लोकधर्म / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल

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कर्म, ज्ञान और उपासना लोकधर्म के ये तीन अवयव जनसमाज की स्थिति के लिए बहुत प्राचीन काल से भारत में प्रतिष्ठित हैं। मानव जीवन की पूर्णता इन तीनों के मेल के बिना नहीं हो सकती। पर देश काल के अनुसार कभी किसी अवयव की प्रधानता रही, कभी किसी की। यह प्रधानता लोक में जब इतनी प्रबल हो जाती है कि दूसरे अवयवों की ओर लोक की प्रवृत्ति का अभाव सा होने लगता है, तब साम्य स्थापित करने के लिए,शेष अवयवों की ओर जनता को आकर्षित करने के लिए कोई न कोई महात्मा उठ खड़ा होता है। एक बार जब कर्मकांड की प्रबलता हुई तब याज्ञवल्क्य के द्वारा उपनिषदों के ज्ञानकांड की ओर लोग प्रवृत्त किए गए। कुछ दिनों में फिर कर्मकांड प्रबल पड़ा और यज्ञों में पशुओं का बलिदानधूमधाम से होने लगा। उस समय भगवान् बुद्धदेव का अवतार हुआ जिन्होंने भारतीय जनता को एक बार कर्मकांड से बिलकुल हटाकर अपने ज्ञानवैराग्यमिश्रित धर्म की ओर लगाया। पर उनके धर्म में 'उपासना' का भाव नहीं था, इससे साधारण जनता की तृप्ति उससे न हुई और उपासना प्रधान धर्म की स्थापना फिर से हुई।

पर किसी एक अवयव की अत्यन्त वृध्दि से उत्पन्न विषमता को हटाने के लिए जो मत परवर्तित हुए, उनमें उनके स्थान पर दूसरे अवयव का हद से बढ़ना स्वाभाविक था। किसी बात की एक हद पर पहुँच कर जनता फिर पीछे पलटती है और क्रमश: बढ़ती हुई दूसरी हद पर जा पहुँचती है। धर्म और राजनीति दोनों में यह उलटफेर, चक्रगति के रूप में, होता चला आ रहा है। जब जनसमाज नई उमंग से भरे हुए किसी शक्तिशाली व्यक्ति के हाथ में पड़कर किसी एक हद से दूसरी हद पर पहुँचा दिया जाता है, तब काल पाकर उसे फिर किसी दूसरे के सहारे किसी दूसरे हद तक जाना पड़ता है। जिन मतप्रवर्तक महात्माओं को आजकल की बोली में हम 'सुधारक' कहते हैं वे भी मनुष्य थे। किसी वस्तु को अत्यधिक परिमाण में देख जो विरक्ति या द्वेष होता है वह उस परिमाण के ही प्रति नहीं रह जाता किन्तु उस वस्तु तक पहुँचता है। चिढ़नेवाला उस वस्तु की अत्यधिक मात्र से चिढ़ने के स्थान पर उस वस्तु से ही चिढ़ने लगता है और उससे भिन्न वस्तु की ओर अग्रसर होने और अग्रसर करने में परिमिति या मर्यादा का ध्या न नहीं रखता। इससे नए नए मतप्रवर्तकों या 'सुधारकों' से लोक में शान्ति स्थापित होने के स्थान पर अब तक अशान्ति ही होती आई है। धर्म के सब पक्षों का ऐसा सामंजस्य जिससे समाज के भिन्न भिन्न व्यक्ति अपनी प्रकृति और विद्या बुद्धि के अनुसार धर्म का स्वरूप ग्रहण कर सकें,यदि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो जाए तो धर्म का रास्ता अधिक चलता हो जाए।

