स्त्री के प्रति दृष्टिकोण / कृष्णा जाखड़
स्त्री के प्रति दृष्टिकोण :
जिस परिवेश में मनुष्य का बालपन एवं लड़कपन बीतता है वहां से उसे जो अनुभव प्राप्त होते हैं, छोटे-छोटे सवालों एवं जवाबों से दु:ख एवं खुशी के क्षण आते हैं, उन सबसे उसके अंतर ज्ञान के वृक्ष पर छोटी-छोटी कोंपले निकलती रहती हैं। जीवन की सुखद लगने वाली कठिन राहों पर जब वह चलता है तो हर विपरीत स्थिति उसे पूर्वज्ञान का स्मरण कराती रहती है। अपने प्रतिकूल होता आया आज तक का कार्य व्यापार उसके मानस पटल पर आकर हथौड़े चलाने लगता है। ऐसा क्यों हुआ? समाज में अक्सर ऐसा क्यों होता है? इसका निस्तारण क्या है? आदि जटिल सवाल उसके अंदर उगने लगते हैं। परिणाम स्वरूप वो किसी भी माध्यम से अपने भावों को अभिव्यक्ति देता है।
प्रभा खेतान ने कोलकाता महानगर में अमीर मारवाड़ी के घर जन्म लिया। सबसे पहले अपनी मां, दादी, मामी, नानी, चाची, ताई एवं बहन-भाभी का जीवन करीब से देखा और महसूस किया। वहां नारी महंगें वस्त्र, आभूषणों से सज्जित वस्तुमात्र थी, जो परिवार चलाने का अनिवार्य तंत्र एवं पूरे दिन के बाद घर आने पर पुरुष के मन-बहलाव का साधन थी। प्रभा जब घर से बाहर निकली तो स्कूल अध्यापिकाओं के साथ-साथ बंगाली समाज की पढ़ी-लिखी कामकाजी महिला को देखा। वहां शिक्षा का महत्त्व तो था ही साथ ही साथ आत्मनिर्भर स्वाभिमानी स्त्री की इज्जत भी थी। परंतु कहीं अधिक तो कहीं कम मगर स्त्री दमित एवं कुंठित हर जगह थी। प्रभा ने अपने आसपास की स्त्रियों के घुटन भरे जीवन से जानना चाहा कि आखिर नारी की इस स्थिति का कारण क्या है? शायद सबसे बड़ा कारण अशिक्षा और पैसा ही है। यदि स्त्री आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर हो जाए तो एक हद तक वह स्वतंत्र हो सकेगी। इसी बात को प्रभा स्वीकार करती हैं-
आजादी स्त्री के पर्स से शुरु होती है।``
औरत अपने परिवार के प्रति पूर्णतया समर्पित हो जाती है और परिवार के अस्तित्व में ही अपना अस्तित्व डूबो देती है। परिवार को जब उसकी जरूरत नहीं रहती तब उसको पीछे धकेल दिया जाता है और वह पूर्णतया अकेली रह जाती है। तब वह अपने वजूद को टटोली है मगर समय बहुत बीत चुका होता है। यह बात प्रभा के मन में विद्यार्थी जीवन से ही गहरी बैठ जाती है। प्रभा लिखती हैं-
एक बात बड़ी गहन मन में बैठती जा रही थी। .....नहीं, मुझे अम्मा की तरह नहीं होना, कभी नहीं। भाभी की घुटन भरी जिंदगी की नियति मैं कदापि स्वीकार नहीं कर सकती। मैं अपने जीवन को आंसुओं में नहीं बहा सकती। क्या एक बूंद आंसू में ही स्त्री का सारा ब्रह्मांड समा जाए? क्यों? किसलिए? रोना और केवल रोना, आंसुओं का समंदर, आंसुओं का दरिया और तैरते रहो तुम! अम्मा, जीजी, भाभीजी, ताई, चाचियां, यहां तक कि मेरी शिक्षिकाएं भी, जिनकी ओर मैंने बड़ी ललक से देखा, जिनको मैंने क्रांतिचेता पाया था, वे भी तो उसी समंदर को अपने-अपने आंसुओं से भरती चली जा रही थीं।``
