प्रभा खेतान का कर्तृत्व / कृष्णा जाखड़
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प्रभा खेतान का कर्तृत्व :
प्रभा खेतान ने व्यवसाय की व्यवस्तताओं के बीच भी पूरी लगन से लिखा और सिर्फ लिखा ही नहीं अपितु साहित्य जगत में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान भी बनाया। छोटी-सी कविता से शुरू हुआ प्रभा का साहित्यिक सफर उत्कृष्टता के साथ लेखन की ऊंचाईयों को स्पर्श करने वाला रहा। आत्मा की आवाज पर लिखे काव्य और कथा संसार के साथ ही बौद्धिक धरातल पर लिखा गया चिंतनपरक-शोधपरक साहित्य प्रभा को हिन्दी-जगत में अमरता की ओर ले गया।
विषय सूची
प्रभा का रचना संसार
प्रभा खेतान ने हिन्दी में ६ कविता पुस्तकें, ६ उपन्यास, २ उपन्यासिका, ५ चिंतनपरक और शोधपरक पुस्तकें तथा 'अन्या से अनन्या` नाम से आत्मकथा लिखीं।
२ पुस्तकों के अनुवाद के अलावा 'एक और पहचान` नामक पुस्तक का संपादन किया। 'पितृसत्ता के नये रूप` नामक पुस्तक का प्रभा ने राजेन्द्र यादव व अभय कुमार दुबे के साथ सह-संपादन भी किया।
प्रभा खेतान के अनेक फुटकर आलेखों का प्रकाशन भी हुआ। मासिक 'हंस` के मार्च, २००१ महिला विशेषांक का अतिथि संपादन किया।
प्रकाशित कृतियों का संक्षिप्त परिचय :
सृजित काव्य-संसार-
अपरिचित उजाले
यह प्रभा के टूटते-जुड़ते भावों को पूर्णाभिव्यक्ति देता हुआ प्रथम काव्य संग्रह है। यह संग्रह सन् १९८१ में अक्षर प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ। संग्रह में कुल ६४ कविताएं हैं जिनका मूल स्वर प्रेम है।
कवयित्री कभी प्यार की सफलता का उल्लास तो कभी प्यार की असफलता की कसक का गहरा दर्द व्यक्त करती हैं। उनको पता है प्यार का मार्ग बड़ा ही कठिनाईयों भरा होता है फिर भी आकर्षित करता है, तभी तो उनके अंदर की मासूम लड़की बाहर निकलकर प्यार के सागर में उतर अपने-आप को भुला देती है-
सहसा मुझसे निकलकर
एक लड़की छलांग लगा जाती
लहरों के बीच,
तैरती चली जाती दूर आसमानों तक``
प्यार सायास नहीं किया जाता और ना ही योजनाबद्ध तरीके से निभाया जा सकता, वह तो चुपके-से दिल के किसी कोने में अपने होने की दस्तक देता है। प्रेम दुनियावाले करने नहीं दिया करते हैं, वो प्रेमियों की राहों में कांटे बिछा देते हैं, परंतु प्रेमी इनसे कब डरा करते हैं। तभी तो प्रभा कहती हैं-
तुम जानते हो
मैंने तुम्हें प्यार किया है
साहस और निडरता से
मैं उन सबके सामने खड़ी हूं
जिनकी आंखें
हमारे संबंधों पर
प्रश्नवाचक मक्खियों की तरह
मंडराती है।``
इंतजार के लम्बे क्षणों के बाद प्रेमी के आने की आशा कभी बनी रहती है तो कभी टूट जाती है। प्रतीक्षा की अधिकता कभी क्षुब्ध भी कर जाती है और लेखिका उसे अपनी कविता में व्यक्त करती हैं-
आखिर कब तक लटकी रहूं
सारी-सारी शाम
सूखते कपड़ों-सी बरामदे में
प्रतीक्षा करूं तुम्हारे आने की
एक क्षण से
दूसरे क्षण तक।``
कहीं जीवन की व्यवस्ताओं में उलझी प्रभा अपने से बाहर नहीं झांकना चाहती तो कहीं फुनगी पर बैठी चिड़िया और नीचे भिखारिन के व्यवसाय से समाज की असमानता को दर्शाती हैं। इन कविताओं में प्रभा ने पुरुष की सनातनी सोच को बड़े मार्मिक शब्दों में व्यक्त किया है-
तुम चाहते हो
मैं बनूं तुम्हारे ड्राइंग रूम का कालीन
पर्दे, सोफा;या बैड-कवर
फैली रहूं बिस्तर पर।``
