प्रारम्भिक जीवन और शिक्षा / बलराम अग्रवाल
जिब्रान खलील जिब्रान बिन मिखाइल बिन साद — पारम्परिक रूप से खलील जिब्रान का यही पूरा नाम है। उनका जन्म तुर्क वंश (यह वंश 13वीं शताब्दी से लेकर प्रथम विश्वयुद्ध में अपने समापन तक वहाँ काबिज रहा) द्वारा शासित ओटोमन सीरिया में माउंट लेबनान मुत्सरीफात के बिशेरी(वर्तमान रिपब्लिक ऑफ लेबनान) नामक स्थान में हुआ था। ‘खलील जिब्रान : हिज़ लाइफ एंड वर्ल्ड’ के लेखकद्वय जीन जिब्रान और खलील जिब्रान ने लिखा है — ‘खलील जिब्रान ने एक बार कहा था कि मेरी जन्मतिथि का ठीक-ठीक पता नहीं है। दरअसल लेबनान के बिशेरी-जैसे पिछड़े हुए गाँव में उन दिनों जीना और मरना मौसम के या बाकी दूसरे मौकों के आने-जाने जैसा ही सामान्य था। किसी लिखित प्रमाण की बजाय लोग याददाश्त के आधार पर ही जन्मतिथि बताते थे।’ आधिकारिक जन्मतिथि को लेकर जो उहापोह मची हुई थी, उसका निराकरण खलील जिब्रान ने अपनी लेबनानी मित्र मे ज़ैदी को लिखे एक पत्र में किया है। उन्होंने लिखा है — “… एक वाक़या तुम्हें बताता हूँ मैं, और तुम्हें इस पर हँसी आएगी। ‘नसीब आरिदा’ ‘अ टीअर एंड अ स्माइल’ के लेखों को संग्रहीत करके एक पुस्तक संपादित करना चाहता था। ‘माय बर्थडे’ शीर्षक लेख के साथ वह निश्चित जन्मतिथि देना चाहता था। मैं क्योंकि उन दिनों न्यूयॉर्क में नहीं था, उसने खुद ही मेरी जन्मतिथि को खँगालना शुरू कर दिया। वह एक जुनूनी आदमी है, लगा रहा और उसने ‘कानून-अल-अव्वल 6’ को ‘जनवरी 6’ में अनूदित कर दिया। इस तरह उसने मेरी ज़िन्दगी को क़रीबन एक साल कम कर दिया और मेरे जन्म की असल तारीख को एक माह आगे खिसका दिया। बस, ‘अ टीअर एंड अ स्माइल’ के प्रकाशन से लेकर आज तक मैं हर साल दो जन्मदिन मना रहा हूँ… ” (अरबी में कानून-अल-अव्वल का मतलब है — दिसम्बर माह; जनवरी को ‘कानू्न-अल-थानी ’ कहा जाता है। इस स्पष्टीकरण के आधार पर खलील जिब्रान की सही जन्मतिथि 6 दिसम्बर 1883 सिद्ध होती है।)
खलील जिब्रान की माँ का नाम कामिला रहामी था। उनके जन्म के समय कामिला की उम्र 30 वर्ष थी। वह उनके तीसरे पति की पहली सन्तान थे। उनके जन्म के बाद कामिला के दो कन्याएँ और उत्पन्न हुईं — 1885 में मरियाना तथा 1887 में सुलताना। बादशाही को दिए जाने वाले हिसाब से कर के गबन की एक शिकायत के मामले में 1891 में जिब्रान के पिता को, उनकी सारी चल-अचल सम्पत्ति ज़ब्त करके, जेल में डाल दिया गया था। जिन्दगी में आए इस अचानक तूफान ने कामिला को हिलाकर रख दिया। उससे भी अधिक भयावह दुर्घटना यह हुई कि उनका नाम गाँव के ही एक व्यक्ति यूसुफ गीगी के साथ जोड़ा जाने लगा। गाँवभर में बदनामी से आहत होकर उन्होंने एक दिन जिब्रान को गोद में बैठाकर रोते हुए कहा था — ‘अब लोगों की जुबान बन्द करने का बेहतर तरीका यही है कि दुनियादारी छोड़कर मैं नन बन जाऊँ।’
