प्रियकांत / भाग - 1 / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रियकांत ने आर्यसमाज के प्रचारक के रूप में आज अपनी तैयारी पूरी कर ली थी। प्रियकांत को ‘सुमुख’ या ‘प्रियदर्शी’ भी कहा जा सकता था। तर्कशील तो वह था ही। प्रचारक बनने की तैयारी करते हुए वह कई अन्य प्रचारकों से टकराया भी था। वेदों एवं वेदांगों तथा दूसरे धर्मों के आधारग्रंथों का भी उसने जमकर अध्ययन किया था। कहीं भी बहस करते हुए वह अपनी स्मरणशक्ति का सिक्का जल्दी ही जमा लेता। वेदों के सूक्त, स्मृतियों के छंद, उपनिषदों के श्लोक और ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के कई अंश उसे कंठस्थ थे। इतना ही नहीं, वह बहस करते हुए कुरान की आयतें एवं बाइबिल के वर्स या फिर बौद्ध और जैन साहित्य के कई प्रसंग इस तहर से लाता कि सामने बात करने वाले के छक्के छूटने लगते।

गुरुकुल से लेकर आर्यसमाज की यात्रा तक, मुख्य रूप से तो उसे यही सिखाया गया था कि सभी ज्ञानों का स्रोत वेद हैं। कहीं और किसी से भी शास्त्रार्थ करते हुए अंतिम साक्ष्य वेदों को ही मानना चाहिए। ‘सत्यार्थ प्रकाश’ का गहन अध्ययन करने से उसकी खंडनशील प्रवृत्ति प्रबल हो गई थी। धीरे-धीरे उसका पूरा रुझान केवल वेदों तक ही हो गया था।

प्रियकांत में सभी वे गुण थे, जिनकी अपेक्षा एक प्रचारक से की जाती है। ‘कृण्वंतो विश्वम् आर्यम्’ उसका महामंत्र था। प्रचारक बनने की कला उसने स्वामी विद्यानंद से सीखी थी।

अपने शिष्य को दीक्षा देते समय स्वामी विद्यानंद ने उससे कहा था-”तुम्हारे पर एक बड़ा ऋण है प्रियकांत!”

“कौन-सा ऋण गुरुजी ?”

“आर्यसमाज का ऋण।”

आपने आज तक तो मुझे केवल ऋण-त्रय ही समझाए हैं गुरुदेव!” प्रियकांत ने कहा था।

“हाँ, वो सब ऋण तो तुम उतार ही दोगे, लेकिन यह एक नया ऋण मैं तुम्हारे कंधों पद लाद रहा हूँ।”

“आदेश दें गुरुदेव!”

“आर्यसमाज का ऋण मुझ पर भी था प्रियकांत! मुझे जीवन में अनेक शिष्य मिले। उन्होंने अपनी-अपनी तरह से गुरु-दक्षिणा भी दी, लेकिन तुमसे मैं अलग प्रकार की गुरु-दक्षिणा की अपेक्षा करता हूँ।”

“आदेश दें गुरुदेव!”

“तुम्हें स्वामी दयानंद एवं आर्यसमाज एवं आर्यसमाज का ऋण उसी तरह से उतारना है, जिस तरह से स्वामी दयानंद ने अपने गुरु स्वामी विरजानंद का ऋण उतारा।”

“इसके लिए मुझे क्या करना होगा गुरुदेव ?”

“प्रचार! आर्यसमाज के सिद्धांतों का प्रचार। देश-विदेश के कोने-कोने में जाओ।...देखो, आज वैसा ही अनाचार है, वैसी ही जात-पात की कलह, वैसे ही धार्मिक अंधविश्वास, जैसे वे मनुष्य के विकास के आदिकाल में थे, मध्यकाल में रहे। तुम तो जानते ही हो कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्वामी दयानंद ने ही अंधविश्वासों के ख़िलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की थी। आज फिर उसी आवाज़ को दोहराने का वक़्त आ गया है प्रियकांत! वेदों का डंका एक बार फिर बजे, तुम उसके माध्यम बनो...मुझे तुमसे यही अपेक्षा है।”