सदियों से चूल्हे-चौके में सीझती हुई स्त्री पति की खुशी में ही अपनी दुनियां ढूंढ़ती है, अपनी तो उसे सुध ही नहीं रहती। सरल से शब्दों में प्रभा स्त्री की पीड़ा व्यक्त करती हैं-
चूल्हा सुलगाया
रोटियां पका-एक खुशनुमा दिन
बंद कर दिया
पति के टिफिन-बक्स में।``
मां के प्यार के लिए तरसता हुआ प्रभा का बचपन बीत गया परंतु उसकी टीस मन में कहीं गहरे उठती रहती है, तभी तो उनकी रचनाओं में अक्सर मां का जिक्र हो जाता है। प्रभा के शब्दों में यही पीड़ा व्यक्त हो रही है-
मां, याद मत करो
कुछ भी,बस, मेरे साथ रहो।``
मां के साथ बैठकर सुख का जो अनुभव होता है उसे भी प्रभा व्यक्त करती हैं-
मां-बेटी बातें करने में मग्न
ढेर सारे बिखरे धागों को समेटते हुए
स्वेटर बुना जा रहा।``
कतरा-कतरा जुड़ती हुई प्रभा कभी टूटकर बिखर जाती हैं तो कभी सम्भलकर सिर्फ अपने लिए जीती हैं। ढेरों व्यवस्तताओं में कभी अपने लिए जीना जानती हैं, तभी तो लिखती हैं-
मेरे हैं एक नहीं, तीन मन
एक कविता लिखता है
एक प्यार करता है
और एक केवल
अपने लिए जीता है।``
परिस्थितियों में पिसता हुआ इंसान पल-पल मर रहा है और उसका जिम्मेदार कोई एक कारण नहीं दुनियां की सभी व्यवस्थाएं उसे मार रही हैं। 'वह आदमी मर गया` कविता में प्रभा इसी को व्यक्त करती हैं-
किसने मारा उसको?
बचपन में
स्कूल ने, शिक्षक ने, शास्त्रीय संगीत ने
और अब यह व्यवस्था-पूंजीवाद,
समाजवाद सबने।``
प्रभा खेतान का यह कविता संग्रह प्रेम की प्रधानता के साथ विषय की विविधता को लिए हुए है। पूरे संग्रह में लेखिका स्वयं के जीवन के साथ आस-पास के परिवेश को कविताएं व्यक्त करती नजर आती हैं।
सीढ़ियां चढ़ती हुई मैं :
एक और आकाश की खोज में :
कृष्णधर्मा मैं
सन् १९८६ में स्वर समवेत, कलकत्ता से प्रकाशित प्रभा की 'कृष्णधर्मा मैं` एक लम्बी कविता है। यह प्रभा का चौथा कविता संग्रह है जो कि उनकी मानसिक परिपक्वता को दर्शाता है।
कविता किसी इच्छा के साथ नहीं लिखी जाती और न ही उत्पन्न की जाती, उसके बीज तो हृद्य के किसी कोने में स्वत: निर्मित होते हैं और वहीं अंकुरित होकर बाहर आने को आतुर होते हैं। 'कृष्णधर्मा मैं` की भूमिका में प्रभा लिखती हैं-
यह कविता खुद-ब-खुद टुकड़े-टुकड़े में कलम के सहारे कागज पर उतरती चली गई। किसी महत्ती प्रेरणा के रूप में नहीं, यह कोई अमूर्त धारणा भी नहीं थी! यह तो अपने समूचे अस्तित्व के साथ सफेद कागज पर उभरती हुई एक बिल्कुल ठोस कविता थी।``
इस कविता में प्रभा ने कृष्ण के मिथक को ग्रहण किया है और खुद कृष्णमय होकर कविता के पन्नों पर उभरी हैं। कृष्ण ने इतिहास पुरुष बनने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति को अंगीकार किया और महाभारत युद्ध का स्वरूप ही परिवर्तित कर दिया था। प्रभा मनुष्य जीवन को भी महाभारत के समान ही मानती है और इस जीवन में विशेष उपलब्धियां हासिल करने के लिए कृष्ण की सभी नीतियों को अपनाने के पक्ष में हैं।
प्रभा इतिहास के निर्माण में अपनी साझेदारी कृष्ण के बराबर की मानती हैं-
तुम कौन कृष्ण और मैं कौन
तुम्हारी विराट् चेतना
और मेरी व्यक्ति चेतना
इतिहास तो हमारे साझे का क्षेत्र है``
भगवान कभी जन्म नहीं लेता, मानव ही अपने कर्म से भगवान बन जाता है। कृष्ण भी केलिकुंजों से लेकर महाभारत तक की अपनी लीलाओं से विराट बन पाए। मगर फिर भी मनुष्य होने की पीड़ा तो कृष्ण को भी सहनी पड़ी। तभी तो प्रभा लिखती हैं-