उपर्युक्त सामंजस्य का भाव लेकर गोस्वामी तुलसीदासजी की आत्मा ने उस समय भारतीय जनसमाज के बीच अपनी ज्योति जगाई जिस समय नए नए सम्प्रदायों की खींचतान के कारण आर्यधर्म का व्यापक स्वरूप ऑंखों से ओझल हो रहा था, एकांगदर्शिता बढ़ रही थी। जो एक कोना देख पाता था, वह दूसरे कोने पर दृष्टि रखनेवालों को बुराभला कहता था। शैवों, वैष्णवों, शाक्तों और कर्मठों की तू तू मैंमैं तो थी ही, बीच में मुसलमानों से अविरोध प्रदर्शन करने के लिए भी अपढ़ जनता को साथ लगाने वाले कई नए-नए पन्थ निकल चुके थे जिनमें एकेश्वरवाद का कट्टर स्वरूप,उपासना का आशिकी रंगढंग, ज्ञानविज्ञान की निन्दा, विद्वानों का उपहास, वेदान्त के चार प्रसिद्ध शब्दों का अनधिकार प्रयोग आदि सब कुछ था; पर लोक को व्यवस्थित करनेवाली वह मर्यादा न थी जो भारतीय आर्यधर्म का प्रधान लक्षण है। जिस उपासनाप्रधान धर्म का जोर बुद्ध के पीछे बढ़ने लगा, वह उस मुसलमानी राजत्वकाल में आकर-जिसमें जनता की बुद्धि भी पुरुषार्थ के द्रास के साथ-साथ शिथिल पड़ गई थी-कर्म और ज्ञान दोनों की उपेक्षा करने लगा था। ऐसे समय में इन नए पन्थों का निकलना कुछ आश्चर्य की बात नहीं। उधर शास्त्रों का पठनपाठन कम लोगों में रह गया,इधर ज्ञानी कहलाने की इच्छा रखनेवाले मूर्ख बढ़ रहे थे जो किसी 'सतगुरु के प्रसाद' मात्र से ही अपने को सर्वज्ञ मानने के लिए तैयार बैठे थे। अत:'सतगुरु' भी उन्हीं में निकल पड़ते थे जो धर्म का कोई एक अंग नोचकर एक ओर भाग खड़े होते थे, और कुछ लोग झाँझ-ख्रजड़ी लेकर उनके पीछे हो लेते थे। दम्भ बढ़ रहा था। 'ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात'-ऐसे लोगों ने भक्ति को बदनाम कर रखा था। 'भक्ति' के नाम पर ही वे वेदशास्त्रों की निन्दा करते थे, पंडितों को गालियाँ देते थे और आर्यधर्म के सामाजिक तत्व् को न समझकर लोगों में वर्णाश्रम के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर रहे थे। यह उपेक्षा लोक के लिए कल्याणकर नहीं। जिस समाज से बड़ों का आदर, विद्वानों का सम्मान, अत्याचार का दलन करनेवाले शूरवीरों के प्रति श्रद्धा इत्यादि भाव उठ जाएँ, वह कदापि फलफूल नहीं सकता; उसमें अशान्ति सदा बनी रहेगी।

'भक्ति' का यह विकृत रूप जिस समय उत्तर भारत में अपना स्थान जमा रहा था, उसी समय भक्तवर गोस्वामीजी का अवतार हुआ जिन्होंने वर्णधर्म, आश्रमधर्म, कुलाचार, वेदविहित कर्म, शास्त्राप्रतिपादित ज्ञान इत्यादि सबके साथ भक्ति का पुन: सामंजस्य स्थापित करके आर्यधर्म को छिन्नभिन्न होने से बचाया। ऐसे सर्वांगदर्शी लोकव्यवस्थापक महात्मा के लिए मर्यादापुरुषोत्ताम भगवान् रामचन्द्र के चरित्र से बढ़कर अवलम्ब और क्या मिल सकता था! उसी आदर्श चरित्र के भीतर अपनी अलौकिक प्रतिभा के बल से उन्होंने धर्म के सब रूपों को दिखाकर, भक्ति का प्रकृत आधार खड़ा किया। जनता ने लोक की रक्षा करनेवाले प्राकृतिक धर्म का मनोहर रूप देखा। उसने धर्म को दया, दाक्षिण्य, नम्रता, सुशीलता, पितृभक्ति,सत्यव्रत, उदारता, प्रजापालन, क्षमा आदि में ही नहीं देखा बल्कि क्रोध, घृणा, शोक, विनाश और ध्वंमस आदि में भी उसे देखा। अत्याचारियों पर जो क्रोध प्रकट किया जाता है, असाध्या दुर्जनों के प्रति जो घृणा प्रकट की जाती है, दीनदुखियों को सतानेवालों का जो संहार किया जाता है, कठिन कर्तव्यों के पालन में जो वीरता प्रकट की जाती है, उसमें भी धर्म अपना मनोहर रूप दिखाता है। जिस धर्र्म की रक्षा से लोक की रक्षा होती है-जिससे समाज चलता है-वह यही व्यापक धर्म है। सत् और असत्, भले और बुरे दोनों के मेल का नाम संसार है। पापी और पुण्यात्मा, परोपकारी और अत्याचारी, सज्जन और दुर्जन सदा से संसार में रहते आए हैं और सदा रहेंगे-

