लोकनीति और मर्यादावाद / गोस्वामी तुलसीदास / रामचन्द्र शुक्ल
गोस्वामीजी का समाज का आदर्श वही है जिसका निरूपण वेद, पुराण, स्मृति आदि में है; अर्थात् वर्णाश्रम की पूर्ण प्रतिष्ठा। प्रोत्साहन और प्रतिबन्धद्वारा मन, वचन और कर्म को व्यवस्थित रखनेवाला तत्व। धर्म है जो दो प्रकार का है-साधारण और विशेष। मनुष्य मात्र का मनुष्य मात्र के प्रति जो सामान्य कर्तव्य होता है, उसके अतिरिक्त स्थिति या व्यवसाय विशेष के अनुसार भी मनुष्य के कुछ कर्तव्या होते हैं। जैसे माता पिता के प्रतिपुत्र का, पुत्र के प्रति पिता का, राजा के प्रति प्रजा का, गुरु के प्रति शिष्य का, ग्राहक के प्रति दुकानदार का, छोटों के प्रति बड़ों का इत्यादि इत्यादि। ज्यों ज्यों सभ्यता बढ़ी है, समाज में वर्णविधान हुआ है, त्यों त्यों इन धर्मों का विस्तार होता गया है। पारिवारिक जीवन में से निकलकर समाज में जाकर उनकी अनेक रूपों में प्रतिष्ठा हुई है। संसार के और देशों में जो मत परवर्तित हुए, उनमें 'साधारण धर्म' का ही पूर्ण समावेश हो सका,विशेष धर्मों की बहुत कम व्यवस्था हुई। पर सरस्वती और दृशद्वती के तटों पर पल्लवित आर्य सभ्यता के अन्तर्गत जिस धर्म का प्रकाश हुआ,विशेष धर्मों की विस्तृत व्यवस्था उसका लक्षण हुआ और वह वर्णाश्रम धर्म कहलाया। उसमें लोकसंचालन के लिए ज्ञानबल, बाहुबल, धनबल और सेवाबल का सामंजस्य घटित हुआ जिसके अनुसार केवल कर्मों की ही नहीं वाणी और भाव की भी व्यवस्था की गई। जिस प्रकार ब्राह्मण के धर्म पठनपाठन, तत्व।चिंतन, यज्ञादि हुए उसी प्रकार शान्त और मृदु वचन तथा उपकार बुद्धि, नम्रता, दया, क्षमा आदि भावों का अभ्यास भी। क्षत्रियों के लिए जिस प्रकार शस्त्राग्रहण धर्म हुआ, उसी प्रकार जनता की रक्षा, उसके दु:ख से सहानुभूति आदि भी। और वर्णों के लिए जिस प्रकार अपने नियत व्यवसायों का सम्पा दन कर्तव्यि ठहराया गया, उसी प्रकार अपने से ऊँचे कर्तव्यिवालों अर्थात् लोकरक्षा द्वारा भिन्न भिन्न व्यवसायों का अवसर देनेवालों के प्रति, आदर सम्मान का भाव भी। वचनव्यवस्था और भावव्यवस्था के बिना कर्मव्यवस्था निष्फल होती। हृदय का योग जबतक न होगा,तबतक न कर्म सच्चे होंगे, न अनुकूल वचन निकलेंगे। परिवार में जिस प्रकार ऊँची नीची श्रेणियाँ होती हैं उसी प्रकार शील, विद्या, बुद्धि, शक्ति आदि की विचित्रता से समाज में भी ऊँची नीची श्रेणियाँ रहेंगी। कोई आचार्य होगा कोई शिष्य, कोई राजा होगा कोई प्रजा, कोई अफसर होगा कोई मातहत, कोई सिपाही होगा कोई सेनापति। यदि बड़े छोटों के प्रति दु:शील होकर हर समय दुर्वचन कहने लगें, यदि छोटे बड़ों का आदर सम्मान छोड़कर उन्हें ऑंख दिखाकर डाँटने लगें तो समाज चल ही नहीं सकता। इसी से शूद्रों का द्विजों को ऑंख दिखाकर डाँटना, मूर्खों का विद्वानों का उपहास करना गोस्वामीजी को समाज की धर्मशक्ति का द्रास समझ पड़ा।
