प्रियकांत / भाग - 2 / प्रताप सहगल
प्रियकांत ऊपर पहुँचा। कृष्ण की प्रतिमा सामने थी। उसी के पास रखी थी प्रभुपाद की मूर्ति। शेष लोग उसी छोटे से चबूतरे के सामने बैठे ‘हरे कृष्णा हरे कृष्णा’ का जाप कर रहे थे। झक सफ़ेद कपड़े पहने लगभग दस युवक एक लय में बँधे थिरक रहे थे। पूरे माहौल में अगरबत्तियों से उठती केवड़े की गंध तैर रही थी। उस पूरे परिवेश में भक्त जन जैसे ट्रांस में जा रहे थे। माधव ने प्रियकांत को सबसे आगे बिठाया। प्रियकांत प्रतिमाओं के सम्मुख बिना माथा टेके ही बैठ गया था। यह बात आइस्कॉन के स्वामी को अखरी थी। वह थोड़ी देर प्रियकांत को भेदक दृष्टि से देखता रहा। फिर भक्त जनों को ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ का जाप करवाने लगा। प्रियकांत ख़ामोश था।
स्वामी थिरकते युवकों का उत्साह बढ़ा रहा था। वह बीच-बीच में कनखियों से प्रियकांत को भी देख लेता। उसे लगा, जैसे उसके धार्मिक स्वत्व को उसके सामने ही कोई चुनौती दे रहा है। अतः उससे रहा नहीं गया। बोला-”आप भी जपो न प्रभु का नाम...”
“जप में मेरी आस्था नहीं है,” कहकर प्रियकांत वहाँ से उठना चाहता था, लेकिन माधव ने हाथ पकड़कर रोक लिया।
थोड़ी ही देर में कीर्तन समाप्त हुआ तो सभी प्रसाद लेकर विसर्जित हो गए, लेकिन वह स्वामी अपने दस शिष्यों के साथ गृहस्वामी के ड्राइंग रूम में विराजमान था। माधव प्रियकांत को भी वहीं ले गया। गृहस्वामी एवं शेष सभी लोग स्वामी एवं दूसरे आइस्कॉन प्रचारकों की सेवा में जुटे हुए थे। प्रियकांत की ओर किसी का भी ध्यान नहीं जा रहा था।
इक्का-दुक्का लोग कमरे में आते और स्वामी की चरणवंदना कर, उसका आशीर्वाद पाकर चले जाते।
स्वामी जी ने माधव को संबोधित करते हुए पूछा-”कैसा चल रहा है माधव जी ?”
“सब कुशल है।”
“कामधंधा ?”
“बढ़ रहा है।” माधव ने कहा
“बस, हमारी तो यही इच्छा है कि प्रभुपाद की कृपा से आप भी जल्दी ही गुप्ता जी जैसा घर बनवा लें...क्यों गुप्ता जी! आइस्कॉन से जुड़ने के बाद आपका अनुभव ठीक रहा न ?”
“इतनी कृपा तो कभी मिली नहीं स्वामी जी!”
स्वामी बात तो गृहस्वामी गुप्ता जी से कर रहा था, लेकिन उसकी निगाहें प्रियकांत की ओर ही थीं। कुछ इस तरह से कि वह प्रियकांत को देख भी रहा था, उपेक्षा भी कर रहा था।
प्रियकांत इस पूरी स्थिति में अपने को उपेक्षित ही अनुभव कर रहा था, लेकिन जानता था कि यहाँ इन लोगों से बहस करने का कोई अर्थ नहीं। न संतोष! न धन! न प्रचार! सोच रहा था कि माधव के कहने पर वह यहाँ आया ही क्यों ? उसे लगा कि उसने यहाँ आकर बड़ी भूल की। उसे तो अपना साम्राज्य बनाना था। फिर इनके साथ...शिट्...
“माधव, चलता हूँ। चलना है तो चलो।” प्रियकांत के स्वर में अटपटाहट थी।
माधव ने प्रियकांत के चेहरे पर फैली क्रोध की रेखाएँ पढ़ लीं और सभी को नमस्कार करते हुए प्रियकांत के साथ ही बाहर निकल गया।
प्रियकांत ने भले ही गुप्ता जी के घर पर उपेक्षा झेली, लेकिन उसके मन में यह बात पहले से भी अधिक बलवती होकर बैठ गई कि सफलता में ही सार्थकता है। हालाँकि गुरु विद्यानंद ने उसे हमेशा यह सिखाया था कि सफलता और सार्थकता में से यदि एक को चुनना हो तो हमेशा सार्थकता को चुनना। सफलता में दंभ है, सार्थकता में समर्पण। सफलता बाहरी तत्व है, सार्थकता मन की तृप्ति है। लेकिन गुप्ता जी के घर मिली उपेक्षा से प्रियकांत उबर नहीं पा रहा था। तभी उसने मन ही मन यह निश्चय कर लिया था कि सफलता उसके जीवन की पहली मंज़िल है और उस मंज़िल तक पहुँचने के लिए जो भी सफल व्यक्ति मिलेगा, वह उस पहली मंज़िल तक पहुँचने की सीढ़ी होगा...सीढ़ी दर सीढ़ी वह पहुँचेगा। पिरामिड के शिखर तक। तब लोग सुनेंगे उसकी आवाज़।...फिर सोचेगा वह कि उस सफलता को सार्थकता में कैसे बदला जा सकता है।