सुगुन छीर अवगुन जल, ताता। मिलइ रचइ परपंच विधाता।।

किसी एक सर्प को उपदेश द्वारा चाहे कोई अहिंसा में तत्पर कर दे, किसी डाकू को साधु बना दे, क्रूर को सज्जन कर दे, पर सर्प, दुर्जन और क्रूर संसार में रहेंगे और अधिक रहेंगे। यदि ये उभयपक्ष न होंगे तो सारे धर्म और कर्तव्य की, सारे जीवनप्रयत्न की इतिश्री हो जाएगी। यदि एक गाल में चपत मारनेवाला ही न रहेगा तो दूसरा गाल फेरने का महत्तव कैसे दिखाया जायेगा? प्रकृति के तीनों गुणों की अभिव्यक्ति जबतक अलग अलग है, तभी तक उसका नाम जगत या संसार है। अत: ऐसी दुष्टता सदा रहेगी जो सज्जनता के द्वारा कभी नहीं दबाई जा सकती, ऐसा अत्याचार सदा रहेगा जिसका दमन उपदेशों के द्वारा कभी नहीं हो सकता। संसार जैसा है, वैसा मानकर उसके बीच से एक कोने को स्पर्श करता हुआ, जो धर्म निकलेगा वही धर्म लोकधर्म होगा। जीवन के किसी एक अंग मात्र को स्पर्श करनेवाला धर्म लोकधर्म नहीं। जो धर्म उपदेश द्वारा न सुधरनेवाले दुष्टों और अत्याचारियों को दुष्टता के लिए छोड़ दे, उनके लिए कोई व्यवस्था न करे, वह लोकधर्म नहीं, व्यक्तिगत साधना है। यह साधना मनुष्य की वृत्ति को ऊँचे से ऊँचे ले जा सकती है जहाँ वह लोकधर्म से परे हो जाती है। पर सारा समाज इसका अधिकारी नहीं। जनता की प्रवृत्तियों का औसत निकालने पर धर्म का जो मान निर्धारित होता है, वही लोकधर्म होता है।

ईसाई, बौद्ध, जैन इत्यादि वैराग्यप्रधान मतों में साधना के जो धर्मोपदेश दिए गए, उनका पालन अलग अलग कुछ व्यक्तियों ने चाहे किया हो,पर सारे समाज ने नहीं किया। किसी ईसाई साम्राज्य ने अन्यायपूर्वक अग्रसर होने वाले दूसरे साम्राज्य से मार खाकर अपना दूसरा गाल नहीं फेरा। वहाँ भी समष्टिरूप में जनता के बीच लोकधर्म ही चलता रहा। अत: व्यक्तिगत साधना के कोरे उपदेशों की तड़क भड़क दिखाकर लोकधर्म के प्रति उपेक्षा प्रकट करना पाखंड ही नहीं है, उस समाज के प्रति घोर कृतघ्नता भी है जिसके बीच काया पली है।

लोकमर्यादा का उल्लंघन, समाज की व्यवस्था का तिरस्कार, अनधिकार चर्चा, भक्ति और साधुता का मिथ्या दम्भ, मूर्खता छिपाने के लिए वेद शास्त्रा की निन्दा, ये सब बातें ऐसी थीं जिनसे गोस्वामीजी की अन्तरात्मा बहुत व्यथित हुई।

इस दल का लोकविरोधी स्वरूप गोस्वामीजी ने खूब पहचाना। समाजशास्त्र के आधुनिक विवेचकों ने भी लोकसंग्रह और लोकविरोध की दृष्टि से जनता का विभाग किया है। फिडिंग के चार विभाग ये हैं-लोकसंग्रही, लोकबाह्य, अलोकोपयोगी और लोकविरोधी1। लोकसंग्रही वे हैं जो समाज की व्यवस्था और मर्यादा की रक्षा में तत्पर रहते हैं और भिन्न भिन्न वर्गों के परस्पर सम्बन्ध को सुखावह और कल्याणप्रद करने की चेष्टा में रहते हैं। लोकबाह्य वे हैं जो केवल अपने जीवन निर्वाह से काम रखते हैं और लोक के हिताहित से उदासीन रहते हैं। अलोकोपयोगी वे हैं जो समाज में मिले तो दिखाई देते हैं, पर उसके किसी अर्थ के नहीं होते; जैसे आलसी और निकम्मे जिन्हें पेट भरना ही कठिन रहता है। लोकविरोधी वे हैं जिन्हें लोक से द्वेष होता है और जो उसके विधान और व्यवस्था को देखकर जला करते हैं। फिडिंग ने इस चतुर्थ वर्ग के भीतर पुराने पापियों और अपराधियों को लिया है। पर अपराध की अवस्था तक न पहुँचे हुए लोग भी उसके भीतर आते हैं जो अपने ईर्ष्याक द्वेष का उद्वार उतने उग्र रूप में नहीं निकालते, कुछ मृदुल रूप में प्रकट करते हैं।

अशिष्ट सम्प्रदायों का औद्धत्य गोस्वामीजी नहीं देख सकते थे। इसी औद्धत्य के कारण विद्वान और कर्मनिष्ठ भी भक्तों को उपेक्षा की दृष्टि से देखने लगे थे, जैसा कि गोस्वामीजी के इन वाक्यों से प्रकट होता है-

कर्मठ कठमलिया कहैं ज्ञानी ज्ञान बिहीन।

धर्मव्यवस्था के बीच ऐसी विषमता उत्पन्न करनेवाले नए नए पन्थों के प्रति इसी से उन्होंने अपनी चिढ़ कई जगह प्रकट की है; जैसे-

स्तुति सम्मत हरिभक्ति पथ, संजुत बिरति बिबेक।

तेहि परिहरहिं बिमोह बस कल्पहिं पंथ अनेक।।

×××

साखी, सबदी, दोहरा, कहि किहनी उपखान।

भगत निरूपहिं भगति कलि, निंदहि वेद पुरान।।


1 द ट्रई सोशल क्लासेज आर-द सोशल, द नान सोशल, द सूडो-सोशल, ऐंड द ऐंटी सोशल-'द प्रिंसिपल आव सोशियोलोजी', फिडिंग कृत।