ब्राह्मणों की मति को 'मोह, मद, रिस, राग और लोभ' यदि निगल जाएँ, राजसमाज यदि नीतिविरुद्ध आचरण करने लगे, शूद्र यदि ब्राह्मणों को ऑंख दिखाने लगें, अर्थात् अपने अपने धर्म से समाज की सब श्रेणियाँ च्युत हो जाएँ, तो फिर से लोकधर्म की स्थापना कौन कर सकता है?गोस्वामीजी कहते हैं 'राज्य' 'सुराज्य' 'रामराज्य'। राज्य की कैसी व्यापक भावना है? आदर्श राज्य केवल बाहर बाहर कर्मों का प्रतिबन्धक और उत्तोजक नहीं है, हृदय को स्पर्श करनेवाला है, उसमें लोकरक्षा के अनुकूल भावों की प्रतिष्ठा करनेवाला है। यह धर्म राज्य है-इसका प्रभाव जीवन के छोटे बड़े सब व्यापारों तक पहुँचनेवाला है। समस्त मानवी प्रकृति का रंजन करनेवाला है। इस राज्य की स्थापना केवल शरीर पर ही नहीं होती, हृदय पर भी होती है। यह राज्य केवल चलती हुई जड़ मशीन नहीं है-आदर्श व्यक्ति का परिवर्तित रूप है। इसे जिस प्रकार हाथ पैर हैं; उसी प्रकार हृदय भी है, जिसकी रमणीयता के अनुभव से प्रजा आप से आप धर्म की ओर प्रवृत्त होती है। रामराज्य में-
बयरु न करु काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत स्त्रुति रीती।।
लोग जो बैर छोड़कर परस्पर प्रीति करने लगे, वह क्या राम के 'बाहुबल के प्रताप से', दंडभय से? दंडभय से लोग इतना ही कर सकते हैं कि किसी को मारें-पीटें नहीं; यह नहीं कि किसी से मन में भी वैर न रखें, सबसे प्रीति रखें। सुशीलता की पराकाष्ठा राम के रूप में हृदयाकर्षिणी शक्ति होकर उनके बीच प्रतिष्ठित थी। उस शक्ति के सम्मुख प्रजा अपने हृदय की सुन्दर वृत्तियों को कर स्वरूप समर्पित करती थी। केवल अर्जित वित्ता के प्रदान द्वारा अर्थशक्ति खड़ी करने से समाज को धारण करनेवाली पूर्णशक्ति का विकास नहीं हो सकता। भारतीय सभ्यता के बीच राजा धर्मशक्तिस्वरूप है, पारस और बाबुल के बादशाहों के समान केवल धनबल और बाहुबल की पराकाष्ठा मात्र नहीं। यहाँ राजा सेवक और सेना के होते हुए भी शरीर से अपने धर्म का पालन करता हुआ दिखाई पड़ता है। यदि प्रजा की पुकार संयोग से उसके कान में पड़ती है, तो वह आप ही रक्षा के लिए दौड़ता है; ज्ञानी महात्माओं को सामने देख सिंहासन छोड़कर खड़ा हो जाता है; प्रतिज्ञा के पालन के लिए शरीर पर अनेक कष्ट झेलता है;स्वदेश की रक्षा के लिए रणक्षेत्रों में सबसे आगे दिखाई पड़ता है; प्रजा के सुख दु:ख में साथी होता है; ईश्वरांश माने जाने पर भी मनुष्यांश नहीं छोड़ता है। वह प्रजा के जीवन से दूर बैठा हुआ, उसमें किसी प्रकार का योग न देनेवाला खिलौना या पुतला नहीं है। प्रजा अपने सब प्रकार के उच्च भावों का-त्याग का, शील का, पराक्रम का, सहिष्णुता का, क्षमा का-प्रतिबिम्ब उसमें देखती है।
राजा के पारिवारिक और व्यावहारिक जीवन को देखने की मजाल प्रजा को थी-देखने की ही नहीं उसपर टीका टिप्पणी करने की भी। राजा अपने पारिवारिक जीवन में भी यदि कोई ऐसी बात पावे जो प्रजा को देखने में अच्छी न लगती हो, तो उसका सुधार आदर्शरक्षा के लिए कर्तव्य माना जाता था। सती सीता के चरित्र पर दोषारोप करनेवाले धोबी का सिर नहीं उड़ाया गया; घोर मानसिक व्यथा सहकर भी उस दोष के परिहार का यत्न किया गया। सारांश यह कि माता, पिता, सेवक और सखा के साथ भी जो व्यवहार राजा का हो, वह ऐसा हो जिसकी उच्चता को देख प्रजा प्रसन्न हो,धन्य धन्य कहे। जिस प्रीति और कृतज्ञता के साथ महाराजा रामचन्द्र ने सुग्रीव, विभीषण और निषाद आदि को विदा किया, उसे देख प्रजा गद-गद हो गई-
रघुपति चरित देखि पुरवासी। पुनि पुनि कहहिं धन्य सुखरासी।।
राजा की शीलशक्ति के प्रभाव के वर्णन में गोस्वामीजी ने कविप्रथा के अनुसार कुछ अतिशयोक्ति भी की ही है-