एक स्त्री जितनी तन्मयता से परिवार को बनाती है, बच्चों को पालती है, उनके जीवन को संवारती है, पति की खुशी के लिए रात-दिन पिसती है, उनकी सफलता के लिए दुवाएं मांगा करती है, इतनी ही तन्मयता से अपने जीवन को संवारने में लगे तो शायद पुरुष से कहीं आगे हो। प्रभा लिखती हैं-
हम औरतें प्रेम को जितनी गम्भीरता से लेती हैं, उतनी गम्भीरता से यदि अपना काम लेतीं तो अच्छा रहता; जितना आंसू डॉक्टर साहब के लिए गिरते हैं उससे बहुत कम पसीना भी यदि बहा सकूं तो पूरी दुनियां जीत लूंगी।``
प्रभा अपने प्रति होते व्यवहार को देखती तो लगता मानों यहां स्त्री होना ही अपने-आप में अपराध है। जहां स्त्री को कमजोर साबित करने वाले थे वहीं स्त्री के स्वाभिमान को जागृत करने वाले भी प्रभा को मिले और इससे उनके अंदर की स्त्री का स्वाभिमान जागा भी। कॉलेज शिक्षा के समय उनके गुरु के शब्द प्रभा के ही शब्दों में- स्त्री होना कोई अपराध नहीं है पर नारीत्व की आंसू भरी नियति स्वीकारना बहुत बड़ा अपराध है। अपनी नियति को बदल सको तो वह एकलव्य की गुरुदक्षिणा होगी।``
लड़की को बचपन से ही यह आभास कराया जाने लगता है कि तुम कमजोर हो, यह घर तुम्हारा नहीं, तुम्हें पति के घर जाना है और उसी घर को अपनाना है, पुरुष घर का मुखिया है वह कमाता है एवं स्त्री का जीवन उसी पर निर्भर करता है। प्रभा ने इन बातों को न सिर्फ नकारा बल्कि पुरुष आधिपत्य वाले व्यापारिक साम्राज्य में स्वयं को बुलंदियों तक पहुंचाया। एक मायने में उनकी इस उपलब्धि भरे उदाहरण से नारी की आत्मशक्ति जागृत हुई।
प्रथम बार अमेरिका जाते समय जब पैसों का प्रबंध नहीं बैठ रहा था तब डॉक्टर सर्राफ (जिनसे प्रभा प्रेम बंधन में बंधी थी) ने पैसे देने की बात कही और उसके जवाब में प्रभा का एक छोटा-सा वाक्य नारी शक्ति को दर्शा जाता है-
मैं आपसे रुपए नहीं ले सकती।``
प्रभा ने भारत की दमित औरत को ही नहीं देखा, वह तो अनेक देशों में गई और वहां की औरत के दु:ख को भी गहराई से महसूस किया। प्रभा ने जहां भी देखा औरत के आंसू हर जगह दिखाई दिए। प्रभा के उपन्यास का एक पात्र कहता है- दुनियां में ऐसा कोई कोना बताओ, जहां औरत के आंसू नहीं गिरे?``
इन आंसुओं का कारण पुरुष द्वारा बनाए गए समाज के नियम रहे। पुरुष ने यह व्यवस्था इसलिए बनाई ताकि उसकी सत्ता सलामत रह सके। एक हद तक औरत खुद भी इस व्यवस्था को बनाए रखने में सहभागी रही। हां, अभी कुछ वर्षों से औरत ने अपने अधिकारों को पहचाना है मगर जड़ जमाए पुरानी सत्ता तोड़ने में समय तो लग ही जाता है। फिर भी औरत जागृत तो हुईं। प्रभा ने भी माना-
पुरुष ने अपने स्वार्थ में धर्म, समाज और कानून को बनाया है, औरत ने तो बस अभी-अभी अपने अधिकारों के बारे में बोलना शुरू किया है।``
स्त्री का अस्तित्व पुरुष जाति में है ही नहीं, वह तो हमेशा दोयम दर्जे पर धकेल दी जाती रही है। उसे अपने वजूद के लिए अकेले ही संघर्ष की सीढ़ियां चढ़नी है। यह समस्या किसी एक जाति या राष्ट्र की नारी की समस्या नहीं बल्कि पूरे विश्व की महिला इसी मरुस्थल में भटक रही है। इन्हीं विचारों को व्यक्त करते प्रभा की आत्मकथा में अमेरिकन महिला के शब्द-