जानती हूं
अकेले तुम कहीं नहीं पहुंचोगे
कृष्ण!लेते रहोयुगोंऱ्युगों तक अवतार
अकेले तुम बना नहीं सकते
आदमी को देवताबार-बार बनकर
एक अदना आदमी
तुम्हें भी भोगना पड़ता
आदमी होने का दर्द।``
इस युग में भी चक्रव्यूहों में अभिमन्यु छल-कपट से मारे जाते हैं। व्यावसायिक जगत में प्रभा ने खुद इन परिस्थितियों को झेला, तभी तो-
लगातार छटपटाती रही
अभिमन्यु की तरह
बिंधती हुई
ईर्ष्या-द्वेष के बाणों से
हत्या व्यवसायी
शत्रुओं के घातों-प्रतिघातों से
मारी जाती रही युद्धरत।``
द्वापर से लेकर आजतक, कृष्ण से कवयित्री तक अहंकार ने मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ा और वो समय-समय पर मनुष्य के अंदर उगता रहता है तथा पूर्ण अस्तित्व के साथ आत्मा जाग उठती है 'मैं हूं` का भाव सामने आता है। कृष्ण की स्थापित की हुई इस नींव के लिए प्रभा कहती हैं-
क्या करूं अपने इस अहंकार का?
क्या करूं अपनी इस आत्मनिष्ठा का?
कहां विसर्जित कर दूं
तुम्हारी रची इस व्यवस्था में
बार-बार सिर उठाते पहचान बताने के लिये
आकुल अहं को?``
कर्म में लीन व्यक्ति ही महान् बन पाता है। अपनी सृजनधर्मिता से अपना अस्तित्व स्थापित कर पाता है। कृष्ण ने शायद इसीलिए कर्तव्य-विमुख अर्जुन को कर्म का उपदेश दिया था और उसी निष्काम कर्म के उपदेश से आजतक मानव प्रेरणा पाता आया है। विसंगतियों भरे जीवन में प्रभा ने कभी हार नहीं मानी और हमेशा कर्मरत रहीं। प्रभा लिखती हैं-
कैसे झुठला पाऊं मैं
बार-बार कचोटते स्मृति-संदर्भों को
जिनसे मिलती रही
तमाम प्रतिकुलताओं से जूझ पाने की शक्ति
खुलती रही जिनसे
विरक्तियों के जंगल से गुजरकर
सृजनधर्मी आसक्तियों की राह।``
प्रभा लिखती हैं कि महाभारत की सी दुष्टात्माएं अब भी इस जगत में अपना अस्तित्व बार-बार बना लेती है। पूरी ताकत के साथ बुराइयां अपना सिर उठाती हैं मगर उनसे हार मानने की प्रेरणा कृष्ण से हमें नहीं मिलती, वो तो पूर्ण निष्ठा के साथ इनका सामना करने के लिए हमें जागृत करता है। प्रभा के शब्दों में-
जागता है
यन्त्रणाओं का एक पूरा नर्क
कहीं दु:शासन कहीं दुर्योधन
कहीं अंधा धृतराष्ट्र
आदमियत के खिलाफ खड़े
हत्यारों की पूरी जमात।``
प्रभा कृष्ण को कहीं अपने अंदर ही महसूस करती हैं तभी तो वो स्वयं को कृष्णधर्मा कह पाईं हैं। महाभारत का सिलसिला निरंतर है, प्रभा कहीं भी घबराती नहीं वे तो डटकर मुकाबला करने को तैयार हैं क्योंकि कृष्णधर्म को अपनाकर ऊंचाइयों को छूने का निश्चय वो कर चुकी हैं। प्रभा लिखती हैं-
न वरण करूंगी दैन्य
न वरण करूंगी पलायन
पहुंचना है मुझे भी
तुम्हारी ऊंचाइयों तक
चूमना है मुझे भी
तुम्हारे धर्म का शिखर।``
हुस्नाबानो और अन्य कविताएं
अपने ईद-गिर्द फैली सामाजिक समस्याओं को कविता में उकेरते हुए प्रभा का 'हुस्नाबानो और अन्य कविताएं` संग्रह विषय की विविधता लिए हुए है। सन् १९८७ में स्वर समवेत, कलकत्ता से प्रकाशित यह संग्रह प्रभा की सामाजिक संवेदनाओं का प्रकटीकरण है। पेट की भूख से शुरू होती हुई कविता आतंकवाद की जटिल समस्या तक आते-आते बौद्धिक स्तर पर पाठक के सामने अनेकों सवाल खड़े करती हैं।