फूलहिं फलहिं सदा तरु कानन। रहहिं एक सँग गज पंचानन।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई। सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।।
काव्यपद्धति से परिचित इसे पढ़कर कभी यह सवाल नहीं करेंगे कि मृगों का मारना छोड़ सिंह क्या घास खाकर जीते थे।
देखिए, राजकुल की महिलाओं के इस उच्च आदर्श का प्रभाव जनता के पारिवारिक जीवन पर कैसा सुखद पड़ सकता है-
जद्यपि गृह सेवक सेवकिनी। बिपुल सकल सेवा बिधि गुनी।।
निज कर गृहपरिचरजा करई। रामचंद्र आयसु अनुसरई।।
जिस वर्णाश्रम धर्म का पालन प्रजा करती थी, उसमें ऊँचीनीची श्रेणियाँ थीं, उसमें कुछ काम छोटे माने जाते थे, कुछ बड़े। फावड़ा लेकर मिट्टी खोदनेवाले और कलम लेकर वेदान्तसूत्र लिखनेवाले के काम एक ही कोटि के नहीं माने जाते थे। ऐसे दो काम अब भी एक दृष्टि से नहीं देखे जाते। लोकदृष्टि उसमें भेद कर ही लेती है। इस भेद को किसी प्रकार की चिकनी चुपड़ी भाषा या पाखंड नहीं मिटा सकता। इस भेद के रहते भी-
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं भय सोक न रोग।।
छोटे समझे जानेवाले काम करनेवाले बड़े काम करनेवालों को ईर्ष्या और द्वेष की दृष्टि से क्यों नहीं देखते थे। वे यह क्यों नहीं कहते थे कि'हम क्यों फावड़ा चलावें, क्यों दुकान पर बैठें? भूमि के अधिकारी क्यों न बनें? गद्दी लगाकर धर्म सभा में क्यों न बैठें?' समाज को अव्यवस्थित करनेवाले इस भाव को रोकनेवाली पहली बात तो थी समाज के प्रति कर्तव्य के भार का नीची श्रेणियों में जाकर क्रमश: कम होना। ब्राह्मणों और क्षत्रियों को लोकहित के लिए अपने व्यक्तिगत सुख का हर घड़ी त्याग करने के लिए तैयार रहना पड़ता था। ब्राह्मणों को तो सदा अपने व्यक्तिगत सांसारिक सुख की मात्र कम रखनी पड़ती थी। क्षत्रियों को अवसर विशेष पर अपना सर्वस्व-अपने प्राण तक-छोड़ने के लिए उद्यत होना पड़ता था। शेष वर्गों को अपने व्यक्तिगत या पारिवारिक सुख की व्यवस्था के लिए सब अवस्थाओं में पूरा अवकाश रहता था। अत: उच्च वर्ग में अधिक मान या अधिक अधिकार के साथ कठिन कर्तव्यों की योजना और निम्न वर्गों में कम मान और कम सुख के साथ अधिक अवस्थाओं में आराम की योजना जीवननिर्वाह की दृष्टि से सामंजस्य रखती थी।
जबतक उच्च श्रेणियों के कर्तव्य की कठिनता प्रत्यक्ष रहेगी-कठिनता के साक्षात्कार के अवसर आते रहेंगे-तबतक नीची श्रेणियों मेंईर्ष्या द्वेष का भाव नहीं जाग्रत हो सकता। जबतक वे क्षत्रियों को अपने चारों ओर धन जन की रक्षा में तत्पर देखेंगे, ब्राह्मणों को ज्ञान की रक्षा और वृध्दि में सब कुछ त्यागकर लगे हुए पावेंगे, तबतक वे अपना सब कुछ उन्हीं की बदौलत समझेंगे और उनके प्रति उनमें कृतज्ञता, श्रद्धा और मान का भाव बना रहेगा। जब कर्तव्य भाग शिथिल पड़ेगा और अधिकार भाग ज्यों का त्यों रहेगा, तब स्थिति विघातिनी विषमता उत्पन्न होगी। ऊँची श्रेणियों के अधिकार प्रयोग में ही प्रवृत्त होने से नीची श्रेणियों को क्रमश: जीवननिर्वाह में कठिनता दिखाई देगी। वर्णव्यवस्था की छोटाई बड़ाई का यह अभिप्राय नहीं था कि छोटी श्रेणी के लोग दु:ख ही में समय काटें और जीवन के सारे सुभीते बड़ी श्रेणी के लोगों को ही रहें। रामराज्य में सब अपनी स्थिति में प्रसन्न थे-
