धर्म और जातीयता का समन्वय / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल
गोस्वामीजी द्वारा प्रस्तुत नवरसों का रामरसायन ऐसा पुष्टिकर हुआ कि उसके सेवन से हिन्दू जाति विदेशीय मतों के आक्रमणों से भी बहुत कुछ रक्षित रही और अपने जातीय स्वरूप को भी दृढ़ता से पकड़े रही। उसके भगवान जीवन की प्रत्येक स्थिति में-खेलने कूदने में, हँसने रोने में, लड़ने भिड़ने में, नाचने गाने में, बालकों की क्रीड़ा में, दाम्पत्य प्रेम में, राज्यसंचालन में, आज्ञापालन में, आनन्दोत्सव में, शोक समाज में, सुख दु:ख में,घर में, सम्पत्ति में, विपत्ति में-उसे दिखाई पड़ते हैं। विवाह आदि शुभ अवसरों पर तुलसीरचित राम के मंगल गीत गाए जाते हैं, विमाताओं की कुटिलता के प्रसंग में कैकेयी की कहानी कही जाती है, दु:ख के दिनों में राम का बनवास स्मरण किया जाता है, वीरता के प्रसंग में उनके धनुष की भीषण टंकार सुनाई पड़ती है; सारांश यह कि सारा हिन्दू जीवन राममय प्रतीत होता है। वेदान्त का परमार्थ तत्वं समझने की सामर्थ्य न रखनेवालेसाधारण लोगों को भी व्यवहार क्षेत्रों में चारों ओर राम ही राम दिखाई देते हैं। इस प्रकार राम के स्वरूप का सामंजस्य हिन्दू हृदय के साथ कर दिया गया है। इस साहचर्य से राम के प्रति जो भाव साधारण जनता में प्रतिष्ठित हो गया है उसका लावण्य उसके सम्पूर्ण जीवन का लावण्य हो गया है। राम के बिना हिन्दू जीवन नीरस है-फीका है। यही रामरस उसका स्वाद बनाए रहा और बनाए रहेगा। राम ही का मुँह देख हिन्दू जनता का इतना बड़ा भाग अपने धर्म और जाति के घेरे में पड़ा रहा। न उसे तलवार हटा सकी, न धनमान का लोभ, न उपदेशों की तड़क भड़क। जिन राम को जनता जीवन की प्रत्येक स्थिति से देखती आई, उन्हें छोड़ना अपने प्रिय से प्रिय परिजन को छोड़ने से कम कष्टकर न था। विदेशी कच्चा रंग एक चढ़ा एक छूटा, पर भीतर जो पक्का रंग था वह बना रहा। हमने चौड़ी मोहरी का पायजामा पहना, 'आदाब अर्ज' किया, पर 'राम राम' न छोड़ा। अब कोट पतलून पहनकर बाहर 'डेम नान्सेंस' कहते हैं पर घर में आते ही फिर वही 'राम राम'। शीरी फरहाद और हातिमताई के किस्से के सामने कर्ण,युधिष्ठिर, नल दमयन्ती सबको भूल गए थे, पर रामचर्चा कुछ करते रहे। कहना न होगा कि इस एक को न छोड़ने से एक प्रकार से सब कुछ बना रहा; क्योंकि इसी एक नाम में हिन्दू जीवन का सारा सार खींचकर रख दिया गया था। इसी एक नाम के अवलम्ब से हिन्दू जाति के लिए अपने प्राचीन स्वरूप, अपने प्राचीन गौरव के स्मरण की सम्भावना बनी रही। रामनामामृत पान करके हिन्दू जाति अमर हो गई। इस अमृत को घर घर पहुँचानेवाला भी अमर है। आज जो हम बहुत से 'भारतीय हृदयों' को चीरकर देखते हैं, तो वे अभारतीय निकलते हैं। पर एक इसी कविकेसरी को भारतीय सभ्यता, भारतीय रीति नीति की रक्षा के लिए सबके हृदय द्वार पर अड़ा देख हम निराश होने से बच जाते हैं।