प्रभा की इन कविताओं में जहां गरीब भूख की आग में जल रहा है वहीं अमीर अशांति के जहर से तड़प रहा है। गरीब को हर समय रोटी की चिंता है और प्रभा रोटी के लिए भागते व्यक्ति को कुछ इस प्रकार दर्शाती हैं-
हर आदमी का चेहरा
तवे पर सिंकती हुई रोटी
हर आदमी की पलकों पर
चिपकी हुई
रोटी।``
संग्रह की शीर्षक कविता में गरीब के जुड़ते-टूटते सपनों का बड़ा ही मार्मिक वर्णन हुआ है। हुस्ना घर का सपना देखती है, उसे हर जगह एक छोटा-सा घर ही नजर आता है- मां के पेट में, मैले कपड़ों के ढेर में छिपकली के मुंह में मगर उसका घर नहीं बन पाता। बस वह सपने जोड़ती है मगर सपने रह नहीं पाते और उसके हाथों से फिसल जाते हैं। प्रभा की अभिव्यक्ति-
रो मत हुस्ना!
सपने झरा करते
दिन-रात।``
मिसेज गुप्ता जहां अपने अकेलेपन से, अपनी तन्हाई से परेशान है वहीं रत्ना की मालकिन व्यवस्तता की वजह से कुंठित होती जा रही है। अकेलेपन से थकी हुई मिसेज गुप्ता एक ऐसा दोस्त चाहती है जो उसकी भावनाओं को समझ सके। रत्ना की मालकिन के बेटे को मां-बाप का प्यार नहीं मिल पाता, वह सभी सुविधाओं के बीच प्यार खोजता है वहीं रत्ना अपने बच्चे के लिए सुविधाओं के सपने देखती है।
शाहबानों के सवाल हों या गायत्री मंत्र या फिर जंगल में अंकुरित होता हुआ बीज, बादलों में नीचे गिरने के लिए आतुर बूंद, मंजिल तक ले जाती हुई सड़क, जाला बुनता हुआ मकड़ा सभी को शब्दों में पिरोया गया है। इन कविताओं में बड़े ही करीने से जड़े हुए शब्द हर विषय के दर्द को कह रहे हैं।
प्यार के सपने देखने वाली लड़की दुल्हन बनकर जाते ही घर को सजाने-संवारने में अपने-आप को ही भूल जाती है और प्यार के सपने कहीं खो जाते हैं। ऐसी ही दुल्हनों को रोज सजाती हुई जेनी कभी अपने लिए प्यार के सपने नहीं देख पाती क्योंकि वो जानती है ये सपने कहीं खो जाने हैं, वह अपने काम में व्यस्त है। प्रभा लिखती हैं-
बहुत व्यस्त है जेनी
लगन के दिन बहुत कमाती
जेनी को पता है
कहानी का अंत।``
और
झर जायेंगे एक दिन
जेनी के भीतर गाती
चिड़िया के सारे पंख।``
अपने-आप से बाहर निकलकर दुनियां के यर्थाथ धरातल पर लिखी गई इन कविताओं के बारे में आलोचक-समीक्षक परमानंद श्रीवास्तव लिखते हैंं-
हुस्नाबानों और अन्य कविताएं में संकलित प्रभा खेतान की कविताएं व्यक्ति के निजत्व के बाहर अपने समय और समाज की वास्तविकता से व्यग्र बेचैन साक्षात का ही परिणाम कही जा सकती हैं। यह अचानक नहीं हुआ है और महज रचनात्मक महत्वाकांक्षा के कारण ही नहीं हुआ है।``
अहल्या
'कृष्णधर्मा मैं` की तर्ज पर प्रभा का 'अहल्या` काव्य संग्रह गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या का मिथक ग्रहण कर रचा गया है। सन् १९८८ में सरस्वती विहार, दिल्ली से प्रकाशित यह लम्बी कविता जहां प्रभा की बौद्धिकता और सम्वेदना को एक साथ व्यक्त करती है वहीं स्त्री जागृति के पैरोकारों में प्रभा का महत्त्वपूर्ण स्थान निर्धारित भी करती है।
प्रभा कहती हैं कि सदियों से स्त्री जाति का प्रतिनिधित्व अहल्या करती आई है। स्त्री आज भी मुक्त कहां हो पाई है। हमेशा पुरुष से छली गई लेकिन फिर भी पुरुष की नियति को नहीं पहचान पाई। अपनी मुक्ति की आशा आज भी पुरुष से लगाए बैठी है और ऐसी परिस्थितियों में प्रभा खेतान का नारीवादी चिंतन कह उठता है-
लौट आओ
पथरीली गहराइयों से
निकल आओ
समाधि के अंधेरे से!
