उनकी बुद्धि ऐसी नहीं हो सकती कि अवसर मिलता तो इसकी कुछ हानि करते।

सबसे अधिक चिढ़ उन्हें 'पाखंड' और 'अनधिकार चर्चा' से थी। खलों से समझौता तो वे अपने मन को इस तरह समझाकर कि-

सुध सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू।।

बड़ी जल्दी कर लेते हैं पर 'पाषंडियों' और बिना समझी बूझी बातें बककर अपने को ज्ञानी प्रकट करनेवालों से उनकी विधि नहीं बैठती थी। उनकी बातें सुनते ही वे चिढ़ जाते थे और कभी कभी फटकार भी देते थे। एक साधु को बार बार 'अलख अलख' कहते सुनकर उनसे न रहा गया। वे बोल उठे-

तुलसी अलखहि का लखै, राम नाम जपु नीच।

इस 'नीच' शब्द से ही उनकी चिड़चिड़ाहट का अन्दाज कर लीजिए। आडम्बरी और पाषंडियों ने उन्हें चिड़चिड़ा कर दिया था।

इससे प्रकट होता है कि उनके अन्त:करण की सबसे प्रधान वृत्ति थी सरलता, जिसकी विपरीतता वे सहन नहीं कर सकते थे। अत: इस थोड़ी सी चिड़चिड़ाहट को भी सरलता के अन्तर्गत लेकर संक्षेप में हम कह सकते हैं कि गोस्वामीजी का स्वभाव अत्यन्त सरल, शान्त, गम्भीर और नम्र था। सदाचार की तो वे मूर्ति थे। धर्म और सदाचार को दृढ़ न करनेवाले भाव को-चाहे वह कितना ही ऊँचा हो-वे भक्ति नहीं मानते थे। उनकी भक्ति वह भक्ति नहीं है जिसे कोई लम्पटता या विलासिता का आवरण बना सके।

यद्यपि गोस्वामीजी निरभिमान थे, पर लोभवश या भयवश हीनता प्रकट करने को वे सच्चा 'दैन्य' नहीं समझते थे, आत्मगौरव का .ास समझते थे। राम की शरण में जाकर वे निर्भय हो चुके थे, राम से याचना करके वे अयाचमान हो चुके थे, अत:-

किरपा जिनकी कछु काज नहीं, न अकाज कछू जिनके मुख मोरे।

उनकी प्रशंसा या खुशामद करने वे क्यों जाते? उनकी प्रशंसा करना वे सरस्वती का गला दबाना समझते थे-

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लागि पछिताना।।

इस समझ के अनुसार वे बराबर चले। उन्होंने कहीं किसी ग्रन्थ में अपने समय के किसी मनुष्य की प्रशंसा नहीं की है। केवल सच्चे स्नेह के नाते, उत्तम आचरण पर रीझकर उन्होंने अपने मित्रा टोडर के सम्बन्ध में चार दोहे कहे हैं।

भारतभूमि में उत्पन्न होना वे गौरव की बात समझते थे। इस भूमि में और अच्छे कुल में जन्म को वे अच्छे कर्मों के साधन का, भगवान की कृपा से मिला हुआ अच्छा अवसर मानते थे-