“आपका आदेश शिरोधार्य है गुरुदेव!” कहकर प्रियकांत अध्ययन की दुनिया से प्रचार की दुनिया में प्रवेश कर गया।

प्रियकांत सुमुख तो था ही, लेकिन उसके व्यक्तित्व में कुछ अलग भी था। यह बात उसके सहयोगी मित्र एवं उसके गुरु तो कहते थे, वो स्वयं भी यह बात जानता था। उसे संगीत का अच्छा ज्ञान था और वह स्वयं भक्ति गीत भी लिख लेता। ख़ुद ही उनकी धुनें बनाकर जब वह अपने सुमधुर कंठ से सुनाता तो लगता कि प्रार्थनाओं के झरने बहने लगे हों। तभी न गुरुदेव ने उसे ही इतने बड़े काम का बीड़ा सौंपा था। इतने गुणों के मालिक किसी भी व्यक्ति का यह महसूस करना कोई बड़ी बात नहीं कि वह औरों से कुछ अलग है। कुछ क्यों, बहुत अलग है। उसकी अपनी अलग पहचान है। ऐसा प्रियकांत को भी लगा। अपनी अलग पहचान! वह सोचता कि यही ‘अलग पहचान’ ही तो व्यक्ति के महत्व को स्थापित करती है। उसे महत्वपूर्ण से महत्वपूर्णतर बनाती है। उसने मन ही मन निर्णय कर लिया था कि वह प्रचार की दुनिया में अपनी अलग पहचान लेकर उतरेगा और अलग पहचान स्थापित करके ही दम लेगा।

अलग पहचान बनाना वस्तुतः प्रियकांत की खूबी थी और उसकी कमज़ोरी भी। क़तार में खड़े होकर बढ़ना उसे पसंद नहीं था। क़तार में खड़े व्यक्ति की पहचान मात्र क़तार ही होती है, लेकिन क़तार से बाहर खड़ा आदमी तुरंत पहचाना जाता है। वह क़तार में खड़ा नहीं होगा।

हालाँकि वह जानता था कि प्रचारकों की एक लंबी क़तार उसके सामने है, पर वह तो जल्दी से जल्दी क़तार से निकल आर्यसमाज के प्रचारकों के पिरामिड में सबसे ऊपर बैठना चाहता था। पर यह होता कैसे ? वह जानता था कि केवल योग्य होने से सब हासिल नहीं हो जाता, योग्यता को प्रतिष्ठित भी करना पड़ता है। उपयुक्त अवसर के बिना यह संभव नहीं था।

‘अपनी पहचान स्थापित करने के फेर में क्या वह गुरुदेव को दिए गए अपने वचन की रक्षा कर सकेगा ?’ एक रात सोते हुए उसके मन में यह प्रश्न उछला।

उसी मन के दूसरे कोने से जवाब भी आया-‘क्यों नहीं, अपनी पहचान बनाने और आर्यसमाज का ऋण उतारने में विरोध कहाँ है ? आर्यसमाज का ऋण उतारने का अर्थ यही है न कि उन मूल्यों की स्थापना, जिनके लिए स्वामी दयानंद ने मृत्यु तक का वरण कर लिया...ऋण उतारने का अर्थ था धार्मिक अंधविश्वासों से लड़ना...ऋण उतारने का अर्थ था वैदिक धर्म का प्रचार करना...ऋण उतारने का अर्थ था संपूर्ण विश्व को आर्य बनाना।”

सोचते हुए प्रियकांत ने करवट बदली-‘क्या आज यह संभव है ? क्या उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध को आज दोहराना संभव है, आज...जब हम इक्कीसवीं शताब्दी के प्रवेश-द्वार के क़रीब हैं, क्या यह सब संभव है...नहीं...नहीं, कुछ नए तरीक़े खोजने होंगे...उद्देश्य तो वही...लेकिन आज की इस चकाचौंध-भरी दुनिया में हारमोनियम की आवाज़ नक़्क़ारख़ाने में तूती की आवाज़ है। आज जो भी कहना है, शिखर पर चढ़कर ही कहना है...पिरामिड में सबसे ऊपर...तभी कोई सुनता है।’

