प्रार्थना / रमेश बक्शी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर नींद टूट गई।

उफ! आज जाने कितनी बार यह टूटेगी।

टूटती ऐसे है, जैसे किसी के हाथ से छूटकर कोई गिलास टूट गया हो।

करवट बदल ली है। पहले बाँई तरफ देख रहा था। अब चेहरे के सामने दाँई तरफ की दुनिया है - किताबें ही किताबें।

शायद बिल्ली कूद कर मेरे ऊपर लदाक्क से गिरी थी फिर सम्भल कर उठ भागी। हतु! शुच्च! छुचुच्च...!

बिल्ली फिर दौड़ी और जोर से मुझे घूर कर मेरे ही ऊपर से बाहर कूद गई। सिरहाने की खिड़की मैंने लुढ़का दी। खिड़की शायद खुली रह गई थी। शायद बिल्ली ने ही उसे झिझोड़ कर खोल लिया था।...

उफ...! घड़ी सिरहाने से खींची। आँखें बंद किये रहा। आँखें खोली तो उसका रेडियम चमकने लगा। तीन। तीन बज कर पाँच मिनट और सेकण्ड का काँटा दिख नहीं रहा है...

घड़ी को फिर सिरहाने लेटा दिया। वह सीधे रखने पर चलती नहीं। बड़ी झरसई है। बाहर ज्यादा ठण्ड हो। पहले सोचा बाथरूम जाऊँ फिर अलसा गया। कौन जाये? या हो ही जाऊँ? छोड़ो...

फिर आवाज बाहर से आ रही है - एक दौड़ती हुई झई-झई-झई-झई...कोई कीड़ा है। जाने कौन-सा कीड़ा ऐसी आवाज में बोलता है...

रजाई और ऊपर खींच ली तो उसका एक हिस्सा करवट के नीचे आ गया। रजाई के रेशम से सारा शरीर भीच लिया तो शरीर में से टूटन निकल गई, जैसे किसी ने रंदा चलाया हो और ऊपर से छिलपियाँ झाड़ दी हों...।

बिल्ली के कारण नींद टूटी थी। ऐसा लगता है खूब शांत पानी में किसी ने एक ढेला फेंक दिया हो। एक डुबुक किस्म की आवाज अपने ही मन में से सुनाई दी। तकिये दो हैं। दोनों को खीच कर ऐसे कर लिया कि वे मेरे कंधे को सहलाने लगे और गाल से ठीक-ठीक छू गये। कुछ अच्छा लगा। बाँया पैर रजाई में से बाहर निकला और दाँये पैर के ऊपर रजाई के माँसल ढेर पर उसे रख दिया। पैर जोर से दबाया तो उलट जाने की तबियत हुई।...

उफ गाऊन में गठान बड़ी भारी है। वह नीचे की पसली पर चुभ जाती है मैंने घड़ी को सामने कर लिया।

शायद भूल गया था कि समय देख चुका हूँ; लेकिन उससे क्या, एक बार और देखा जा सकता है; लेकिन अलसा गया। घड़ी को फिर उसकी जगह खिसका दिया है। सिरहाने ही ट्रान्जिस्टर रखा है। आँखें बंद किये-किये ही उसे उठाया और स्विच ऑन कर दिया। बहुत देर तक सुई घुमाते रहने पर कोई संगीत आया। जाने कहाँ जाने क्या कार्यक्रम है। जो भी बज रहा था, सब बेतुका था सो ट्रान्जिस्टर को फिर हाथ में से छोड़ दिया। वह घड़ी के ऊपर गिरा और मैंने महसूस किया कि वह फिसल कर उसके पास ही रह गया होगा।...

मेरे मुँह फट गया। उबासी आने को हो कर भी अंदर ही रह गई। एक बार और कोशिश की तो खट्टी-सी डकार आ कर रह गई।

