प्रथम संस्करण का वक्तव्य / मलिक मुहम्मद जायसी / रामचन्द्र शुक्ल
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'पद्मावत' हिंदी के सर्वोत्तम प्रबंधकाव्यों में है। ठेठ अवधी भाषा के माधुर्य और भावों की गंभीरता की दृष्टि से यह काव्य निराला है। पर खेद के साथ कहना पड़ता है कि इसके पठनपाठन का मार्ग कठिनाइयों के कारण अब तक बंद सा रहा। एक तो इसकी भाषा पुरानी और ठेठ अवधी, दूसरे भाव भी गूढ़, अत: किसी शुद्ध अच्छे संस्करण के बिना इसके अध्ययन का प्रयास कोई कर भी कैसे सकता था ? पर इसका अध्ययन हिंदी साहित्य की जानकारी के लिए कितना आवश्यक है, यह इसी से अनुमान किया जा सकता है कि इसी के ढाँचे पर 34 वर्ष पीछे गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने लोकप्रसिद्ध ग्रंथ 'रामचरितमानस' की रचना की। यही अवधी भाषा और चौपाई दोहे का क्रम दोनों में है, जो आख्यानकाव्यों के लिए हिंदी में संभवत: पहले से चला आता रहा हो। कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका प्रयोग जायसी और तुलसी को छोड़ और किसी कवि ने नहीं किया है। तुलसी के भाषा के स्वरूप को पूर्णतया समझने के लिए जायसी की भाषा का अध्ययन आवश्यक है।
इस ग्रंथ के चार संस्करण मेरे देखने में आए हैं - एक नवलकिशोर प्रेस का, दूसरा पं. रामजसन मिश्र संपादित काशी के चंद्रप्रभा प्रेस का, तीसरा कानपुर के किसी पुराने प्रेस का फारसी अक्षरों में और म. प. पं. सुधाकर द्विवेदी और डॉक्टर ग्रियर्सन संपादित एशियाटिक सोसाइटी का जो पूरा नहीं, तृतीयांश मात्र है।
इनमें से प्रथम दो संस्करण तो किसी काम के नहीं। एक चौपाई का भी पाठ शुद्ध नहीं, शब्द बिना इस विचार के रखे हुए हैं कि उनका कुछ अर्थ भी हो सकता है या नहीं। कानपुरवाले उर्दू संस्करण को कुछ लोगों ने अच्छा बताया। पर देखने पर वह भी इसी श्रेणी का निकला। उसमें विशेषता केवल इतनी ही है कि चौपाइयों के नीचे अर्थ भी दिया हुआ दिखाई पड़ता है। यह अर्थ भी अटकलपच्चू है किसी मुंशी या मौलवी साहब ने प्रसंग के अनुसार अंदाज से ही लगाया है, शब्दार्थ की ओर ध्यान दे कर नहीं। कुछ नमूने देखिए -
'जायउ नागमती नगसेनहि। ऊँच भाग , ऊँचै दिन रैनहि।' इसका साफ अर्थ यह है कि नागमती ने नागसेन को उत्पन्न किया; उसका भाग्य ऊँचा था और दिन रात ऊँचा ही होता गया। इसके स्थान पर यह विलक्षण अर्थ किया गया है - 'फिर नागमती अपनी सहेलियों को हमराह ले कर बहुत बलंद मकान में बलंदीए बख्त से रहने लगी'। इसी प्रकार 'कवलसेन पदमावती जायउ' का अर्थ लिखा गया है “और पदमावत मिस्ल कवल के थी, अपने मकान में गई”। बस दो नमूने और देखिए -
'फेरत नैन चेरि सौ छूटी। भइ कूटन कुटनी तस कूटी' । इसका ठीक अर्थ यह है कि पद्मावती के दृष्टि फेरते ही सौ दासियाँ छूटीं और उस कुटनी को खूब मारा। पर 'चेरि' को 'चीर' समझकर इसका यह अर्थ किया गया है - 'अगर वह ऑंखें फेर के देखे तो तेरा लहँगा खुल पड़े और जैसी कुटनी है, वैसा ही तुझको कूटे'।