प्रभा औरत अभी मनुष्य श्रेणी में नहीं गिनी जाती और तुम अमीर-गरीब का सवाल उठा रही हो? तुम मुझे राष्ट्र का भेद समझा रही हो? माई स्वीट हार्ट! हम सब औरतें अर्ध-मानव हैं। पहले व्यक्ति तो बनो।``
जहां भारत की औरत चूल्हे-चौके में कैद है वहीं अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देश की औरत पैसे की चारदीवारी में जकड़ी हुई है। प्रभा स्त्री की बाह्य स्वतंत्रता की बजाय आंतरिक स्वतंत्रता को प्राथमिकता देती रहीं। स्त्री पहनावे से और चारदीवारी से बाहर निकलने मात्र से स्वतंत्र नहीं हो जाती। उसे अपनी मानसिकता को स्वतंत्र करना होगा। साड़ी में भी नारी सबल हो सकती है और जींस में भी गुलाम मानसिकता लिए कमजोर हो सकती है। प्रभा लिखती हैं-
यानी ये अमेरिकी औरतें भी हम भारतीय औरतों की तरह असहाय हैं। केवल पैंट पहनने और मेकअप करने से औरत सबल नहीं हो जाती।``
पुरुष ने हमेशा स्त्री को पिता, पति, पुत्र के रूप में सुरक्षा चक्र दिया है और समय-समय पर उसे सचेत करता आया है कि यदि वह सुरक्षा चक्र टूट गया तो तुम्हारा अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। लेकिन सही मायने में देखें तो स्त्री को सबसे ज्यादा असुरक्षित इसी सुरक्षा चक्र ने बनाया है। जब कभी नारी ने इस घेरे को तोड़ने का प्रयास किए तो पुरुष ने उसे पीछे धकेलते हुए श्रद्धा रूपी बड़ा-सा ब्रह्मास्त्र फेंककर बाहर के पुरुष का खतरा याद दिलाया। घर के बाहर का पुरुष मारने वाला, भीतर का तारने वाला और इसी उलझे हुए जाल में नारी पिसती रही- वर्षों तक, सदियों तक। पितृसत्तात्मक मिथक को प्रभा व्यक्त करती हैं,
औरतें वह चाहे बाल कटी हों या गांव-देहात से आई हों, कहीं भी सुरक्षित नहीं। उनके साथ कुछ भी घट सकता है। सुरक्षा का आश्वासन पितृसत्तात्मक मिथक है। स्त्री कभी सुरक्षित थी ही नहीं। पुरुष भी इस बात को जानता है। इसलिए सतीत्व का मिथक संवर्धित करता रहता है। सती-सावित्री रहने का निर्देशन स्त्री को दिया जाता है। हां, सतीत्व का आवरण जरूर ओढ़ लेती है या फिर आत्मरक्षा के नाम पर जौहर की ज्वाला में छलांग लगा लेती है।``
रात-दिन घर की चक्की में पिसती हुई औरत के काम को हमेशा नकारा गया है। 'तुम करती क्या हो? सारे दिन घर मेें पड़ी रहती हो, सबकुछ मिल जाता है।` पुरुष यही सब कहता है। पुरुष की आठ घण्टें की ड्यूटी के आगे स्त्री की चौबीस घण्टों वाली ड्यूटी को तुच्छ माना गया। बार-बार आभास कराया गया कि तुम कमजोर हो कुछ नहीं कर सकती और जब स्त्री ने अपनी शक्ति को पहचाना तथा घर से बाहर निकलकर आठ घण्टें वाली ड्यूटी में शामिल होकर ये दिखाया कि वह भी सक्षम है तब पुरुष समाज में खलबली मच गई।
बौद्धिक और आर्थिक जगत में पुरुष उसे मर्दों के गुणों से नवाजकर स्त्री गुणों को निम्न साबित करने का प्रयास करता है। प्रभा अपनी आत्मकथा में लिखती हैं-