- धत्... जाने किसे मैंने झिड़क दिया और हाथ उठा कर रजाई को अपने और पास समेट लिया। कुछ इस तरह हाथ-पैर, छाती और गालों से रजाई अपने से भींचे हुए था कि लगता रहा रजाई पिघल रही है और जैसे वह थोड़ी देर में गायब हो जायगी। वैसे रोज ही यह होता है और कभी-कभी यह किया बहुत जोर से होती हैं... यानी रजाई पिघलने की किया।...ऐसे में छोटी-सी हँसी आती है और आँखें खेल कर अक्सर छत पर उन्हें टिका देता हूँ। बाहर सड़क का बल्ब तेज है सो रात भर सारे परदे खींच देने पर भी मैं अपने कमर में उजेला-उजेला अनुभव करता रहता हूँ। कई बार वैसे मैं कमरे को उलटा कर लेता हूँ। छत बिलकुल सफेद है, नीचे का मोजेक सलेटी बूँदों वाला और दीवारें हल्की हरी। वैसे में छत मोजेक की हो जाती है और फर्श सफेद... अच्छा लगता है, इत्ता अच्छा कि तकिया उठाकर पलँग से नीचे उतरें और आस-पास ढेरों पत्रिकाएँ बिखरा कर निश्चित लेट जायें।... सिरहाने ऐश-ट्रे रख लें और लेटे-लेटे ही धुआँ पीते रहें।...

सहसा सोने की कोशिश करने लगा। तकिये पर सिर लटका लिया। हाथ-पैर ढीले छोड़ दिये... आलस टूटने की लहर सी-शरीर में रेंग गई तो कंधे पर बिजली-सी दौड़ी और ऐसा लगा, जैसे किसी ने मेरे कान से पगथली तक एक तेज आलपिन घुमा दी है। मैं तिलमिला गया। जाने कैसी तेजी से उठ बैठा और पास से मग उठा कर सारा पानी बह आया। मैं उस अर्धनिद्रित स्थिति को तोड़ना नहीं चाहता था सो आँखें बंद किये-किये ही मेज पर रख दिया। हाथ चूका था कि वह नीचे गिर गया। बहुत छोटी-सी आवाज हुई लेकिन यह लग गया कि वह दो टुकड़े हो गया है। लेकिन मैंने आँखें नहीं ही खोलीं। यह जरूर सोचा कि मग हरे रंग का था या काला...। होगा...क्या फर्क पड़ता है कि किस रंग का टूटा है।...

पानी पीने में ऐसा लगा कि खून कुछ पतला होकर बहने लगा है। मैंने रजाई को ठीक किया, नीचे के हिस्से को पैरों के नीचे दबाया और सिर तक ढँक लिया। दूसरे तकिये को छाती से चिपका कर पड़ गया। किसी के साथ सोने का अजीब अहसास होता है। अनायास हाथ उठते हैं और साथ वाले को छूते चले जाते हैं। कभी उसके बालों पर कभी उसके कान के कुंडल पर, कभी सहसा पंजे जुड़ जाते है। कभी पैर एक-दूसरे से उलझ जाते हैं। नीम-नींद में रजाई के अन्दर एक और ही दुनिया जन्म लेती है।...

नींद से पहले अब हाथ में होई पत्रिका होती है। बिलकुल बेगम से कोई भी कहानी, कविता या कुछ भी पढ़ने लगते है। क्या पढ़ रहे हैं, इसका भी ध्यान नहीं रहता। बस पढ़े चले जाते हैं। कई बार एक ही पृष्‍ठ को दो बार भी पढ़ जाते हैं... बड़ी देर बाद फिर यह लगता है कि कहानी कहीं पढ़ी थी... उस सोचने में पत्रिका हाथ से छूट गिरती है और छत पर ध्यान चला जाता है-साये हुए पंखे को देखने लगते हैं, उसपर लिखे सुपर डिलक्स को पढ़ लेते हैं। वैसे ही कई बार कई काम होते हैं - कभी घड़ी देखना, कभी रेडियो पर कुछ सुनना, कभी कुछ याद करना, कभी गरदन पर हाथ रखकर उसे मसलते रहना, कभी भौंहों के ऊपर की मालिश करना।... रजाई फिर ऊपर खींच लेते हैं और हाथ आगे बड़ा स्विच ऑफ कर देते हैं। अंधेरा गिरता है... मन-ही-मन उलटी गिनती शुरू होती है-सौ, निन्यानवे, अठ्ठानबे-छियानबे... कोई हँस देता है : हट् वे... तभी एक मथनी-सी चलने लगती है-किसी चीज को बिलोने की आवाज तक आती है... ज्यादा ही होता है तो फिर अंदाज से हाथ बढ़या है, कागज फटता है, एक गोली निकलती है। थोड़ा शरीर उठँगता है और एक घूँट पानी के साथ निगल ली जाती है। फिर उसी तरह लेटना...फिर अंग्रेजी में गिनती...हन्ड्रड, नाइंटी नाईन, नाइंटी एट, नाइंटी सेवन, जाने कैसे फिर नाइंटी नाईन... फिर कोई हँसता है - फाइन...!