स्थानीय समाज की दृष्टि में पतित और आर्थिक बदहाली से त्रस्त कामिला के सामने दो ही रास्ते थे — पहला यह कि वह हजारों दीन-हीन औरतों की तरह बिशेरी में ही सड़ती रहे और दूसरा यह कि वह अनिश्चित भविष्य का खतरा उठाकर अपने चचेरे भाई के पास अमेरिका चली जाय। यद्यपि तीन साल बाद 1894 में ही जिब्रान के पिता की रिहाई हो गई थी तथापि भुखमरी और अपमान से त्रस्त कामिला ने अमेरिका में जा बसने का निश्चय किया। अपने शराबी, जुआरी और गुस्सैल पति, जिब्रान के पिता को लेबनान में ही छोड़कर 25 जून 1895 को वह अपने पूर्व-पति हाना रहामी की सन्तान, बुतरस पीटर को जो उम्र में खलील से छह साल बड़ा था, खलील को व उनकी दो छोटी बहनों मरियाना और सुलताना को साथ लेकर अपने चचेरे भाई के पास बोस्टन चली गईं। वहाँ पर कामिला ने घर-घर जाकर छोटा-मोटा सामान बेचने वाली सेल्स गर्ल किस्म का काम करके परिवार को पालना शुरू कर दिया। बाद में, मामा की मदद से पीटर भी वहाँ पर किराने का व्यापार करने लगा। मरियाना और सुलताना भी उसके काम में हाथ बँटातीं जिससे परिवार का खर्च ठीक-ठाक चलने लगा।
जिब्रान जन्मजात कलाकार थे। उनको शैशवकाल से ही चित्रकला से प्यार था। विभिन्न आकृतियाँ उनके मस्तिष्क में जैसे हर समय आकार लेती रहती थीं और बाहर आने को उन्हें बेचैन किए रहती थीं। वे कागज़ ढूँढ़ने लगते। अगर उन्हें घर में कोई कागज़ नहीं मिलता था तो वह घर के बाहर निकल जाते और ताज़ी बर्फ़ पर बैठकर घंटों विभिन्न आकृतियाँ बनाते रहते। तीन साल की उम्र में वह अपने कपड़े उतार डालते और पहाड़ों को झकझोर देने वाले तूफान में भाग जाते। कागज़ की किल्लत को चित्रकारी के अपने जुनून के आड़े आते देख उससे निपटने का उन्होंने एक नायाब तरीका सोचा। चार साल की उम्र में उन्होंने इस उम्मीद में कि आगामी गर्मियों में उन्हें काग़ज़ की भरपूर फसल मिल जाएगी, जमीन में छेद करके उनमें कागज़ के छोटे-छोटे टुकड़े बो दिए थे। पाँच साल की उम्र में उन्हें घर का एक कोना मिल गया था जिसमें उन्होंने साफ-सुथरे पत्थरों, चट्टानी-टुकड़ों, छल्लों, पौधों और रंगीन पेंसिलों को रखकर एक बेहतरीन दुकान खोल ली थी। अगर काग़ज़ नहीं मिल पाता तो वे दीवारों पर चित्र बनाकर अपनी ख्वाहिश पूरी करते। छह साल की उम्र में उनकी माँ ने लियोनार्दो द विंची की कुछ पुरानी पेंटिंग्स से उनका परिचय करा दिया था।
पारिवारिक गरीबी और रहने का निश्चित ठौर-ठिकाना न होने के कारण 12 वर्ष की उम्र तक जिब्रान स्कूल नहीं जा सके। उनकी स्कूली शिक्षा 30 सितम्बर 1895 को शुरू हुई। प्रवासी बच्चों की शिक्षा के लिए खुले बोस्टन के क्विंसी स्कूल में उन्हें प्रवेश दिलाया गया जहाँ वह 22 सितम्बर 1897 तक पढ़े।