(क) भलि भारत भूमि, भले कुल जन्म, समाज सरीर भली लहिकै।

जो भजै भगवान सयान सोई, तुलसी हठ चातक ज्यों गहिकै।।

(ख) दियो सुकुल जनम सरीर सुंदर हेतु जो फल चारि को।

जो पाइ पंडित परम पद पावत पुरारि मुरारि को।।

यह भरतखंड समीप सुरसरि, थल भलो, संगति भली।

तेरी कुमति कायर कलपबल्ली चहति विष फल फली।।

गोस्वामीजी लोकदर्शी भक्त थे अत: मर्यादा की भावना उनमें हम बराबर पाते हैं। राम के साथ अपने घनिष्ठ सम्बन्ध का अनुभव करते हुए भी वे उनके सामने अपनी बात कहने अदब कायदे के साथ जाते हैं। 'माधुर्य भाव' की उपासना से उनकी उपासना की मानसिक पद्धति स्पष्ट अलग दिखाई पड़ती है। 'विनयपत्रिका' में वे अपनी ही अवस्था का निवेदन करने बैठे हैं पर वहाँ भी वे लोकप्रतिनिधि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। वे कलि की अनीति और अत्याचार से रक्षा चाहते हैं जिनसे केवल वे ही नहीं, समस्त लोक पीड़ित है। उनकी मंगलाशा के भीतर जगत् की मंगलाशा छिपी हुई है। वे अपने को लोक से असम्बद्ध करके नहीं देखते। उन्हें उनके आराधय राम किसी एकान्त कोने में नहीं मिलते; भरे दरबार में, खुले संसार में मिलते हैं। 'विनयपत्रिका' रामचन्द्रजी के दरबार में गुजरनेवाली अर्जी है जिसकी तहरीर जबरदस्त है। यह अर्जी यों ही बाला बाला नहीं भेज दी जाती है। कायदे के खिलाफ काम करनेवाले-मर्यादा का भंग करनेवाले-आदमी तुलसीदासजी नहीं हैं। बीच के देवताओं और मुसाहबों के पास से होती हुई तब हुजूर में गुजरती है। वहाँ पहले से सधो हुए लोग मौजूद हैं। हनुमान और भरत धीरे से इशारा करते हैं (दरबार है, ठट्टा नहीं है)। तब लक्ष्मण धीरे से अर्जी पेश करते हैं; और लोग भी जोर दे देते हैं। अन्त में महाराजाधिराज हँसकर यह कहते हुए कि 'मुझे भी इसकी खबर है' मंजूरी लिख देते हैं।

कुछ रत्नपारखियों ने सूर और तुलसी में प्रकृतिभेद दिखाने का प्रयास करते हुए सूर को खरा और स्पष्टवादी तथा तुलसी को सिफारशी,खुशामदी या लल्लोचप्पो करनेवाला कहा है। उन्होंने सूर की स्पष्टवादिता के प्रमाण में ये वाक्य पेश किए हैं-

सूरदास प्रभु वै अति खोटे, यह उनहू तें अति ही खोटो।

×××

सूरदास सर्बस जौ दीजै कारो कृतहि न मानै।

उन दोनों पदों पर, जिनमें ये वाक्य आए हैं, जो साहित्य की दृष्टि से थोड़ा भी विचार करेगा वह जान लेगा कि कृष्ण न तो वास्तव में खोटे कहे गए हैं, न कलूटे कृतघ्न। ये वाक्य तो विनोद या परिहास की उक्तियाँ हैं। ऋंगारस में सखियाँ इस प्रकार का परिहास बराबर किया करती हैं।

तुलसी पर लगाया हुआ दूसरा इलजाम, जिससे सूर बरी किए गए हैं, यह है कि वे रह रहकर फजूल याद दिलाया करते हैं कि राम ईश्वर हैं। ठीक है; तुलसी ऐसा जरूर करते हैं। पर कहाँ? रामचरितमानस में। पर रामचरितमानस तुलसीदास का एकमात्र ग्रन्थ नहीं है। उसके अतिरिक्त तुलसीदास के और भी कई ग्रन्थ हैं। क्या सब में यही बात पाई जाती है? यदि नहीं, तो इसका विवेचन करना चाहिए कि रामचरितमानस में ही यह बात क्यों है। मेरी समझ में इसके कारण ये हैं-

(1) रामचरितमानस की कथा के वक्ता तीन हैं-शिव, याज्ञवल्क्य और काकभुशुंडि। श्रोता हैं पार्वती, भरद्वाज और गरुड़। इन तीनों श्रोताओं ने अपना यह मोह प्रकट किया है कि कहीं राम मनुष्य तो नहीं हैं। तीनों वक्ता जो कथा कह रहे हैं, वह इसी मोह को छुड़ाने के लिए। इसलिए कथा के बीच बीच में याद दिलाते जाना बहुत उचित है। गोस्वामीजी ने भूमिका में ही इस बात को स्पष्ट करके शंका की जगह नहीं छोड़ी है।

(2) रामचरितमानस एक प्रबन्ध काव्य है, जिसमें कथा का प्रवाह अनेक घटनाओं पर से होता हुआ लगातार चला चलता है। इस दशा में कथाप्रवाह में मग्न पाठक या श्रोता को असल बात की ओर ध्यादन दिलाते रहने की आवश्यकता समय समय पर उस कवि को अवश्य मालूम होगी,जो नायक को ईश्वरावतार के रूप में ही दिखाना चाहता है। फुटकर पद्यों में इसकी आवश्यकता न प्रतीत होगी। सूरसागर की शैली पर तुलसी की'गीतावली' है। उसमें यह बात नहीं पाई जाती। जबकि समान शैली की रचना मिलती है, तब मिलान के लिए उसी को लेना चाहिए।

(3) श्रीकृष्ण के लिए 'हरि', 'जनार्दन' आदि विष्णुवाचक शब्द बराबर लाए जाते हैं, इससे चेतावनी की आवश्यकता नहीं रह जाती। गोपियों ने कृष्ण के लिए बराबर 'हरि' शब्द का व्यवहार किया है।