कोई बात छिड़ जाये तो नींद नहीं आती। ...पिछले और पिछले साल की इसी दिन की बात सामने आती रहती हैं। जैसे उन्नीस जनवरी को क्या हुआ था, तो फिर छियासठ की उन्नीस जनवरी को क्या हुआ था...

शरीर पर कोई चीज रेंगने लगती है। ऐसा लगता है कोई चीज कई की संख्या में है और वे कतार बना कर शरीर पर चल रही हैं।...

कोई स्कूटर गुजरा है। इतनी रात जाने कौन आया है। बहादुर लाठी ठोंक रहा है। उड़ती हुई सीटी बजाता है। उसका सीटी बजाना बड़ा अच्छा लगता है - जैसे सीटी के पंख उठाती कोई तितली उसके ओंठों पर से उड़ी है और रास्ता पार करके मेरे कानों पर आ बैठी है... श्र्फ्र्रर्रर्र... में शब्दों में बोलकर नहीं बतला सकता कि आवाज कैसी होती है...

रजाई बड़ी छोटी है, पैर सिकोड़ लेने पर भी ठीक से नहीं आती। जरा देर में लग गया कि उसे मैंने चौड़ाई में ओढ़ लिया है...। लेटे-लेटे उसे खींचता गया और उसे लंबा कर दिया। अब वह जरूरत से ज्यादा बड़ी हो गई है।...

यह तो हर रात होता है। अकेले सोते उम्र तीस को भी पार कर गई। किसी के साथ सोना ख्वाहिश जैसा नहीं लगता, ऐसा गलता है कि अजीब-सा खालीपन घिरता जाता है। बहुत पहले तो अगर बेडरूम देख लिया किसी का तो नसें तन जाती थीं। एक नशा-सा लगता था। उन दिनों एक चेहरा था, जो बार-बार और बार-बार सामने आता था। गिनती तब भी हो, लेकिन 'हट् वे' या 'फाइन' नहीं बोलता था। वह चेहरा अपने दुबले शरीर सहित सहसा बाल बिखरा देता था और नींद आने से पहले एक प्रार्थना होती थी - वह दिन जल्दी से मेरी हथेली में होगा, जब वह मेरे साथ से अलग नहीं ही सकेगी। उस प्रार्थना में बड़ा बल होता था। सवेरे के सारे कार्यक्रम, साल भर की सारी योजनाएँ सो जाने से पहले बन जाती थीं। तब भी बिस्तर का तकिया ऐसी जीवित अवस्था में शरीर से लग कर पड़ा रहता था लेकिन एक प्रतीक्षा थी कि मन उखड़ता नहीं था। ...जमुहाई बड़ा आराम देती है। एक बार बुखार आता था तो जब जमुहाई आई तो गरमी उतर गई थी... छींक से भी ऐसा ही होता है...

उफ... चार बज गये। यहाँ गजर भी लगती है, शायद थाने में... हाँ,थाना कहीं पास ही है...। हो-गा।

अब सो कर ही रहूँगा। अपने से बोला हूँ - स्टॉप...

अब कोई बात नहीं सोचनी।

न-हीं। कोई गिनती विनती नहीं।...

नहीं, कोई प्रार्थना नहीं भाई।...

नहीं-नहीं-नहीं-नहीं-नहीं...

तुम पाँच बार नहीं बोले हो।

तो उससे क्या हो गया मैं सौ बार बोल सकता हूँ...

बताओ बोल कर

नहीं। नहीं। नहीं। नहीं। नहीं। नहीं। नहीं।...

यह अच्छा मजाक है अपने आपके साथ। कोई नहीं-नहीं चीखने से भी सोया है। ...सहसा कारण ढूँढ़ने लगा। हर रात यह होता है। जाने कैसे मुठ्ठियाँ भिंच जाती हैं। शरीर का खून पागल की तरह दौड़ने लगता है और जानलेवा उद्दीपन बेचैन कर देता है। कई बार आपने सब दोस्तों के नाम याद किये हैं कि कौन-कौन मुझ जैसी ही छट-पटाती रातें बिताते होंगे और सहसा जवानी 'कर्स' लगने लगी है। रह रहकर बाल्मीकि की करुणा मन पर घिर आई है। क्रौच-वध उतना पीड़ा-दायक शायद नहीं था, जितना तकलीफदेह है अकेले क्रौंचों का चीख-चीख कर करवटें तोड़ना। ...जाने किस विशाद को मैं रोज रात शाप देता हूँ कि उसकी प्रतिष्ठा हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी। जिससे मुझे अकेले सोने के लिए विवश किया है। ...लेकिन यह सब सोचने से आराम नहीं मिलता और तकलीफ बढ़ जाती है...