'गढ़ सौंपा बादल, कहँ, गए टिकठि बसि देव' । ठीक अर्थ - चित्तौरगढ़ बादल को सौंपा और टिकठी या अरथी पर बस कर राजा (परलोक) गए।
कानपुर की प्रति में इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है - 'किलअ बादल को सौंपा गया और बासदेव सिधारे”। बस इन्हीं नमूनों से अर्थ का और अर्थ करनेवाले का अन्दाज कर लीजिए। अब रहा चौथा, सुधारक जी और डॉक्टर ग्रियर्सन साहब वाला भड़कीला संस्करण। इसमें सुधारक जी की बड़ी लंबी चौड़ी टीका टिप्पणी लगी हुई है; पर दुर्भाग्य से या सौभाग्य से 'पद्मावत' के तृतीयांश तक ही यह संस्करण पहुँचा। इसकी तड़क भड़क का तो कहना ही क्या है। शब्दार्थ, टीका और इधर उधर के किस्सों और कहानियों से इसका डीलडौल बहुत बड़ा हो गया है। पर टिप्पणियाँ अधिकतर अशुद्ध और टीका स्थान स्थान पर भ्रमपूर्ण है। सुधारक जी में एक गुण यह सुना जाता है कि यदि कोई उनके पास कोई कविता अर्थ पूछने के लिए ले जाता तो वह विमुख नहीं लौटता था। वे खींच तान कर कुछ न कुछ अर्थ लगा ही देते थे। बस, इसी गुण से इस टीका में भी काम लिया गया है। शब्दार्थ में कहीं यह नहीं स्वीकार किया गया है कि इस शब्द से टीकाकार परिचित नहीं। सब शब्दों का कुछ न कुछ अर्थ मौजूद है, चाहे वह अर्थ ठीक हो या न हो। शब्दार्थ के कुछ नमूने देखिए - 1. ताईं = तिन्हें (कीन्ह खंभ दुइ जग के ताईं)। 2. आछहि =अच्छा (बिरिछ जो आछहि चंदन पासा)। 3. ऍंबरउर =आम्रराज, अच्छे जाति का आम या अमरावती। 4. सारउ =सास, दूर्वा, दूब (सारिउ सुआ जो रहचह करहीं)। 5. खड़वानी =गडुवा, झारी। 6. अहूठ = अनुत्थ, न उठने योग्य। 7. कनक कचोरी =कनिक या आटे की कचौड़ी। 8. करसी = कर्षित की, खिंचवाई (सिर करवत, तन करसी बहुत सीझ तेहि आस)।
कहीं - कहीं अर्थ ठीक बैठाने के लिए पाठ भी विकृत कर दिया गया है, जैसे, 'कतहु चिरहटा पंखिन्ह लावा' का 'कतहु छरहठा पेखन्ह लावा' कर दिया गया है और 'छरहटा' का अर्थ किया गया है 'क्षार लगानेवाले' 'नकल करनेवाले'। जहाँ 'गथ' शब्द आया है (जिसे हिंदी कविता का साधारण ज्ञान रखनेवाले भी जानते हैं) वहाँ 'गंठि' कर दिया गया है। इसी प्रकार 'अरकाना' (अटकाने दौलत अर्थात् सरदार या उमरा) 'अरगाना' कर के 'अलग होना' अर्थ किया गया है।
स्थान स्थान पर शब्दों की व्युत्पत्ति भी दी हुई मिलती है जिसका न दिया जाना ही अच्छा था। उदाहरण के लिए दो शब्द ही काफी है - पउनारि - पयोनाली, कमल की डंडी।
अहुठ - अनुत्थ, न उठने योग्य।
'पौनार' शब्द की ठीक व्युत्पत्ति इस प्रकार है - सं. पि+नाल = प्रा.पउम्+नाल= हिं., पउनाड़ या पौनार। इसी प्रकार अहुठ =सं. अर्धचतुर1
प्रा. अज्हुट्ठ, अहवे =हिं. अहुठ (साढ़े तीन, 'हूँठा' शब्द इसी से बना है)।
शब्दार्थों से ही टीका का अनुमान भी किया जा सकता है, फिर भी मनोरंजन के लिए कुछ पद्यों की टीका नीचे दी जाती है - 1. अहुठ हाथ तन सरवर, हिया कवल तेहि माँझ।