उत्तरकांड में कलि के व्यवहारों का वर्णन करते हुए वे इस प्रसंग में कहतेहैं-

बादहिं शूद्र द्विजन सन हम तुमतें कछु घाटि।

जानहि ब्रह्म सो बिप्रवर ऑंखि दिखावहिं डाँटि।।

जो बातें ज्ञानियों के चिन्तन के लिए थीं, उन्हें अपरिपक्व रूप में अनधिकारियों के आगे रखने से लोकधर्म का तिरस्कार अनिवार्य था। 'शूद्र'शब्द से जाति की नीचता मात्र से अभिप्राय नहीं है; विद्या, बुद्धि, शील, शिष्टता, सभ्यता सबकी हीनता से है। समाज में मूर्खता का प्रचार, बल और पौरुष का द्रास, अशिष्टता की वृध्दि, प्रतिष्ठित आदर्शों की उपेक्षा कोई विचारवान् नहीं सहन कर सकता। गोस्वामीजी सच्चे भक्त थे। भक्ति मार्ग की यह दुर्दशा वे कब देख सकते थे? लोकविहित आदर्शों की प्रतिष्ठा फिर से करने के लिए, भक्ति के सच्चे सामाजिक आधार फिर से खड़े करने के लिए, उन्होंने रामचरित का आश्रय लिया जिसके बल से लोगों ने फिर धर्म के जीवनव्यापी स्वरूप का साक्षात्कार किया और उस पर मुग्ध हुए।'कलिकलुष विभंजिनी' राम कथा घर घर धूमधाम से फैली। हिन्दू धर्म में नई भक्ति का संचार हुआ। 'स्तुति सम्मत हरि भक्ति' की ओर जनता फिर से आकर्षित हुई। रामचरितमानस के प्रसाद से उत्तर भारत में साम्प्रदायिकता का वह उच्छृंखल रूप अधिक न ठहरने पाया जिसने गुजरात आदि में वर्ग के वर्ग को वैदिक संस्कारों से एकदम विमुख करदिया था, दक्षिण में शैवों और वैष्णवों का घोर द्वन्द्व खड़ा किया था। यहाँ की किसी प्राचीनपुरी में शिवकांची और विष्णुकांची के समान दो अलग-अलग बस्तियाँ होने की नौबत नहीं आई। यहाँ शैवों और वैष्णवों में मारपीट कभी नहीं होती। यह सब किसके प्रसाद से? भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदासजी के प्रसाद से। उनकी शान्तिप्रदायिनी मनोहर वाणी के प्रभाव से जो सामंजस्य बुद्धि जनता में आई वह अब तक बनी है और जब तक रामचरितमानस का पठनपाठन रहेगा, तब तक बनी रहेगी।

शैवों और वैष्णवों के विरोध के परिहार का प्रयत्न रामचरितमानस में स्थान स्थान पर लक्षित होता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के गणेशखंड में शिव हरिमन्त्रा के जापक कहे गए हैं। उसके अनुसार उन्होंने शिव को राम का सबसे अधिकारी भक्त बनाया, पर साथ ही राम को शिव का उपासक बनाकर गोस्वामीजी ने दोनों का महत्तव प्रतिपादित किया। राम के मुखारविन्द से उन्होंने स्पष्ट कहला दिया कि-

शिवद्रोही मम दास कहावै। सो नर सपनेहु मोहिं न भावै।।

वे कहते हैं कि 'शंकर प्रिय, मम द्रोही, शिवद्रोही, मम दास' मुझे पसन्द नहीं।

इस प्रकार गोस्वामीजी ने उपासना या भक्ति का केवल कर्म और ज्ञान के साथ ही सामंजस्य स्थापित नहीं किया, बल्कि भिन्न भिन्न उपास्य देवों के कारण जो भेद दिखाई पड़ते थे, उनका भी एक में पर्यवसान किया। इसी एक बात से यह अनुमान हो सकता है कि उनका प्रभाव हिन्दू समाज की रक्षा के लिए-उसके स्वरूप को रखने के लिए-कितने महत्तव का था!

तुलसीदासजी यद्यपि राम के अनन्य भक्त थे, पर लोकरीति के अनुसार अपने ग्रन्थों में गणेशवन्दना पहले करके तब वे आगे चले हैं। सूरदासजी ने 'हरि हरि हरि सुमिरन करो' से ही ग्रन्थ का आरम्भ किया है। तुलसीदासजी की अनन्यता सूरदास से कम नहीं थी, पर लोकमर्यादा की रक्षा का भाव लिए हुए थी। सूरदासजी की भक्ति में लोकसंग्रह का भाव न था। पर हमारे गोस्वामीजी का भाव अत्यन्त व्यापक था-वह मानस जीवन के सब व्यापारों तक पहुँचनेवाला था। राम की लीला के भीतर वे जगत् के सारे व्यवहार और जगत् के सारे व्यवहारों के भीतर राम की लीला देखते थे। पारमार्थिक दृष्टि से तो सारा जगत् राममय है, पर व्यावहारिक दृष्टि से उसके राम और रावण दो पक्ष हैं। अपने स्वरूप के प्रकाश के लिए मानो राम ने रावण का असत् रूप खड़ा किया। 'मानस' के आरम्भ में सिद्धान्तकथन के समय तो वे 'सियाराम मय सब जग जानी' सबको 'सप्रेम प्रणाम'करते हैं, पर आगे व्यवहार क्षेत्रों में चलकर वे रावण के प्रति 'शठ' आदि बुरे शब्दों का प्रयोग करते हैं।