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।
सब निर्दभ धरमरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।।
सबगुनग्यपंडित सबग्यानी। सब कृतज्ञ नहिं कपट सयानी।।
इतनी बड़ी जनता के पूर्ण सुख की व्यवस्था साधारण परिश्रम का काम नहीं है; पर राजा के लिए वह आवश्यक है-
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।
ऊँची श्रेणियों के कर्तव्य की पुष्ट व्यवस्था न होने से ही यूरोप में नीची श्रेणियों में ईर्ष्याय, द्वेष और अहंकार का प्राबल्य हुआ जिससे लाभ उठाकर 'लेनिन' अपने समय में महात्मा बना रहा। समाज की ऐसी वृत्तियों पर स्थित 'माहात्म्य' का स्वीकार घोर अमंगल का सूचक है। मूर्ख जनता के इस माहात्म्यप्रदान पर न भूलना चाहिए, यह बात गोस्वामीजी साफ साफ कहते हैं-
तुलसी भेड़ी की धाँसनि, जड़ जनता सनमान।
उपजत ही अभिमान भो, खोवत मूढ़ अपान।।
जड़ जनता के सम्मान का पात्र वही होगा जो उसके अनुकूल कार्य करेगा। ऐसा कार्य लोकमंगलकारी कभी नहीं हो सकता। जनता के किसी भाग की दुर्वृत्तियों के सहारे जो व्यवस्था स्थापित होगी, उसमें गुण, शील, कलाकौशल, बल, बुद्धि के असामान्य उत्कर्ष की सम्भावना कभी नहीं रहेगी;प्रतिभा का विकास, कभी नहीं रहेगा। रूस से भारी भारी विद्वानों और गुणियों का भागना इस बात का आभास दे रहा है। अल्प शक्तिवालों की अहंकार वृत्ति को पुष्टा करनेवाला 'साम्य' शब्द ही उत्कर्ष का विरोधी है। उत्कर्ष विशेष परिस्थिति में होता है। परिस्थितिविशेष के अनुरूप किसी वर्ग में विशेषता का प्रादुर्भाव ही उत्कर्ष या विकास कहलाता है, इस बात को आजकल के विकासवादी भी अच्छी तरह जानते हैं। इस उत्कर्ष का विरोधी साम्य जहाँ हो, उसे हमारे यहाँ के लोग 'अंधोर नगरी' कहते आए हैं।
गोस्वामीजी ने कलिकाल का जो चित्र खींचा है, वह उन्हीं के समय का है। उसमें उन्होंने 'साधारण धर्म' और 'विशेष धर्म' दोनों का द्रास दिखाया है। साधारण धर्म के द्रास की निन्दा तो सबको अच्छी लगती है, पर विशेष धर्म के द्रास की निन्दा-समाज व्यवस्था के उल्लंघन की निन्दा-आजकल की अव्यवस्था को अपने महत्तव का द्वार समझनेवाले कुछ लोगों को नहीं सुहाती। वे इन चौपाइयों में तुलसीदासजी की संकीर्णहृदयता देखते हैं-
निराचार जो स्तुतिपथ त्यागी । कलिजुग सोइ ग्यानी बैरागी।।
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना । मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना।।
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा । स्वपच किरात कोल कलवारा।।
नारि मुई घर सम्पति नासी । मूँड़ मुड़ाइ होहि संन्यासी।।
ते बिप्रन सन पाँव पुजावहिं । उभय लोक निज हाथ नसावहिं।।
सूद्र करहिं जप तप व्रत दाना । बैठि बरासन कहहिं पुराना।।
पर इसी प्रसंग में गोस्वामीजी के इस कथन को वे बड़े आनन्द से स्वीकार करते हैं-
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ वृषली स्वामी।।