कहा यह जाता है कि स्कूल-प्रवेश के समय अध्यापिका द्वारा उनके नाम के हिज्जे ग़लत लिखे जाने के कारण खलील को अंग्रेजी में ‘Khalil’ के स्थान पर ‘Kahlil’ तथा जिब्रान को ‘Jibran’ के स्थान पर ‘Gibran’ लिखा जाता है, परन्तु ये हिज्जे शब्दों के लेबनानी उच्चारण के अनुरूप लिखे गये हो सकते हैं क्योंकि कामिला रहामी के हिज्जे भी ‘Kamle Rahmeh’ लिखे जाते हैं और इसी तरह अन्य नामों के भी। सचाई यह है कि स्कूल में उनका नाम जिब्रान खलील जिब्रान (Gibran Khalil Gibran) लिखाया गया था जिसमें अरबी परम्परा के अनुरूप प्रथम जिब्रान उनका नाम था, मध्यम खलील उनके पिता का तथा अन्तिम जिब्रान उनके दादा अथवा कुल का। इस नाम को छोटा करने तथा Khalil को Kahlil हिज्जे देकर अमेरिकी लुक देने का करिश्मा समाजसेविका जेसी फ्रीमोंट बीयले (Jessie Fremont Beale) ने किया था। जीवन के प्रारम्भिक वर्षों में ही उनसे मिले स्नेह एवं अमूल्य सहयोग के कृतज्ञताज्ञापन स्वरूप तथा उनकी भावना को सम्मान देते हुए ही जिब्रान ने अपने लेखकीय नाम के हिज्जे यही बरकरार रखे।
हुआ यों कि क्विंसी स्कूल में पढ़ते हुए जिब्रान ने चित्रों के माध्यम से अपनी अध्यापिका फ्लोरेंस पीअर्स (Florence Pierce) का ध्यान आकृष्ट किया। उन्हें इस लेबनानी लड़के में भावी चित्रकार नजर आया और 1896 में उन्होंने समाजसेविका जेसी फ्रीमोंट बियले से उनकी कला की प्रशंसा की। बियले ने यह पूछते हुए कि क्या वह उस बच्चे की कुछ मदद कर सकते हैं, अपने मित्र फ्रेडरिक हॉलैंड डे को पत्र लिखा। डे एक धनी व्यक्ति थे तथा चित्रकार बच्चों के बड़े मददगार थे। वह अपने समय के विशिष्ट चित्रकार और फोटोग्राफर थे। उन्होंने जिब्रान को, उसकी दोनों छोटी बहनों को, सौतेले भाई पीटर और माँ को अपनी प्रतीकात्मक अर्द्ध-काम सौंदर्यपरक ‘फाइन आर्ट’ फोटोग्राफी के मॉडल के तौर पर इस्तेमाल करना और आर्थिक मदद देना शुरू कर दिया।
जिब्रान को उन्होंने बेल्जियन प्रतीकवादी मौरिस मेटरलिंक (Maurice Maeterlinck) के लेखन से परिचित कराया। उन्नीसवीं सदी के राल्फ वाल्डो इमर्सन (Ralph Waldo Emerson), वॉल्ट व्हिटमैन (Walt Whitman), जॉन कीट्स (John Keats) और पर्सी बाइस शैली (Percy Bysshe Shelley) जैसे कवियों और सदी के अन्य अनेक फ्रांसीसी, अमेरिकी और अन्तर्राष्ट्रीय कवियों व दार्शनिकों की रचनाओं से परिचित कराया।
जिब्रान को उन्होंने ग्रीक संस्कृति, विश्व साहित्य, समकालीन लेखन और फोटोग्राफी से परिचित कराया। डे ने जिब्रान के हृदय में दबे उस आत्मविश्वास को जगाया जो विदेश-प्रवास और गरीबी के बोझ तले दब-कुचल कर सो-सा गया था। आश्चर्य नहीं कि जिब्रान ने तेजी से विकास किया और डे को कभी निराश नहीं किया। इस तरह उन्होंने बहुत कम उम्र में अपनी प्रतिभा के बल पर बोस्टेनियन चित्रकारों के बीच सम्मानजनक जगह बना ली थी।
1897 में जिब्रान ने अपनी अरबी भाषा की पढ़ाई को पूरा करने के लिए वापस लेबनान जाने का मन बनाया। बेटे की रुचि और तीव्रबुद्धि को देखते हुए कामिला ने उसकी बात मान ली और बेरूत जाने की सहमति दे दी। 