भक्ति के तत्व् को हृदयंगम करने के लिए उसके विकास पर ध्याोन देना आवश्यक है। अपने ज्ञान की परिमिति के अनुभव के साथ साथ मनुष्य जाति आदिम काल से ही आत्मरक्षा के लिए परोक्ष शक्तियों की उपासना करती आई है। इन शक्तियों की भावना वह अपनी परिस्थिति के अनुरूप करती रही। दु:खों से बचने का प्रयत्न जीवन का प्रथम प्रयत्न है। इन दु:खों का आना न आना बिलकुल अपने हाथ में नहीं है, यह देखते ही मनुष्य ने उनको कुछ परोक्ष शक्तियों द्वारा प्रेरित समझा। अत: बलिदान आदि द्वारा उन्हें शान्त और पुष्ट् रखना उसे आवश्यक दिखाई पड़ा। इस आदिम उपासना का मूल था 'भय'। जिन देवताओं की उपासना असभ्य दशा में प्रचलित हुई, वे 'अनिष्टदेव' थे। आगे चलकर जब परिस्थिति ने दु:ख निवारण मात्र से कुछ अधिक सुख की आकांक्षा का अवकाश दिया, तब साथ ही देवों के सुख समृद्धी विधायक रूप की प्रतिष्ठा हुई। यह 'इष्टानिष्ट' भावना बहुत काल तक रही। वैदिक देवताओं को हम इसी रूप में पाते हैं। वे पूजा पाने से प्रसन्न होकर धनधान्य, ऐश्वर्य, विजय सब कुछ देते थे, पूजा न पाने पर कोप करते थे और घोर अनिष्ट करते थे। व्रज के गोपों ने जब इन्द्र की पूजा बन्द कर दी थी, तब इन्द्र ने ऐसा ही कोप किया था। उसी काल से 'इष्टानिष्ट' काल की समाप्ति माननी चाहिए।

समाज के पूर्ण रूप से सुव्यवस्थित हो जाने के साथ ही मनुष्य के कुछ आचरण लोकरक्षा के अनुकूल और कुछ प्रतिकूल दिखाई पड़ गए थे।'इष्टानिष्ट' काल के पूर्व ही लोकधर्म और शील की प्रतिष्ठा समाज में हो चुकी थी, पर उनका सम्बन्ध प्रचलित देवताओं के साथ नहीं स्थापित हुआ था। देवगण धर्म और शील से प्रसन्न होनेवाले, अधर्म और दु:शीलता पर कोप करनेवाले नहीं हुए थे; वे अपनी पूजा से प्रसन्न होनेवाले और उस पूजा में त्रुटि से ही अप्रसन्न बने थे। ज्ञान मार्ग की ओर ब्रह्म का निरूपण बहुत पहले से हो चुका था, पर वह ब्रह्म लोकव्यवहार में तटस्थ था। लौकिक उपासना के योग्य वह नहीं था। धीरे धीरे उसके व्यावहारिक रूप, सगुण रूप, की तीन रूपों में प्रतिष्ठा हुई-स्त्रष्टा, पालक और संहारक। उधर स्थितिरक्षा का विधान करनेवाले धर्म और शील के नाना रूपों की अभिव्यक्ति पर जनता पूर्ण रूप से मुग्ध हो चुकी थी। उसने चट दया, दाक्षिण्य,क्षमा, उदारता, वत्सलता, सुशीलता आदि उदात्त वृत्तियों का आरोप ब्रह्म के लोकपालक सगुण स्वरूप में किया। लोक में 'इष्टदेव' की प्रतिष्ठा हो गई। नारायण वासुदेव के मंगलमय रूप का साक्षात्कार हुआ। जनसमाज आशा और आनन्द से नाच उठा। भागवत धर्म का उदय हुआ। भगवान पृथ्वी का भार उतारने और धर्म की स्थापना करने के लिए बार बार आते हुए साक्षात दिखाई पड़े। जिन गुणों से लोक की रक्षा होती है, जिन गुणों को देख हमारा हृदय प्रफुल्ल हो जाता है, उन गुणों को हम जिसमें देखें वही 'इष्टदेव' है-हमारे लिए वही सबसे बड़ा है-

तुलसी जप तप नेम ब्रत सब सबही तें होइ।

लहै बड़ाई देवता 'इष्टदेव' जब होइ।।

इष्टदेव भगवान् के स्वरूप के अन्तर्गत केवल उनका दया दाक्षिण्य ही नहीं असाध्यो दुष्टों के संहार की उनकी अपरिमित शक्ति और लोकमर्यादा पालन भी है।