गोस्वामीजी कट्टर मर्यादावादी थे, यह पहले कहा जा चुका है। मर्यादा का भंग वे लोक के लिए मंगलकारी नहीं समझते थे। मर्यादा का उल्लंघन देखकर ही बलरामजी वरासन पर बैठकर पुराण कहते हुए सूत पर हल लेकर दौड़े थे। शूद्रों के प्रति यदि धर्म और न्याय का पूर्ण पालन किया जाए,तो गोस्वामीजी उनके धर्म को ऐसा कष्टप्रद नहीं समझते थे कि उसे छोड़ना आवश्यक हो। यह पहले कहा जा चुका है कि वर्णविभाग केवल कर्मविभाग नहीं है, भावविभाग भी है। श्रद्धा, भक्ति, दया, क्षमा आदि उदात्त वृत्तियों के नियमित अनुष्ठान और अभ्यास के लिए भी वे समाज में छोटी बड़ी श्रेणियों का विधान आवश्यक समझते थे। इन भावों के लिए आलम्बन ढूँढ़ना एकदम व्यक्ति के ऊपर ही नहीं छोड़ा गया था। इनके आलम्बनों की प्रतिष्ठा समाज ने कर दी थी। समाज में बहुत से ऐसे अनुन्नत अन्त:करण के प्राणी होते हैं, जो इन आलम्बनों को नहीं चुन सकते। अत: उन्हें स्थूल रूप से यह बता दिया गया कि अमुक वर्ग यह कार्य करता है, अत: यह तुम्हारी दया का पात्र है; अमुक वर्ग इस कार्य के लिए नियत है, अत: यह तुम्हारी श्रद्धा का पात्र है। यदि उच्च वर्ग का कोई मनुष्य अपने धर्म से च्युत है, तो उसकी विगर्हणा; उसके शासन और उसके सुधार का भार राज्य के या उसके वर्ग के ऊपर है, निम्न वर्ग के लोगों पर नहीं। अत: लोकमर्यादा की दृष्टि से निम्न वर्ग के लोगों का धर्म यही है कि उसपर श्रद्धा का भाव रखें; न रख सकें तो कम से कम प्रकट करते रहें। इसे गोस्वामीजी का 'सोशल डिसिप्लिन' समझिए। इसी भाव से उन्होंने प्रसिद्ध नीतिज्ञ और लोकव्यवस्थापक चाणक्य का यह वचन-
पतितोऽपि द्विज: श्रेष्ठो न च शूद्रो जितेन्द्रिय:।
अनुवाद करके रख दिया-
पूजिय बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना।।
जिसे कुछ लोग उनका जातीय पक्षपात समझते हैं। जातीय पक्षपात से उस विरक्त महात्मा को क्या मतलब हो सकता है-
लोग कहें पोचु सो न सोचु न सँकोचु मेरे,
ब्याह न बरेखी जाति पाँति न चहत हौं।।
काकभुशुंडि की जन्मान्तरवाली कथा द्वारा गोस्वामीजी ने प्रकट कर दिया है कि लोकमर्यादा और शिष्टता के उल्लंघन को वे कितना बुरा समझते थे। काकभुशुंडि अपने शूद्र जन्म की बात कहते हैं-
एक बार हरि मन्दिर जपत रहेउँ सिव नाम।।
गुरु आएउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम।।
गुरु दयालु नहिं कछु कहेउ उर न रोष लवलेस।।
अति अघ गुरु अपमानता सहि नहिं सके महेस।।
मंदिर माँझ भई नभ बानी। रे हतभाग्य अग्य अभिमानी।।
जद्यपि तव गुरु के नहिं क्रोधा। अति कृपाल उर सम्यक बोधा।।
तदपि साप हठि देइहउँ तोहीं।नीति बिरोध सुहाइ न मोहीं।।
जौ नहिं दंड करौं सठ तोरा।भ्रष्ट होइ स्तुति मारग मोरा।।
श्रुतिप्रतिपादित लोकनीति और समाज के सुख का विधान करनेवाली शिष्टता के ऐसे भारी समर्थक होकर वे अशिष्ट सम्प्रदायों की उच्छृंखलता,बड़ों के प्रति उनकी अवज्ञा चुपचाप कैसे देख सकते थे।
ब्राह्मण और शूद्र, छोटे और बड़े के बीच कैसा व्यवहार वे उचित समझते थे, यह चित्रकूट में वशिष्ठ और निषाद के मिलने में देखिए-
प्रेम पुलकि केवट कहि नामू। कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू।।
रामसखा ऋषि बरबस भेंटा। जनु महि लुठत सनेह समेटा।।
केवट अपनी छोटाई के विचार से वशिष्ठ ऐसे ऋषीश्वर को दूर ही से प्रणाम करता है, पर ऋषि अपने हृदय की उच्चता का परिचय देकर उसे बार बार गले लगाते हैं। वह हटता जाता है, वे उसे 'बरबस' भेंटते हैं। इस उच्चता से किस नीच को द्वेष हो सकता है? यह उच्चता किसे खलनेवाली हो सकती है?