पहले एक खास चेहरा था, फिर वह चेहरा चला गया तो मोहल्ले की सारी लड़कियों के चेहरे सामने आ जाते, कहीं किसी भीड़ में देखा लड़की का चेहरा, कभी किसी फिल्म में देखी युवती का चेहरा...

हुट्ट...अपने आपसे बोला गया। बोर कर दिया यार... सोने दो। ...जैसे वह कोई और ही है, जो सोने नहीं दे रहा है। जाने कैसे चित लेट जाने की इच्छा हुई है। दोनों हाथ फैला लिये। पैर और चौड़े कर लिये, और आँखें भी खोल लीं। स्वीकार कर लिया कि नंद नहीं आयेगी। न आये तो न आये...एक गाली दे दी जाये। उम्र के साथ-साथ अजीब हुआ है। दिन में यह सब नहीं होता। लद्दीपन को फुरसत ही नहीं रहती। मन कहीं-न-कहीं उलझता रहता है या रस जाती है तबियत, लेकिन रात बड़ी मुश्किल होती है।...

फिर अजीब हुआ था। कभी किसी रात कोई चेहरा ध्यान में नहीं आया। वैसी स्थिति में केवल एक किसी भी नारी का ख्याल आता रहा! कोई भी शरीर हो, कोई भी। यहाँ तक लगता है कि उसका चेहरा नहीं हुआ तो भी चलेगा...

यह नहीं लगा कि यह मेरा पतन है कि अब केवल शरीर की जरूरत रह गई है, व्यक्ति की नहीं। कई बार यह लगा है कि इसी तरह उस निषाद से बदला लिया जा सकता है।

बदला लेने के लिए लेकिन जिंदगी पड़ी है... सवाल आज का है। मैंने करवट बदल ली और मन-ही-मन हाथ जोड़ कर फिर प्रार्थना की... तीसरा प्रहर हो रात का और कोई कमरे में तीस साल से अकेला सो रहा है, वह क्या प्रार्थना करेगा... प्रार्थना करके किसी तरह तो आराम मिले। सुबह-सुबह चार से छह का समय भयंकर होता है, उस समय आदमी कुछ नहीं कर सकता...। सुनते हैं सुबह-सुबह कुछ लोगों को बड़ी मीठी नींद आती है... उस मीठी नींद का कारण आधी रात तक सोची गई बातों से होता है शायद या रात एक बजे तक ओंठों पर झेले गए चुंबनों से होता है। यहाँ उलटा है - रात दस, ग्यारह, बारह... एक थका हुआ शरीर घर लौटता है और उस थकान के कारण वह निढाल हो जाता है। उसकी नींद टूटती है फिर उतरते पहर। वह उतरता प्रहर हूँ-हूँ-हूँ-हूँ करता, किसी दैत्य की तरह डराता है। शरीर का तना हुआ हिस्सा अकेले सोये आदमी को रुला तक देता है। तभी प्रार्थना करने को मन होता है... वहाँ कोई चेहरा नहीं है, जिसकी ख्वाहिश है। कभी कोई घटना नहीं होने को है कि प्रतीक्षा करें, कैसी जड़ विरक्ति आ गई है मन में-कोई नारी शरीर नहीं चाहिए, जिसे तोड़ने की इच्छा हो। यह भी कामना नहीं रही कि अब यह अकेलापन टूटे भी।

नींद की तकलीफ से तड़प कर अनुष्टुप की तरह प्रार्थना में एक पंक्ति मुँह से फूट पड़ी - 'हे ईश्वर! किसी भी शर्त पर मुझे नींद आ जाये, लेकिन केवल एक याचना है कि सवेरे जब जगूँ तो मुझे कुछ याद न रहे, केवल यह मालूम हो कि रात मुझे स्वप्न दोष हो गया...

अपनी भोगी हुई ईमानदारी से फूटी प्रार्थना थी ना... तभी तो नींद आ गई।