भक्ति का यह मार्ग बहुत प्राचीन है। जिसे रूखे ढंग से 'उपासना' कहते हैं, उसी ने व्यक्ति की रागात्मक सत्ता के भीतर प्रेमपरिपुष्ट होकर'भक्ति' का रूप धारण किया है। व्यष्टिरूप में प्रत्येक मनुष्य के और समष्टिरूप में मनुष्य जाति के सारे प्रयत्नों का लक्ष्य स्थितिरक्षा है। अत: ईश्वरत्व के तीन रूपों में स्थिति विधायक रूप ही भक्ति का आलम्बन हुआ। विष्णु या वासुदेव की उपासना ही मनुष्य के रतिभाव को अपने साथ लगाकर भक्ति की परम अवस्था को पहुँच सकी। या यों कहिए कि भक्ति की ज्योति का पूर्ण प्रकाश वैष्णवों में ही हुआ।

तुलसीदास के समय में दो प्रकार के भक्त पाए जाते थे। एक तो प्राचीन परम्परा के रामकृष्णोपासक जो वेदशास्त्राज्ञ तत्वतदर्शी आचार्यों द्वारा परवर्तित सम्प्रदायों के अनुयायी थे; जो अपने उपदेशों में दर्शन, इतिहास, पुराण आदि के प्रसंग लाते थे। दूसरे वे जो समाजव्यवस्था की निन्दा और पूज्य तथा सम्मानित व्यक्तियों के उपहास द्वारा लोगों को आकर्षित करते थे। समाज की व्यवस्था में कुछ विकार आ जाने से ऐसे लोगों के लिए अच्छा मैदान हो जाता है। समाज के बीच शासकों, कुलीनों, श्रीमानों, विद्वानों, शूरवीरों, आचार्यों इत्यादि को अवश्य अधिकार और सम्मान कुछ अधिक प्राप्त रहता है; अत: ऐसे लोगों की भी कुछ संख्या सदा रहती है जो उन्हें अकारण ईर्ष्याम और द्वेष की दृष्टि से देखते हैं और उन्हें नीचा दिखाकर अपने अहंकार को पुष्टष करने की ताक में रहते हैं। अत: उक्त शिष्ट वर्गों में कोई दोष न रहने पर भी उनमें दोषोद्भावना करके कोई चलतेपुरजे का आदमी ऐसे लोगों को संग में लगाकर 'प्रर्वतक' 'अगुआ', 'महात्मा' आदि होने का डंका पीट सकता है। यदि दोष सचमुच हुआ तो फिर क्या कहना है। सुधार की सच्ची इच्छा रखनेवाले दो चार होंगे तो ऐसे लोग पचीस। किसी समुदाय के मद, मत्सर, ईर्ष्यात, द्वेष और अहंकार को काम में लाकर 'अगुआ' और 'प्रर्वतक' बनने का हौसला रखनेवाले समाज के शत्रु हैं। यूरोप में जो सामाजिक अशान्ति चली आ रही है, वह बहुत कुछ ऐसे ही लोगों के कारण। पूर्वीय देशों की अपेक्षा संघनिर्माण में अधिक कुशल होने के कारण वे अपने व्यवसाय में बहुत जल्दी सफलता प्राप्त कर लेते हैं। यूरोप में जितने लोक विप्लव हुए हैं, जितनी राजहत्या, नरहत्या हुई है, सबमें जनता के वास्तविक दु:ख और क्लेश का भाग यदि 1/3 था तो विशेष जनसमुदाय की नीच प्रवृत्तियों का भाग 2/3। 'क्रान्तिकारक' 'प्रर्वतक' आदि कहलाने का उन्माद यूरोप में बहुत अधिक है, इन्हीं उन्मादियों के हाथ में पड़कर वहाँ का समाज छिन्नभिन्न हो रहा है। अभी थोड़े दिन हुए; एक मेम साहब पति पत्नी के सम्बन्ध पर व्याख्यान देती फिरती थीं कि कोई आवश्यकता नहीं कि स्त्री पति के घर में ही रहे।