1897 में जिब्रान को लेबनान के मेरोनाइट बिशप जोसेफ डेब्स द्वारा संस्थापित स्कूल मदरसात अल-हिकम: (Madarasat Al-Hikameh) में प्रवेश दिलाया गया। वहाँ वे पाँच साल तक देवदारों के साए में रहे और पढ़ाई के साथ-साथ चित्रकला के अपने जन्मजात गुण को सँवारते रहे। कक्षा में पढ़ाने के दौरान एक बार फादर फ्रांसिस मंसूर ने उनके हाथ में एक कागज़ देखा। उन्होंने उनसे वह ले लिया। देखा — जिब्रान ने उस पर एक नग्न लड़की की तस्वीर बनाई हुई थी जो पादरी के सामने घुटनों के बल बैठी थी। फादर मंसूर ने ‘बदमाश लड़का’ कहते हुए जिब्रान के कान खींचे और स्कूल से नाम काट देने की धमकी तक दे डाली। यहाँ रहते हुए अपने मित्र यूसुफ अल-हवाइक (Yuossef Al-Huwayyik) के साथ मिलकर एक पत्रिका ‘अल-मनर:’ (आकाशदीप) शुरू की। उसे संपादित करने के साथ-साथ वह चित्रों से भी सजाते थे।
डे की मदद से सन 1898 में मात्र 15 वर्ष की आयु में जिब्रान द्वारा बनाए गए चित्र पुस्तकों के कवर-पृष्ठ पर छपने शुरू हो गए थे।
1899 में वे बोस्टन लौट आए थे। फिर एक अमेरिकी परिवार के दुभाषिए के तौर पर 1902 में पुन: लेबनान लौट गए। परन्तु कुछ ही समय बाद सुलताना के गम्भीर रूप से बीमार हो जाने की खबर पाकर उन्हें बोस्टन लौट आना पड़ा। अप्रैल 1902 में सुलताना की मृत्यु हो गई।
यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि 1902 के प्रारम्भ में बेहतर आमदनी की तलाश में उनका भाई पीटर क्यूबा चला गया था। उस दौरान किराने की दुकान सँभालने का जिम्मा जिब्रान के कंधों पर आ पड़ा। सुलताना की मौत के सदमे से उबरने तथा घर का खर्च चलाने के लिए दुकान सँभालने की जिम्मेदारी ने उन्हें रचनात्मक कार्यों से अलग-थलग कर दिया। इस कठिन काल में डे और जोसेफिन ने बोस्टन में होने वाली कला-प्रदर्शनियों और मीटिंग्स में बुला-बुलाकर उन्हें मानसिक तनाव से बाहर निकालने की लगातार कोशिश की। शर्मीलापन छोड़कर उन्होंने उन्हें घर के मौत और बीमारी से भरे वातावरण से बाहर निकलने को प्रेरित किया। कुछ ही महीनों में पीटर जानलेवा बीमारी लेकर क्यूबा से बोस्टन लौट आया। 12 मार्च 1903 को उसका निधन हो गया। उसी वर्ष जून में उनकी माँ कामिला भी देह त्याग गईं। इससे वह पूरी तरह टूट गए। मरियाना भी टी.बी. की चपेट में आ गई थी। परिवार में दो ही व्यक्ति बचे थे जो गहरे आर्थिक और मानसिक संकट की स्थिति में पड़ गए थे। सम्भवत: घोर आर्थिक बदहाली, हताशा और निराशा के क्षणों में ही ये पंक्तियाँ लिखी गई होंगी जो उनके 1932 में प्रकाशित संग्रह ‘सैंड एंड फोम’ में संग्रहीत हैं —
(1) मुझे शेर का निवाला बना दे हे ईश्वर! या फिर एक खरगोश मेरे पेट के लिए दे दे।
(2) नहीं, हम व्यर्थ ही नहीं जिये। ऊँची-ऊँची इमारतें हमारी हड्डियों से ही बनी हैं।
परिवार में एक के बाद एक तीन मौत हो जाने और रचनात्मक कार्यों से पूरी तरह विलग होने से टूट चुके जिब्रान की मानसिक स्थिति को भाँपकर उसकी छोटी बहन मरियाना ने किराने की दुकान को बेच दिया और उन्हें प्रेरित किया कि घर-खर्च की चिन्ता छोड़कर वे अपने-आप को पूरी तरह अरबी और अंग्रेजी लेखन झोंक दें। रचनात्मकता और जीवन-यापन के दोराहे पर खड़े जिब्रान ने मरियाना की बात मान ली और इस दोहरी-तिहरी जिम्मेदारी को ही अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया।