प्रियकांत / पूर्व-कथ्य / प्रताप सहगल
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ग्यारह साल बाद आ रहा है मेरा यह दूसरा उपन्यास-‘प्रियकांत’।
पहले उपन्यास ‘अनहद नाद’ में एक ऐसे बच्चे के युवा होने तक की विकास-यात्रा है, जिसने अपनी आँखें भारत-विभाजन के आसपास खोली थीं। विभाजन से 1970 तक की यात्रा में बनते हुए भारत को उसने जिज्ञासा-भरी निगाहों से देखा। कुछ समय, समाज और कुछ ख़ुद को पहचानने, समझने की कोशिश की।
1970 के बाद के भारतीय समाज में दो बातें ऐसी घटित हुई हैं, जिन्होंने विकास के साथ-साथ मूल्यों को पहले की अपेक्षा और भी तेज़ी से क्षरित किया है।
पहली बात है हमारी राजनीति का अपराधीकरण। ऐसी नहीं कि आपराधिक मनोवृत्ति के लोग उससे पहले राजनीति में नहीं थे, लेकिन आपातकाल के दौर में यह अपराधीकरण इतनी तेज़ी से हुआ कि उससे कोई भी राजनीतिक दल अछूता नहीं रहा। उसके दुष्परिणाम भारतीय समाज अभी भी भुगत रहा है और अभी भी राजनीति आपराधिक सोच से विलग नहीं हुई है।
दूसरी बात जो हमारे समाज ने देखी है, वह है धर्मगुरुओं और धर्माचार्यों का मूल्यहीन एवं दिशाहीन उदय। साठ और सत्तर के दशक में और बाद के समय में एक अंतर तो स्पष्ट रूप से लक्षित किया जा सकता है। बाद के समय में सभी छद्मावरण उतार दिए गए और धर्म के नाम पर खुला नंगा नाच सामने आया।
इन दोनों ही प्रवृत्तियों में उफान के लिए हमारे दो बड़े राजनीतिक दल ज़िम्मेदार हैं।
‘प्रियकांत’ में दूसरी प्रवृत्ति के एक धर्माचार्य के उदय को रेखांकित करते हुए कुछ बिंदुओं को पकड़ने और उन्हें समझने की कोशिश की गई है।
धर्मगुरुओं एवं धर्माचार्यों के इस तूफ़ानी विस्तार से मैं भी उतना ही हतप्रभ हूँ, जितने आप। यह उपन्यास इस तूफ़ानी विस्तार की पूरी प्रक्रिया का दस्तावेज़ नहीं है। यह तो बस नब्ज़ देखकर एक बीमारी को समझने की कोशिश-भर है।
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