सुधाकरी अर्थ - राजा कहता है कि (मेरा) हाथ तो अहुठ अर्थात् शक्ति के लग जाने से सामर्थ्यहीन हो कर बेकाम हो गया और (मेरा) तनु सरोवर है जिसके हृदय मध्यह अर्थात् बीच में कमल अर्थात् पद्मावती बसी हुई है। ठीक अर्थ - साढ़े तीन हाथ का शरीर रूपी सरोवर है जिसके मध्य में हृदय रूपी कमल है।
2. हिया थार कुच कंचन लारू। कनक कचोरि उठे जनु चारू।
सुधाकरी अर्थ - हृदय थार में कुच कंचन का लड्डू है। (अथवा) जानों बल कर के कनिक (आटे) की कचौरी उठती है अर्थात् फूल रही है (चक्राकार उठते हुए स्तन कराही में फूलती हुई बदामी रंग की, कचौरी से जान पड़ते हैं)। ठीक अर्थ - मानो सोने के सुंदर कटोरे उठे हुए (औंधे) हैं।
1. एक शब्द 'अध्युसष्ट ' भी मिलता है पर वह केवल प्राकृत 'अवझुट्ठ' की व्युत्पत्ति के लिए गढ़ा हुआ जान पड़ता है।
3. धानुक आप, बेझ जग कीन्हा। 'बेझ का अर्थ ज्ञात न होने के कारण आपने 'बोझ' पाठ कर दिया और इस प्रकार टीका कर दी - सुधाकरी अर्थ - आप धानुक अर्थात् अहेरी हो कर जग (के प्राणी) के बोझ कर लिया अर्थात् जगत के प्राणियों को भ्रूधनु और कटाक्षबाण से मार कर उन प्राणियों का बोझा अर्थात् ढेर कर दिया।
ठीक अर्थ - आप धनुर्धर हैं और सारे जगत को वेध्य सा लक्ष्य किया है।
4. नैहर चाह न पाउब जहाँ। सुधाकरी अर्थ - जहाँ हम लोग नैहर (जाने) की इच्छा (तक) न करने पावेंगी। ('पाउब' के स्थान पर 'पाउबि' पाठ रखा गया है, शायद स्त्रीलिंग के विचार से। पर अवधी में उत्तमपुरुष बहुवचन में स्त्री. पुं. दोनों में एक ही रूप रहता है)। ठीक अर्थ - जहाँ नैहर (मायके) के खबर तक हम न पाएँगी।
5. चलौं पउनि सब गोहने फूल डार लेइ हाथ।
सुधाकरी अर्थ - सब हवा ऐसी या पवित्र हाथ में फूलों की डालियाँ ले ले कर चलीं।
ठीक अर्थ - सब पौनी (इनाम आदि पानेवाली) प्रजा - नाइन, बारिन आदि - फूलों की डालियाँ ले कर साथ चलीं।
इसी प्रकार की भूलों से टीका भरी हुई है। टीका का नाम रखा गया है 'सुधाकर - चंद्रिका'। पर यह चंद्रिका है कि घोर अंधकार? अच्छा हुआ कि एशियाटिक सोसाइटी ने थोड़ा-सा निकाल कर ही छोड़ दिया।
सारांश यह कि इस प्राचीन मनोहर ग्रंथ का कोई अच्छा संस्करण अब तक न था और हिंदी प्रेमियों की रुचि अपने साहित्य के सम्यक् अध्ययन की ओर दिन-दिन बढ़ रही थी। आठ नौ वर्ष हुए, काशी नागरीप्रचारिणी सभा ने अपनी 'मनोरंजन पुस्तकमाला' के लिए मुझसे 'पद्मावत' का एक संक्षिप्त संस्करण शब्दार्थ और टिप्पणी सहित तैयार करने के लिए कहा था। मैंने आधे के लगभग ग्रंथ तैयार भी किया था। पर पीछे यह निश्चय हुआ कि जायसी के दोनों ग्रंथ पूरे निकाले जायँ। अत: 'पद्मावत' की वह अधूरी तैयार की हुई कापी बहुत दिनों तक पड़ी रही।
इधर जब विश्वविद्यालयों में हिंदी का प्रवेश हुआ और हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी साहित्य भी परीक्षा के वैकल्पिक विषयों में रखा गया, तब तो जायसी का एक शुद्ध उत्तम संस्करण निकालना अनिवार्य हो गया क्योंकि बी.ए. और एम.ए. दोनों की परीक्षाओं में पद्मावत रखी गई। पढ़ाई प्रारम्भ हो चुकी थी और पुस्तक के बिना हर्ज हो रहा था; इससे यह निश्चय किया गया कि समग्र ग्रंथ एकबारगी निकालने में देर होगी; अत: उसके छह-छह फार्म के खंड कर के निकाले जायँ जिससे छात्रों का काम भी चलता रहे। कार्तिक संवत् 1980 से इन खंडों का निकलना प्रारंभ हो गया। चार खंडों में 'पद्मावत' और 'अखरावट' दोनों पुस्तकें समाप्त हुईं।