प्रियकांत ने फिर करवट बदली-‘कहीं मैं अपनी राह से भटक तो नहीं रहा...कोई बहाना बनाकर किसी और राह की ओर तो नहीं जा रहा...गुरुदेव का सूक्ष्म मन मुझे देख रहा है।’

‘देखे...पर मैं जानता हूँ, मन कोई एक नहीं। जितनी कर्मेद्रिंयाँ, उतने मन...पाँच मनों का एक है अधिष्ठाता मन...पाँच मनों को संचालित करने वाला और उनसे संचालित होने वाला छठा मन...यही छठा मन जो अंदर से बाहर संकेत भेजता है और बाहरी पाँच मनों के संकेत अंदर लेता है...’ प्रियकांत की बेचैनी लगातार बढ़ती जा रही थी। वह जानता था कि पाँच मनों एवं छठे मन के खेल को देखने वाला एक सातवाँ मन भी था-अवेयरनेस। यही सातवाँ मन प्रियकांत की परेशानी का सबब भी था।

प्रियकांत बहुत देर तक इसी उधेड़बुन में करवटें बदलता रहा। द्वंद्व की स्थिति हो तो व्यक्ति निपट लेता है, लेकिन दुविधा की स्थिति में वह त्रिशंकु हो जाता है। प्रियकांत दुविधा की स्थिति में था।

यह दुविधा की स्थिति पैदा हुई कैसे ? दरअसल गई शाम प्रियकांत का एक पुराना मित्र माधव उसे अपने किसी दोस्त के घर यह कहकर ले गया था कि वहाँ आइस्कॉन वालों का संकीर्तन है, तो वह उसे भी देखे। प्रियकांत ने उसे कई बार कहा था कि मूर्तिपूजा और इस प्रकार की सगुण भक्ति में उसका विश्वास नहीं है, फिर उसे वहाँ आमंत्रित भी नहीं किया गया तो वह वहाँ क्यों जाए ? लेकिन माधव नहीं माना। वह प्रियकांत को केवल यह दिखाना चाहता था कि भक्ति-संगीत की लय में कितना आह्लाद है। देखे कि प्रचार की विधियाँ कैसी-कैसी हो सकती हैं।

प्रियकांत ने कहा भी था-”माधव, इस सबमें मेरी आस्था नहीं है।”

“कृष्ण में तो है न ?”

“योगिराज कृष्ण में, कूटनीतिज्ञ कृष्ण में, ना कि भगवान् कृष्ण में।”

“मत मानो कृष्ण को भगवान्, देखो तो सही चलकर, प्रभु-भक्ति की लय में लोग कैसे लीन होते हैं।”

“अज्ञानी हैं ये सब।”

“मैं भी...” माधव कह रहा था-”मैं भी अज्ञानी हूँ प्रियकांत...तुम्हें इन्हीं का अज्ञान ही तो दूर करना है न! देखो, समझो, फिर उसका त्याग करो तो समझ में आता है, बिना देखे, बिना समझे त्याग...यह समझ नहीं, कोरा अहंकार है।”

प्रियकांत माधव की इस युक्ति के सामने अवाक् था।

“ठीक है, चलूँगा।”

उसी शाम प्रियकांत माधव के साथ उसके मित्र के घर गया।

घर का प्रवेश-द्वार ही ग्रेनाइट पत्थर की चमक से गृहपति की आर्थिक संपन्नता का बखान कर रहा था। महँगे जबलपुरी संगमरमर की सीढ़ियाँ...रास्तों में जगमकाते दीपदान...फूलों से भरी टोकरियाँ...चमचमाते इटालियन मार्बल के फ़र्श, यानी घर में वैभव एवं ऐश्वर्य क़दम-क़दम पर बिखरा हुआ था।

संकीर्तन छत पर था...जैसे-जैसे सीढ़ियाँ कम हो रही थीं...‘हरे कृष्णा हरे कृष्णा, कृष्णा कृष्णा हरे हरे, हरे रामा हरे रामा, रामा रामा हरे हरे’ की संगीतभरी ध्वनियाँ क़रीब आ रही थीं।