मंगलाशा
शुद्ध आत्मपक्ष के विचार से दु:खवाद स्वीकार करते हुए भी, साधकों के लिए ज्ञान द्वारा उस दु:ख की निवृत्ति मानते हुए भी, वे लोक के कल्याण के पूरे प्रयासी थे। लोक के मंगल की आशा से उनका हृदय परिपूर्ण और प्रफुल्ल था। इस आशा का आधार थी वह मंगलमयी ज्योति जो धर्म के रूप में जगत् की प्रातिभासिक सत्ता के भीतर आनन्द का आभास देती है और उसकी रक्षा द्वारा सत् का-अपने नित्यत्व का-बोध करती है। लोक की रक्षा 'सत्' का आभास है, लोक का मंगल 'परमानन्द' का आभास है। इस व्यावहारिक 'सत्' और 'आनन्द' का प्रतीक है 'रामराज्य' जिसमें उस मर्यादा की पूर्ण प्रतिष्ठा है जिसके उल्लंघन से इस सत् और आनन्द का आभास भी व्यवधान में पड़ जाता है। पर यह व्यवधान सब दिन नहीं रह सकता। अन्त में सत् अपना प्रकाश करता है, इस बात का पूर्ण विश्वास तुलसीदासजी ने प्रकट किया है। इस व्यवधान काल का निरीक्षण लोक की वर्तमान दशा के रूप में वे अत्यन्त भय और आकुलता के साथ इस प्रकार करते हैं-
प्रभु के बचन बेद बुध सम्मत मम मूरति महिदेव मई है।
तिन्हकी मति, रिस, राग, मोह, मद लोभ लालची लीलि लई है।।
राज समाज कुसाज, कोटि कटु कल्पत कलुष कुचाल नई है।
नीति प्रतीति प्रीति परिमिति परि हेतुवाद हठि हेरि हई है।।
आश्रम बरन धरम बिरहित जग, लोक बेद मरजाद गई है।
प्रजा पतित पाखंड पापरत, अपने अपने रंग रई है।।
सांति सत्य सुभ रीति गई घटि, बढ़ी कुरीति कपट कलई है।
सीदत साधु, साधुता सोचति, खल बिलसत, हुलसति खलई है।।
पर इस भीषण दृश्य से गोस्वामीजी निराश नहीं होते। सच्चे भक्त के हृदय में नैराश्य कहाँ? जिसे धर्म की शक्ति पर, धर्मस्वरूप भगवान् की अनन्त करुणा पर पूर्ण विश्वास है, नैराश्य का दु:ख उसके पास नहीं फटक सकता। अत: गोस्वामीजी रामराज्य स्थापन करने के लिए राम से विनती करते हैं-
'दीजै दादि देखि नातो बलि मही मोह मंगल रितई है।'
प्रार्थना के साथ ही अपने विश्वास के बल पर वे मान लेते हैं कि प्रार्थना सुन ली गई, 'रामराज्य' हो गया, लोक में फिर मंगल छा गया-
भरे भाग अनुराग लोग कहै राम अवध चितवनि चितई है।
विनती सुनि सानन्द हेरि हँसि करुणा बारि भूमि भिजई है।।
रामराज भयो काज सगुन सुभ राजा राम जगत बिजई है।
समरथ बढ़ो सुजान सुसाहब सुकृत सेन हारत जितई है।।
लोक में जब सुकृत की सेना हारने लगेगी, अधर्म की सेना प्रबल पड़ती दिखाई देगी, तब तब भगवान् अपनी शक्ति का, धर्मबल का, लोकबल का प्रकाश करेंगे, ऐसा विश्वास सच्चे भक्त को रहता है। अत: आशा और आनन्द से उसका हृदय परिपूर्ण रहता है।