लेकिन नहीं, मैं एक औरत थी..... औरत के आर्थिक अवदान को नकारने की परम्परा रही है। पहले गृहस्थी में उसके श्रम को नकारा जाता है, फिर मुख्यधारा में यदि उसे स्थान दिया जाता है तब उस स्त्री को या तो अपवाद मानकर पुरुष वर्ग अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेता है, या फिर उसे परे ढकेल दिया जाता है।``
आज की पढ़ी-लिखी स्त्री घर बैठकर महज पति की पूजा में तो अपना जीवन नहीं लगा सकती। अच्छे वर की आशा में लड़की व्रत-उपवास और मंदिर के चक्करों में तो नहीं रह सकती। पति और परिवार के साथ आधुनिक युग के प्रगति करते संसार में अपना अस्तित्व भी स्त्री को कायम करना है। रोज आगे बढ़ते पुरुष के साथ उसे भी आसमान की ऊंचाईयों को छूना है। सबकुछ की इच्छा रखने वाली औरत ही स्वतंत्र हो पायेगी। कुछ ऐसे भाव ही व्यक्त करती है प्रभा-
आधुनिक स्त्री की तपस्या, पार्वती की तपस्या से भिन्न है। वह प्रार्थना करती है, उस प्रार्थना में वह सब कुछ मांगती है क्योंकि आज की पार्वती के लिए केवल पति ही काफी नहीं। पुरुष ने शिव के अलावा सत्य और संुदर को चाहा तो स्त्री क्यों नहीं अपने जीवन में इसकी मांग करे? स्त्री भी न्याय और औचित्य की बात करेगी। इस नए सृजित संसार में प्रगति का प्रशस्त मार्ग, घर की देहरी से निकलकर पृथ्वी के अनंत छोर तक जाता है। स्त्री को यह समझना होगा।``
जीवन की सब इच्छाएं पूरी करने वाली ये स्वतंत्रता यूं ही नहीं मिल जाया करती। इसके लिए संघर्ष करना होता है और स्त्री को अपना हक पाने के लिए अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होती है। प्रभा कहती हैं- औरत के लिए केवल प्यार ही काफी नहीं। व्यक्ति बनने के लिए उसे और भी बहुत कुछ चाहिए। धन-मान, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी कुछ। जीवन शुरू करने उसे भी पुरुष के बराबर की जमीन चाहिए और इस जमीन को समाज से छीनकर लेना पड़ता है। महज अनुनय-विनय से काम नहीं चलता।``
इतिहास ने स्त्री के जीवन को पुरुष के हाथ का खिलौना मात्र समझा है। अहल्या इसका साक्षात् उदाहरण बनती है। प्रभा की ये मार्मिक पंक्तियां-
भोक्ता इंद्रविधायक गौतममुक्ति-दाता रामक्यों?``
पुरुष ने अपनी पाश्विक तृप्ति स्त्री से की और पुरुष ही ने उसे दोषी करार देकर एक आकार में बांध दिया और फिर उसी पुरुष ने मुक्ति का कर्म कर अपने-आप को महान् साबित कर दिया। कब तक स्त्री यूं पुरुष के हाथों की कठपुतली बनी रहेगी? उसे स्वयं अपना उद्धार करना होगा, वरना पुरुष उसे यूं ही सदियों-सदियों तक पत्थर बनाए रखेगा। प्रभा स्त्री को जागने के लिए कहती हैं-
मत करो प्रतीक्षा राम कीप्रयास करोप्रस्तर की कारा सेमुक्ति का!``
स्वयं के प्रयास से प्राप्त की गई आजादी ही सुख दायिनी होती है, दया से दी गई मुक्ति तो सबसे बड़ा बंधन है।
घर के बाहर स्त्री ने पुरुष के बराबर काम किया और घर आते ही वह फिर से काम में लग जाती है, पूरे घर का काम उसी के कंधों पर है। सारे दिन मजदूरी करता उसका पति जो बाहर की दुनियां में शोषित है, घर आकर पत्नी का शोषक बन जाता है। और तो और स्त्री के द्वारा किए जाने वाले घर के काम का कभी मूल्यांकन नहीं हुआ और घर के बाहर भी स्त्री श्रम का मूल्यांकन पुरुष-श्रम से कम आंका जाता है। प्रभा के अनुसार-