आवाज दो,
पत्थर हुई आत्मा को!``
स्त्री के उत्पीड़न मंे अहल्या से लेकर आज तक कोई बदलाव नहीं है। आज भी वह गौतम के शाप से ग्रसित, अपने मुक्तिदाता का इंतजार कर रही है। स्त्री को कोई चुपचाप मुक्ति नहीं दे देगा, वह तो उसे स्वयं खोजनी होगी। अपनी मुक्ति पाने स्त्री स्वयं सक्षम है और यही प्रभा लिखती हैं-
उठो
मेरे साथ
मेरी बह!
छोड़ दो,
किसी और से मिली
मुक्ति को मोह!
तोड़ दो, शापग्रस्तता की कारा
तुम अपना उत्तर स्वयं हो अहल्या!
ग्रहण करो,
वरण की स्वतंत्रता।``
उधार की दी हुई मुक्ति से स्त्री मुक्त नहीं हो पाती बल्कि जाल में अधिक जकड़ जाती है। प्रभा मानती है कि स्वयं के प्रयासों से मिली मुक्ति ही सुखदायक होती है-
मुक्ति मिली कहां मुझे? क्या किसी और के देने से मुक्ति मिल जाती है? मैं आज भी अपने को खोज रही हूं। आज भी अपनी पत्थर होती चेतना से पूछती हूं अपना अपराध। तेरी जैसी हजारों-लाखों को क्यों आज भी इसी त्रासदी से बार-बार गुजरना पड़ता है? क्या है वह स्थितिग्रस्तता राह किनारे के पत्थर की, अपने-आप में बन्दिनी प्रतीक्षा करती हुई, शायद कभी कोई राम आए और उसके चरणों को छू-भर लेने से जीवन कृतकृत्य हो जाए। ये सारे विधान पुरुष ने क्यों बनाये? किसी ने कभी हमसे क्यों नहीं पूछा कि हम क्या चाहती हैं?``
स्त्री कमजोर कहां है? बस वह तो अपनी शक्ति पहचानती नहीं। अपनी शक्ति को पहचाने की सूरत में वह कह उठती हैं-
प्रकृति की हम बेटियां
तूफानों के बीच भी
कविता लिख सकती हैं
देती हुई चुनौती
त्रासदी को।``
अहल्या से कहां गलती हुई थी? उसने तो गौतम को देखा था, आवरण के भीतर क्या था, उसे वह नहीं पहचान पाई। एक भूख मिटाकर चला गया और दूसरा उसे सजा नहीं दे सका। सजा मिली निर्दोष अहल्या को। यही सब आज भी हो रहा है। इसी सच को प्रभा ने प्रकट किया-
कौन था वह पुरुष,
अहल्या
जो लांघकर सतीत्व की सीमा
कर गया नारीत्व का अपमान?
क्या था तुम्हारी आंखों में
उसके लिए,
जो डोल गया इंद्रासन?
बदल गया शरीर
नहीं पहचान सकी तुम
क्या दोष तुम्हारा था केवल?``
प्रभा ने समकालीन दौर में भी उस दर्द को महसूस किया जो सदियों पूर्व पत्थर बनती हुई अहल्या ने किया था। इस पूरी कविता में प्रभा स्त्री को अपनी स्वतंत्रता के प्रति जागरूक करना चाहती हैं। अहल्या के दर्द के साथ एकाकार होती हुई प्रभा लिखती हैं-
लौट आओ अहल्या!
मृत्यु के बाद भी जागो तुम!
गूंजता है आज भी
तुम्हारा ही दर्द
मेरे हृद्य में।``
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