काकभुशुंडिवाले मामले में शिवजी ने शाप देकर लोकमत की रक्षा की और काकभुशुंडि के गुरु ने कुछ न कहकर साधुमत1 का अनुसरण किया। साधुमत का अनुसरण व्यक्तिगत साधन है, लोकमत लोकशासन के लिए है। इन दोनों का सामंजस्य गोस्वामीजी की धर्मभावना के भीतर है। चित्रकूट में भरत की ओर से वशिष्ठजी जब सभा में प्रस्ताव करने उठते हैं, तब राम से कहते हैं-
भरत विनय सादर सुनिय करिय बिचार बहोरि।
करब साधुमत, लोकमत नृपनय निगम निचोरि।।
गोस्वामीजी अपने राम या ईश्वर तक को लोकमत के वशीभूत कहते हैं-
लोक एक भाँति को, त्रिलोकनाथ लोकबस,
आपनो न सोच, स्वामी सोच ही सुखात हौं।।
जब कि दुनिया एक मुँह से तुलसी को बुरा कह रही है तब उन्हें अपनाने का विचार करके राम बड़े असमंजस में पड़ेंगे। तुलसी के राम स्वेच्छाचारी शासक नहीं; वे लोक के वशीभूत हैं क्योंकि लोक भी वास्तव में उन्हीं का व्यक्त विस्तारहै।
अबतक जो कुछ कहा गया, उससे गोस्वामीजी व्यक्तिवाद (इंडिविडुअलिज्म) के विरोधी और लोकवाद (सोशलिज्म) के समर्थक से लगते हैं। व्यक्तिवाद के विरुद्ध ध्वोनि स्थान स्थान पर सुनाई पड़ती है; जैसे-
(क) मारग सोइ जा कहँ जो भावा।
(ख) स्वारथ सहित सनेह सब, रुचि अनुहरत अचार।
पर उनके लोकवाद की भी मर्यादा है। उनका लोकवाद वह लोकवाद नहीं है, जिसका अकांड तांडव रूस में हो रहा है। वे व्यक्ति की स्वतंत्रता का हरण नहीं चाहते जिसमें व्यक्ति इच्छानुसार हाथ पैर भी नहीं हिला सके, अपने श्रम, शक्ति और गुण का अपने लिए कोई फल ही न देख सके। वे व्यक्ति के आचरण का इतना ही प्रतिबन्ध चाहते हैं जितने से दूसरों के जीवनमार्ग में बाधा न पड़े और हृदय की उदात्त वृत्तियों के साथ लौकिक सम्बन्धों का सामंजस्य बना रहे। राजा प्रजा, उच्च नीच, धनी दरिद्र, सबल निर्बल, शास्य शासक, मूर्ख पंडित, पति पत्नी, गुरु
1.उमा सन्त कै इहै बड़ाई। मंद करत जो करहि भलाई।।
शिष्य, पिता पुत्र इत्यादि भेदों के कारण जो अनेकरूपात्मक सम्बन्ध प्रतिष्ठित हैं, उनके निर्वाह के अनुकूल मन (भाव), वचन और कर्म की व्यवस्था ही उनका लक्ष्य है, क्योंकि इन सम्बन्धों के सम्यक् निर्वाह से ही वे सबका कल्याण मानते हैं। इन सम्बन्धों की उपेक्षा करनेवाले व्यक्तिप्राधान्य वाद के वे अवश्य विरोधी हैं।
समाज की इस आदर्श व्यवस्था के बीच स्त्रियों और शूद्रों का स्थान क्या है, आजकल के सुधारक इसका पता लगाना बहुत जरूरी समझेंगे। उन्हें यह जानना चाहिए कि तुलसीदासजी कट्टर मर्यादावादी थे, कार्यक्षेत्रों के प्राचीन विभाग के पूरे समर्थक थे। पुरुषों की अधीनता में रहकर गृहस्थी का कार्य सँभालना ही वे स्त्रियों के लिए बहुत समझते थे। उन्हें घर के बाहर निकालनेवाली स्वतन्त्राता को वे बुरा समझते थे। पर यह भी समझ रखना चाहिए कि 'जिमि स्वतन्त्रा होइ बिगरहिं नारी' कहते समय उनका ध्याचन ऐसी ही स्त्रियों पर था जैसी कि साधारणत: पाई जाती हैं, गार्गी और मैत्रेयी की ओर