आंकड़े उठाकर देख लीजिए; स्वास्थ्य, राजनीति, रोजगार और व्यापार-जगत, हर जगह स्त्री-श्रम की कीमत पुरुष-श्रम से कम है।``
रात-दिन पसीने में लथपथ स्त्री ने शारीरिक शोषण के साथ-साथ मानिसक आघात को भी झेला है। सामाजिक और आर्थिक ढांचे से ऊपर उठकर देखें तो राजनीति और साहित्य की दुनियां में भी स्त्री को न सिर्फ किनारे पर धकेला गया बल्कि उसकी बौद्धिक क्षमता को निम्नतर स्तर पर रखा गया है। भारतीय संस्कृति के वाहक धर्मग्रंथों एवं बड़े-बड़े शास्त्रों में भी स्त्री को उपेक्षित किया गया है। प्रभा इसी को रूपांकित करती हैं-
स्त्री विरोधी वाक्यों और इन विशेषणों से हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं।``
पुरुष साहित्य में अपना वर्चस्व जमाये रहा है और उसने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए निम्नवर्गीय तबके को आगे नहीं आने दिया। नारी उसी शोषित तबके में शामिल है। कहने को वह महारानी और राजमाता भी कहलाई है मगर उसने तो मात्र मूक होकर परदे से दो स्थिर आंखों से पुरुष का रचा हुआ खेल देखा है। प्रभा ने साहित्य में स्त्री की पीड़ा को व्यक्त किया-
सदियों से उत्पीड़ित होती हुई स्त्री साहित्य-जगत में भी कुंठित है। वह पुरुषों की पैंतरेबाजी से आतंकित है, संपादक मंडल की लाल स्याही के सामने असुरक्षा और हीनता के बोध से ग्रसित है।``
प्रभा ने माना कि नारी खुद कलम उठाकर अपना इतिहास लिखे और शोषण, दमन से मुक्त हो। इसी के पक्ष में लिखा- सभी दलित और वंचित वर्गों को अपना अतीत दर्ज करने का उद्यम स्वयं ही करना पड़ता है।``
पुरुष ने आगे बढ़ने के लिए स्त्री रूपी सीढ़ी का इस्तेमाल किया और आगे बढ़ते हुए सीढ़ी को पीछे धकेलता गया। स्त्री को त्याग और दया से मंडित कर श्रद्धावरण से ढक पुरुष ने उसे निर्जीव मूर्ति की तरह समाज में स्थापित कर दिया। अपनी कामयाबी का इतिहास लिखते हुए पुरुष ने स्त्री के योगदान को दफन कर दिया।
सदियों से स्त्री के होठों पर ठहरी चुप्पी को प्रभा तोड़ने के पक्ष में रहीं। स्त्री क्यों नहीं चाहती है कि पुरुष उसके अवदान को दुनियां के सामने लाए? क्यों नहीं वह अपने श्रम से ही पुरुष की उपेक्षा को तोड़ती हुई अपने अवदान को स्वयं दुनियां के आगे रखे। प्रभा ने लिखा- मैं तहेदिल से स्वीकारती हूं कि स्त्री को अपनी खामोशी तोड़नी होगी, उसे वह सब लिखना होगा जो अब तक लिखा नहीं गया।``
न सिर्फ विचार बल्कि प्रभा खेतान का पूरा व्यक्तित्व ही स्त्री के लिए अनुकरणीय है। इस पुरुषवादी समाज में एक स्त्री का उपेक्षा भरे धरातल से संघर्षमय सफर, जो उसे न सिर्फ सफलता की ऊंचाईयों तक ले जाता है बल्कि इस समाज में पुरुष के बराबर स्थापित करता है। प्रभा ने स्त्री को स्वयं की शक्ति पहचानने के लिए कहा। उनका मानना रहा कि जब स्त्री अपने-आप को पहचान लेगी उस दिन वह पुरुष के बराबर धरातल पर खड़ी होगी। स्त्री को सशक्त बनने के लिए पुरुष का विरोध नहीं करना होता, उसे तो पुरुष के साथ चलकर दोनों को समाज की समान धूरी बनाना है।