भक्त कहलानेवाले एक विशेष समुदाय के भीतर जिस समय यह उन्माद कुछ बढ़ रहा था, उस समय भक्तिमार्ग के भीतर ही एक ऐसी सात्विमक ज्योति का उदय हुआ जिसके प्रकाश में लोकधर्म के छिन्नभिन्न होते हुए अंग भक्ति सूत्र के द्वारा ही फिर से जुड़े। चैतन्य महाप्रभु के भाव के प्रवाह के द्वारा बंगदेश, अष्टछाप के कवियों के संगीत स्त्रोत के द्वारा उत्तर भारत में प्रेम की जो धारा बही, उसने पन्थवालों की परुष वचनावली से सूखते हुए हृदयों को आर्द्र तो किया, पर वह आर्य शास्त्र अनुमोदित लोकधर्म के माधुर्य की ओर आकर्षित न कर सकी। यह काम गोस्वामी तुलसीदासजी ने किया। हिन्दू समाज में फैलाया हुआ विष उनके प्रभाव से चढ़ने न पाया। हिन्दू जनता अपने गौरवपूर्ण इतिहास को भुलाने,कई सहस्त्र वर्षों के संचित ज्ञानभंडार से वंचित रहने, अपने प्रात:स्मरणीय आदर्श पुरुषों के आलोक से दूर पड़ने से बच गई। उसमें यह संस्कार न जमने पाया कि श्रद्धा और भक्ति के पात्र केवल सांसारिक कर्तव्यों से विमुख, कर्ममार्ग से च्युत कोरे उपदेश देनेवाले ही हैं। उसके सामने यह फिर से अच्छी तरह झलका दिया गया कि संसार में चलते व्यापारों में मग्न, अन्याय के दमन के अर्थ रणक्षेत्रों ों में अद्भुत पराक्रम दिखानेवाले, अत्याचार पर क्रोध से तिलमिलानेवाले, प्रभूत शक्तिसम्पन्न होकर भी क्षमा करनेवाले अपने रूप, गुण और शील से लोक का अनुरंजन करनेवाले, मैत्री का निर्वाह करनेवाले, प्रजा का पुत्रवत् पालन करनेवाले, बड़ों की आज्ञा का आदर करनेवाले, सम्पत्ति में नम्र रहनेवाले, विपत्ति में धैर्य रखनेवाले प्रिय या अच्छे ही लगते हैं, यह बात नहीं है। वे भक्ति और श्रद्धा के प्रकृत आलम्बन हैं, धर्म के दृढ़ प्रतीक हैं।

सूरदास आदि अष्टछाप के कवियों ने श्रीकृष्ण के ऋंगारिक रूप के प्रत्यक्षीकरण द्वारा 'टेढ़ी सीधी निर्गुण वाणी' की खिन्नता और शुष्कता को हटाकर जीवन की प्रफुल्लता का आभास तो दिया, पर भगवान के लोक-संग्रहकारी रूप का प्रकाश करके धर्म के सौन्दर्य का साक्षात्कार नहीं कराया। कृष्णोपासक भक्तों के सामने राधाकृष्ण की प्रेमलीला ही रखी गई, भगवान की लोकधर्म स्थापना का मनोहर चित्रण नहीं किया गया। अधर्म और अन्याय से संलग्न वैभव और समृद्धी का जो विच्छेद उन्होंने कौरवों के विनाश द्वारा कराया, लोकधर्म से च्युत होते हुए अर्जुन को जिस प्रकार उन्होंने सँभाला, शिशुपाल के प्रसंग में क्षमा और दंड की जो मर्यादा उन्होंने दिखाई, किसी प्रकार धवस्त न होनेवाले प्रबल अत्याचारी के निराकरण की जिस नीति के अवलम्बन की व्यवस्था उन्होंने जरासंध वध द्वारा की, उसका सौन्दर्य जनता के हृदय में अंकित नहीं किया गया। इससे असंस्कृत हृदयों में जाकर कृष्ण की ऋंगारिक भावना ने विलासप्रियता का रूप धारण किया और समाज केवल नाचकूद कर जी बहलाने के योग्य हुआ।

जहाँ लोकधर्म और व्यक्तिधर्म का विरोध हो वहाँ कर्ममार्गी गृहस्थ के लिए लोकधर्म का ही अवलम्बन श्रेष्ठ है। यदि किसी अत्याचारी का दमन सीधो न्यायसंगत उपायों से नहीं हो सकता तो कुटिल नीति का अवलम्बन लोकधर्म की दृष्टि से उचित है। किसी अत्याचारी द्वारा समाज को जो हानि पहुँच रही है, उसके सामने वह हानि कुछ नहीं है जो किसी एक व्यक्ति के बुरे दृष्टान्त से होगी। लक्ष्य यदि व्यापक और श्रेष्ठ है तो साधन का अनिवार्य अनौचित्य उतना खल नहीं सकता। भारतीय जनसमाज में लोकधर्म का यह आदर्श यदि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित रहने पाता तो विदेशियों के आक्रमण को व्यर्थ करने में देश अधिक समर्थ होता।

रामचरित के सौन्दर्य द्वारा तुलसीदासजी ने जनता को लोकधर्म की ओर जो फिर से आकर्षित किया, वह निष्फल नहीं हुआ। वैरागियों का सुधार चाहे उससे उतना न हुआ हो, पर परोक्ष रूप में साधारण गृहस्थ जनता की प्रवृत्ति का बहुत कुछ संस्कार हुआ। दक्षिण में रामदास स्वामी ने इसी लोकधर्माश्रित भक्ति का संचार करके महाराष्ट्र शक्ति का अभ्युदय किया। पीछे से सिखों ने भी लोकधर्म का आश्रय लिया और सिख शक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। हिन्दू जनता शिवाजी और गुरु गोविंदसिंह को राम कृष्ण के रूप में और औरंगजेब को रावण और कंस के रूप में देखने लगी। जहाँ लोक ने किसी को रावण और कंस के रूप में देखा कि भगवान के अवतार की सम्भावना हुई।