नहीं। उन्हें गार्गी और मैत्रेयी बनाने की चिन्ता उन्होंने कहीं प्रकट नहीं की है। हाँ, भक्ति का अधिकार जैसे सबको है, वैसे ही उनको भी। मीराबाई को लिखा हुआ जो पद (विनय का) कहा जाता है, उससे प्रकट होता है कि 'भक्तिमार्ग' में सबको उत्साहित करने के लिए वे तैयार रहते थे। इसमें वे किसी बात की रिआयत नहीं रखते थे। रामभक्ति में यदि परिवार या समाज बाधक हो रहा है, तो उसे छोड़ने की राय वे बेधड़क देंगे-पर उन्हीं को जिन्हें भक्तिमार्ग में पक्का समझेंगे। सब स्त्रियाँ घरों से निकलकर वैरागियों की सेवा में लग जाएँ, यह अभिप्राय उनका कदापि नहीं। स्त्रियों के लिए साधारण उपदेश उनका वही समझना चाहिए जो 'ऋषवधू' ने 'सरल मृदु बानी' से सीताजी को दिया था।
उनपर स्त्रियों की निन्दा का महापातक लगाया जाता है; पर यह अपराध उन्होंने अपनी विरति की पुष्टि के लिए किया है। उसे उनका वैरागीपन समझना चाहिए। सब रूपों में स्त्रियों की निन्दा उन्होंने नहीं की है। केवल प्रमदा या कामिनी के रूप में, दाम्पत्य रति के आलम्बन के रूप में, की है-माता, पुत्री, भगिनी आदि के रूप में नहीं। इससे सिद्ध है कि स्त्री जाति के प्रति उन्हें कोई द्वेष नहीं था। अत: उक्त रूप में स्त्रियों की जो निन्दा उन्होंने की है, वह अधिकतर तो अपने ऐसे और विरक्तों के वैराग्य को दृढ़ करने के लिए, और कुछ लोक की अत्यन्त आसक्ति को कम करने के विचार से। उन्होंने प्रत्येक श्रेणी के मनुष्यों के लिए कुछ न कुछ कहा है। उनकी कुछ बातंन तो विरक्त साधुओं के लिए हैं, कुछ साधारण गृहस्थों के लिए, कुछ विद्वानों और पंडितों के लिए। अत: स्त्रियों को जो स्थान स्थान पर बुरा कहा है, उसका ठीक तात्पर्य यह नहीं कि वे सचमुच वैसी ही होती हैं; बल्कि यह मतलब है कि उनमें आसक्त होने से बचने के लिए उन्हें वैसा ही मान लेना चाहिए। किसी वस्तु से विरक्त करना जिसका उद्देश्य है वह अपने उद्देश्य का साधन उसे बुरा कहकर ही कर सकता है। अत: स्त्रियों के सम्बन्ध में गोस्वामीजी ने जो कहा है, वह सिद्धान्त वाक्य नहीं है,अर्थवाद मात्र है। पर उद्दिष्ट प्रभाव उत्पन्न करने के लिए इस युक्ति का अवलम्बन गोस्वामीजी ऐसे उदार और सरल प्रकृति के महात्मा के लिए सर्वथा उचित था, यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि स्त्रियाँ भी मनुष्य हैं-निन्दा से उनका जी दुख सकता है। स्त्रियों से काम उत्पन्न होता है, धन से लोभ उत्पन्न होता है, प्रभुता से मद उत्पन्न होता है, इसलिए काम, मद, लोभ आदि से बचने की उत्तेदजना उत्पन्न करने के लिए वैराग्य का उपदेश देनेवाले कंचन, कामिनी और प्रभुत्व की निन्दा कर दिया करते हैं। बस इसी रीति का पालन बाबाजी ने भी किया है। वे थे तो वैरागी ही। यदि कोई संन्यासिनी अपनी बहिनों को काम, क्रोध आदि से बचने का उपदेश देने बैठे तो पुरुषों को इसी प्रकार 'अपावन' और 'सब अवगुणों की खान' कह सकती है! पुरुषपतंगों के लिए गोस्वामीजी ने स्त्रियों को जिस प्रकार दीपशिखा कहा है, उसी प्रकार स्त्री पतंगियों के लिए वह पुरुषों को भाड़ कहेगी।
