प्रार्थना / ओशो
प्रवचनमाला
प्रार्थना क्या है? आत्म-विस्मरण! नहीं, प्रार्थना आत्म-विस्मरण नहीं है। वह जिसमें भूलना, डूबना और खोना है- मादकता का ही एक रूप है। वह प्रार्थना नहीं, पलायन है। शब्द में, संगीत में खोया जा सकता है। ध्वनि सम्मोहन में, नृत्य में 'जो है' उसका विस्मरण हो सकता है। यह विस्मरण और बेहोशी सुखद भी मालूम हो सकती है, पर यह प्रार्थना नहीं है। यह मूच्र्छा है, जब कि प्रार्थना सम्यक चेतना में जागरण का नाम है।
प्रार्थना क्या कोई क्रिया है? क्या कुछ करना प्रार्थना है?
नहीं, प्रार्थना क्रिया नहीं, वरन चेतना की एक स्थिति है। प्रार्थना की नहीं जाती है, प्रार्थना में हुआ जाता है। प्रार्थना मूलत: अक्रिया है। जब सब क्रियाएं शून्य हैं और केवल साक्षी चैतन्य शेष रह गया है, ऐसी स्थिति का नाम प्रार्थना है। प्रार्थना शब्द से 'करने' की ध्वनि निकलती है। ध्यान शब्द से भी 'करने' की ध्वनि निकलती है। पर दोनों शब्द क्रियाओं के लिए नहीं, चेतना की स्थिति के लिए प्रयुक्त हुए हैं।
'शून्य में, मौन में, नि:शब्द में होना प्रार्थना है, ध्यान है।'
एक प्रार्थना सभा में मैंने कल यह कहा है।
किसी ने बाद में मुझ से पूछा,
'फिर हम क्या करें?'
मैंने कहा,
'थोड़े समय को कुछ भी न करें। बिलकुल विश्राम में अपने को छोड़ दें। चुपचाप मन को देखते रहें, वह अपने से शांत और शून्य हो जाता है। इसी शून्य में, सत्य का सान्निध्य उपलब्ध होता है। इसी शून्य में वह प्रकट होता है, जो भीतर है और वह भी जो बाहर है। फिर बाहर और भीतर मिट जाते हैं और केवल वही रह जाता है 'जो है'।' इस शुद्ध 'है' की समग्रता का नाम ईश्वर है।
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)