'पद्मावत' की चार छपी प्रतियों के अतिरिक्त मेरे पास कैथी लिपि में लिखी एक हस्तलिखित प्रति भी थी जिससे पाठ के निश्चय करने में कुछ सहायता मिली। पाठ के संबंध में यह कह देना आवश्यक है कि वह अवधी व्याकरण और उच्चारण तथा भाषाविकास के अनुसार रखा गया है। एशियाटिक सोसाइटी की प्रति में 'ए' और 'औ' इन अक्षरों का व्यवहार नहीं हुआ है : इनके स्थान पर 'अइ' और 'अउ' प्रयुक्त हुए हैं। इस विधान में प्राकृत की पुरानी पद्धति का अनुसरण चाहे हो, पर उच्चारण की उस आगे बढ़ी हुई अवस्था का पता नहीं लगता जिसे हमारी भाषा, जायसी और तुलसी के समय में प्राप्त कर चुकी थी। उस समय चलती भाषा में 'अइ' और 'अउ' के 'अ' और 'इ' तथा 'अ' और 'उ' पृथक्-पृथक् स्फुट उच्चारण नहीं रह गए थे, दोनों स्वर मिल कर 'ए' और 'औ' के समान उच्चरित होने लगे थे। प्राकृत के 'दैत्यादिष्वइ' और 'पौरादिष्वउ' सब दिन के लिए स्थायी नहीं हो सकते थे। प्राकृत और अपभ्रंश अवस्था पार करने पर उलटी गंगा बही। प्राकृत के 'अइ' और 'अउ' के स्थान पर 'ए' और 'औ' उच्चारण में आए - जैसे प्राकृत और अपभ्रंश रूप 'चलइ', 'पइट्ठ', 'कइसे', 'चउक्कोण' इत्यादि हमारी भाषा में आ कर 'चलै', पैठ, 'कैसे', 'चौकोन' इस प्रकार बोले जाने लगे। यदि कहिए कि इनका उच्चारण आजकल तो ऐसा होता है पर जायसी बहुत पुराने हैं, संभवत: उस समय इनका उच्चारण प्राकृत के अनुसार ही होता रहा हो, तो इसका उत्तर यह है कि अभी तुलसीदास जी के थोड़े ही दिनों पीछे की लिखी 'मानस' की कुछ पुरानी प्रतियाँ मौजूद हैं जिनमें बराबर 'कैसे', 'जैसे', 'तैसे', 'कै', 'करै', 'चौथे', 'करौं', 'आवौं' इत्यादि अवधी की चलती भाषा के रूप पाए जाते हैं। जायसी और तुलसी ने चलती भाषा में रचना की है, प्राकृत के समान व्याकरण के अनुसार गढ़ी हुई भाषा में नहीं। यह दूसरी बात है कि प्राचीन रूपों का व्यवहार परंपरा के विचार से उन्होंने बहुत जगह किया है, पर भाषा उनकी प्रचलित भाषा ही है।
डॉक्टर ग्रियर्सन ने 'करइ', 'चलइ', आदि रूपों को ही कविप्रयुक्त सिद्ध करने के लिए 'करई', 'धावई' आदि चरण के अंत में आने वाले रूपों का प्रमाण दिया है। पर 'चलै', 'गनै' आदि रूप भी चरण के अंत में बराबर आए हैं जैसे -
क. इहै बहुत जो बोहित पावौं। - जायसी। ख. रघुबीर बल गर्वित वीभीषनु घाल नहिं ताकहँ गनै। - तुलसी।
चरणांत में ही नहीं, वर्णवृत्तों के बीच में भी ये चलते रूप बराबर दिखाए जा सकते हैं जैसे -
एक एक की न सँभार। करै तात भ्रात पुकार - तुलसी जब एक ही कवि की रचना में नए और पुराने दोनों रूपों का प्रयोग मिलता है, तब यह निश्चित है कि नए रूप का प्रचार कवि के समय में हो गया था और पुराने रूप का प्रयोग या तो उसने छंद की आवश्यकतावश किया है अथवा परंपरापालन के लिए।
हाँ, 'ए' और 'औ' के संबंध में ध्यान रखने की बात यह है कि इनके 'पूरबी' और 'पच्छिमी' दो प्रकार के उच्चारण होते हैं। पूरबी उच्चारण संस्कृत के समान 'अइ' और 'अउ' से मिलता - जुलता और पच्छिमी उच्चारण 'अय' और 'अव' से मिलता जुलता होता है। अवधी भाषा में शब्द के आदि के 'ए' और 'औ' का अधिकतर पूरबी तथा अंत में पड़नेवाले 'ए' 'औ' का उच्चारण पच्छिमी ढंग पर होता है।
'हि' विभक्ति का प्रयोग प्राचीन पद्धति के अनुसार जायसी में सब कारकों के लिए मिलेगा। पर कर्ता कारक में केवल सकर्मक भूतकालिक क्रिया के सर्वनाम कर्ता के तथा अकारांत संज्ञा कर्ता में मिलता है। इन दोनों स्थलों में मैंने प्राय: वैकल्पिक रूप 'इ' (जो 'हि' का ही विकार है) रखा है, जैसे केइ, जेइ, तेइ, राजै, सूए, गौरे, (किसने, जिसने, उसने, राजा ने, सूए ने, गौरा ने)। इसी 'हि' विभक्ति का ही दूसरा रूप 'ह' है जो सर्वनामों के अंतिम वर्ण के साथ संयुक्त हो कर प्राय: सब कारकों में आया है। अत: जहाँ कहीं 'हम्ह' 'तुम्ह', 'तिन्ह' या 'उन्ह' हो वहाँ यह समझना चाहिए कि यह सर्वनाम कर्ता के अतिरिक्त किसी और कारक में है - जैसे हम्म, हमको, हमसे, हमारा, हममें, हम पर। संबंधवाचक सर्वनाम के लिए 'जो' रखा गया है तथा यदि या जब के अर्थ में अव्यय रूप 'जौ'।
प्रत्येक पृष्ठ में असाधारण या कठिन शब्दों, वाक्यों और कहीं चरणों में अर्थ फुटनोट में बराबर दिए गए हैं जिससे पाठकों को बहुत सुबीता होगा। इसके अतिरिक्त 'मलिक मुहम्मद जायसी' पर एक विस्तृत निबंध भी ग्रंथारंभ के पहले लगा दिया गया है जिसमें कवि की विशेषताओं के अन्वेषण और गुणदोषों के विवेचन का प्रयत्न अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार किया है।
अपने वक्तव्य में 'पद्मावत' के संस्करणों का मैंने जो उल्लेख किया है, वह केवल कार्य की कठिनता का अनुमान कराने के लिए। कभी कभी किसी चौपाई का पाठ और अर्थ निश्चित करने में कई दिनों का समय लग गया है। झंझट का एक बड़ा कारण यह भी था कि जायसी के ग्रंथ बहुतों ने फारसी लिपि में उतारे। फिर उन्हें सामने रख कर बहुत सी प्रतियाँ हिंदी अक्षरों में तैयार हुईं। इससे एक ही शब्द को किसी ने एक रूप में पढ़ा, किसी ने दूसरे रूप में। अत: मुझे बहुत स्थलों पर इस प्रक्रिया से काम लेना पड़ा है कि अमुक शब्द फारसी अक्षरों में लिख जाने पर कितने प्रकार से पढ़ा जा सकता है। काव्य भाषा के प्राचीन स्वरूप पर भी पूरा ध्यान रखना पड़ा है। जायसी की रचना में भिन्न भिन्न तत्त्वसिद्धांतों के आभास को समझने के लिए दूर तक दृष्टि दौड़ाने की आवश्यकता थी। इतनी बड़ी-बड़ी कठिनाइयों को बिना धोखा खाए पार करना मेरे ऐसे अल्पज्ञ और आलसी के लिए असंभव ही समझिए।
अत: न जाने कितनी भूलें मुझसे इस कार्य में हुई होंगी, जिनके संबंध में सिवाय इसके कि मैं क्षमा माँगू और उदार पाठक क्षमा करें, और हो ही क्या सकता है?
- रामचंद्र शुक्ल
कृष्ण जन्माष्टमी
संवत् 1981
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