सिद्धान्त और अर्थवाद में भेद न समझने के कारण ही गोस्वामीजी की बहुत सी उक्तियों को लेकर लोग परस्पर विरोध आदि दिखाया करते हैं। वे प्रसंग विशेष में कवि के भीतरी उद्देश्य की खोज न करके केवल शब्दार्थ ग्रहण करके तर्कवितर्क करते हैं। जैसे, एक स्थान पर वे कहते हैं-
सठ सुधर्रूह सतसंगति पाई। पारस परसि कुधातु सुहाई।।
फिर दूसरे स्थान पर कहते हैं-
नीच निचाई नहिं तजैं जो पावैं सतसंग।
इनमें से प्रथम उक्ति सत्संग की महिमा हृदयंगम कराने के लिए की गई है और दूसरी उक्ति नीच या शठ की भीषणता दिखाने के लिए। एक का उद्देश्य है सत्संग की स्तुति और दूसरी का दुर्जन की निन्दा। अत: ये दोनों सिद्धान्तरूप में नहीं हैं, अर्थवाद के रूप में हैं। ये पूर्ण सत्य नहीं हैं,आंशिक सत्य हैं, जिनका उल्लेख कवि, उपदेशक आदि प्रभाव उत्पन्न करने के लिए करते हैं। काव्य का उद्देश्य शुद्ध विवेचन द्वारा सिद्धान्त निरूपण नहीं होता, रसोत्पादन या भावसंचार होता है। बुद्धि की क्रिया की कविजन आंशिक सहायता ही लेते हैं।
अब रहे शूद्र। समाज चाहे किसी ढंग का हो, उसमें छोटे काम करनेवाले तथा अपनी स्थिति के अनुसार अल्प विद्या, बुद्धि, शील और शक्ति रखनेवाले कुछ न कुछ रहेंगे ही। ऊँची स्थितिवालों के लिए जिस प्रकार इन छोटी स्थिति के लोगों की रक्षा और सहायता करना तथा उनके साथ कोमल व्यवहार करना आवश्यक है, उसी प्रकार इन छोटी स्थितिवालों के लिए बड़ी स्थितिवालों के प्रति आदर और सम्मान प्रदर्शित करना भी। नीची श्रेणी के लोग अहंकार से उन्मत्ता होकर ऊँची श्रेणी के लोगों का अपमान करने पर उद्यत हों, तो व्यावहारिक दृष्टि से उच्चता किसी काम की न रह जाए। विद्या, बुद्धि, बल, पराक्रम, शील और वैभव यदि अकारण अपमान से कुछ अधिक रक्षा न कर सकें तो उनका सामाजिक मूल्य कुछ भी नहीं। ऊँची नीची श्रेणियाँ समाज में बराबर थीं और बराबर रहेंगी। अत: शूद्र शब्द को नीची श्रेणी के मनुष्य का-कुल, शील, विद्या, बुद्धि, शक्ति आदि सब में अत्यन्त न्यून का-बोधक मानना चाहिए। इतनी न्यूनताओं को अलग अलग न लिखकर वर्णविभाग के आधार पर उन सबके लिए एक शब्द का व्यवहार कर दिया गया है। इस बात को मनुष्य जातियों का अनुसंधान करनेवाले आधुनिक लेखकों ने भी स्वीकार किया है कि वन्य और असभ्य जातियाँ उन्हीं का आदर सम्मान करती हैं जो उनमें भय उत्पन्न कर सकते हैं। यही दशा गँवारों की है। इस बात को गोस्वामीजी ने अपनी चौपाई में कहा है-
ढोल, गँवार, शूद्र, पशु नारी। ये सब ताड़न के अधिकारी।।
जिससे कुछ लोग इतना चिढ़ते हैं। चिढ़ने का कारण है, 'ताड़न' शब्द जो ढोल शब्द के योग में आलंकारिक चमत्कार उत्पन्न करने के लिए लाया गया है। 'स्त्री' का समावेश भी सुरुचिविरुद्ध लगता है, पर वैरागी समझकर उनकी बात का बुरा न मानना चाहिए।