गोस्वामीजी ने यद्यपि भक्ति के साहचर्य से ज्ञान, वैराग्य का भी निरूपण किया है और पूर्ण रूप से किया है, पर उनका सबसे अधिक उपकार गृहस्थों के ऊपर है जो अपनी प्रत्येक स्थिति में उन्हें पुकारकर कुछ कहते हुए पाते हैं और वह 'कुछ' भी लोकव्यवहार के अन्तर्गत है, उसके बाहर नहीं। मान अपमान से परे रहनेवाले सन्तों के लिए तो वे 'खल के वचन सन्त सह जैसे' कहते हैं पर साधारण गृहस्थों के लिए सहिष्णुता की मर्यादा बाँधते हुए कहते हैं कि 'कतहुँ सुधाइहु तें बड़ दोषू'। साधक और संसारी दोनों के भागों की ओर वे संकेत करते हैं। व्यक्तिगत सफलता के लिए जिसे'नीति' कहते हैं, सामाजिक आदर्श की सफलता का साधक होकर वह 'धर्म' हो जाता है।

सारांश यह कि गोस्वामीजी से पूर्व तीन प्रकार के साधु समाज के बीच रमते दिखाई देते थे। एक तो प्राचीन परम्परा के भक्त जो प्रेम में मग्न होकर संसार को भूल रहे थे, दूसरे वे जो अनधिकार ज्ञानगोष्ठी द्वारा समाज के प्रतिष्ठित आदर्शों के प्रति तिरस्कार बुद्धि उत्पन्न कर रहे थे, और तीसरे वे जो हठयोग1, रसायन आदि द्वारा अलौकिक सिध्दियों की व्यर्थ आशा का प्रचार कर रहे थे। इन तीनों वर्गों के द्वारा साधारण जनता के लोकधर्म पर आरूढ़ होने की सम्भावना कितनी दूर थी, यह कहने की आवश्यकता नहीं। आज जो हम फिर झोंपड़ों में बैठे किसानों को भरत के'भायप भाव' पर, लक्ष्मण के त्याग पर, राम की पितृभक्ति पर पुलकित होते हुए पाते हैं, वह गोस्वामीजी के ही प्रसाद से। धन्य है गार्हस्थ्य जीवन में धर्मालोकस्वरूप रामचरित और धन्य हैं उस आलोक को घर घर पहुँचानेवाले तुलसीदास! व्यावहारिक जीवन धर्म की ज्योति से एक बार फिर जगमगा उठा-उसमें नई शक्ति का संचार हुआ। जो कुछ भी नहीं जानता, वह भी यह जानता है कि-

जे न मित्रा दुख होहिं दुखारी। तिनहिं बिलोकत पातक भारी।।

स्त्रियाँ और कोई धर्म जानें, या न जानें, पर वे वह धर्म जानती हैं जिससे संसार चलता है। उन्हें इस बात का विश्वास रहता है कि-

वृद्ध,रोगबस,जड़, धनहीना। अंध बधिर क्रोधी अति दीना।।

ऐसेहुपतिकर किए अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना।।

जिसमें बाहुबल है उसे यह समझ भी पैदा हो गई है कि दुष्ट और अत्याचारी 'पृथ्वी के भार' हैं; उस भार को उतारनेवाले भगवान् के सच्चे सेवक हैं। प्रत्येक देहाती लठैत 'बजरंगबली' की जयजयकार मानता है-कुम्भकर्ण की नहीं। गोस्वामीजी ने 'रामचरित चिन्तामणि' को छोटे बड़े सबके बीच बाँट दिया जिसके प्रभाव से हिन्दू समाज यदि चाहे-सच्चे जी से चाहे-तो सब कुछ प्राप्त कर सकता है।

भक्ति और प्रेम के पुटपाक द्वारा धर्म को रागात्मिका वृत्ति के साथ सम्मिश्रित करके बाबाजी ने एक ऐसा रसायन तैयार किया जिसके सेवन से धर्म मार्ग में कष्ट और श्रांति न जान पड़े, आनन्द और उत्साह के साथ लोग आप से आप उसकी

1. गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग,

निगम नियोग ते, सो केलि ही छरो सो है।-कवितावली।

ओर प्रवृत्त हों, धरपकड़ और जबरदस्ती से नहीं। जिस धर्ममार्ग में कोरे उपदेशों से कष्ट ही कष्ट दिखाई पड़ता है, वह चरित्र सौन्दर्य के साक्षात्कार से आनन्दमय हो जाता है। मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति और निवृत्ति की दिशा को लिए हुए धर्म की जो लीक निकलती है, लोगों के चलते चलते चौड़ी होकर वह सीधा राजमार्ग हो सकती है; जिसके सम्बन्ध में गोस्वामीजी कहते हैं-

'गुरु कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राजडगरो सो।'