प्रियकांत को विभिन्न आर्यसमाजों से प्रवचन के लिए निमंत्रण मिलने लगे थे। प्रचार-कार्य करते हुए उसकी नज़र हमेशा ऐसे लोगों पर रहती, जो जीवन में सफल कहे जाते हैं। ऐसा ही एक व्यक्ति उसे मिला-नितिन।
नितिन फ़िल्म-निर्माता था। फ़िल्मों के टेंशन-भरे माहौल से भागकर वह जब-तब दिल्ली आ जाता। दिल्ली से भागकर ही तो वह मुंबई गया था। कुछ साल एड़ियाँ रगड़ीं, असिस्टेंट डायरेक्टी की, फिर डायरेक्टर हुआ...। फ़िल्मी दुनिया में अच्छा-बुरा, सार्थक-असार्थक कुछ नहीं होता। वहाँ या तो व्यक्ति सफल होता है या असफल। नितिन धीरे-धीरे एक सफल डायरेक्टर और फिर एक सफल फ़िल्म-निर्माता बन गया था।
फ़िल्मी दुनिया के चक्रव्यूह में फँसा वह जब-तब दिल्ली आ जाता। यहाँ उसे लगता, वह अपनी जड़ों से जुड़ा हुआ है। उसके संस्कार आर्यसमाज के ही थे, इसलिए वह रविवार का पूर्वाह्न आर्यसमाज में ही बिताता। गए रविवार को भी नितिन आर्यसमाज के साप्ताहिक सत्संग में चला आया था। वहाँ उस दिन प्रियकांत का ही प्रवचन था। नितिन प्रियकांत के प्रवचन से प्रभावित हुआ और उससे स्वयं ही मिलने चला आया-”नमस्कार।”
प्रियकांत नमस्कार का जवाब नमस्कार से देते हुए नितिन में कुछ खोजने लगा। नितिन के पहनावे, उसकी चाल-ढाल, बोल-चाल से प्रियकांत को लगा कि इस व्यक्ति में ऐसा कुछ ज़रूर है, जो उसे दूसरों से अलग करता है।
“मेरा नाम नितिन है, नितिन कपूर।”
प्रियकांत का माथा ठनका-”कहीं आप वही फ़िल्म वाले नितिन कपूर...?”
“जी...”
प्रियकांत ने अपने स्वर में अतिरिक्त कोमलता भरते हुए कहा-”आइए, बैठिए न...यहाँ इधर...” कहते-कहते प्रियकांत थोड़ा अव्यवस्थित भी हो गया था।
प्रियकांत के पास ही बैठते हुए नितिन ने कहा-”आप गाते बहुत अच्छा हैं।”
प्रियकांत को यह बात पहले भी बहुत लोग कह चुके थे, लेकिन वे आम लोग थे। वही बात आज कहने वाला नितिन कपूर है...फ़िल्म-निर्माता नितिन कपूर। आज प्रियकांत को अपने मधुर कंठ पर नाज़ हो रहा था। नाज़-भरे अंदाज़ में ही वह बोला-”लिखता भी हूँ, धुनें भी ख़ुद ही बनाता हूँ।”
“ऐसा...” नितिन खेला-खाया आदमी था। उसे स्वार्थरहित माने जाने वाले प्रियकांत के चेहरे के पीछे स्वार्थलोलुप चेहरा दिखने लगा। शेष लोग प्रसाद लेकर जा चुके थे। अब बात
अधिक इत्मीनान से हो सकती थी। प्रियकांत के अंदर बैठा महत्वकांक्षी आदमी उछलने लगा था। वह इस बात की भरसक कोशिश कर रहा था कि उछल-कूद करते उस महत्वकांक्षी आदमी का चेहरा प्रियकांत के चेहरे पर न नाचने लगे। उसने अपने उस चेहरे को भरसक दबाते हुए पूछा-”नया क्या बना रहे हैं ?”
नितिन फ़िल्मों में बड़े-बड़े अभिनेताओं से अभिनय करवा-करवाकर प्रौढ़ हुआ था। जल्दी ही समझ गया, स्साला एक्टिंग कर रहा है। सीधे-सीधे क्यों नहीं कहता कि मुझे भी किसी फ़िल्म में काम दो। नितिन खेल खेलने लगा-”कुछ नहीं...एक फ़िल्म फ़्लोर पर है, दूसरी जल्दी ही लॉन्च कर रहा हूँ, तीसरी की कहानी लिखी जा रही है।”
अब तो प्रियकांत से रहा नहीं जा रहा था। अंदर का चेहरा बाहर कूदकर उसके चेहरे पर सवार हो गया-”संगीत किसका है ?”
“अभी तय नहीं किया...शायद रंजन-राजन का।” नितिन ने खेल को थोड़ा और आगे बढ़ाया।
प्रियकांत भी इस बात से परिचित था कि फ़िल्म-संगीत में रंजन-राजन की जोड़ी हिट थी, फिर भी वह हाथ में आए इस अवसर को हक़ीक़त में बदल देना चाहता था। पर अब कहता क्या ? अभी थोड़ी देर पहले ही तो वह प्रभु-भक्तों को प्रेय और श्रेय का मतलब समझा रहा था। उन्हें प्रेय से श्रेय की ओर आने के लिए प्रेरित कर रहा था। नितिन ने भी तो वह सब सुना होगा।
प्रियकांत का महत्वकांक्षी चेहरा बहुत उछल-कूद करता रहा। इतना उछला-कूदा कि बिना गोल किए ही थककर सुस्ताने लगा। नितिन को प्रियकांत के चेहरे से मुलम्मा उतरते देख बड़ा मज़ा आ रहा था। वह मन ही मन सोच रहा था कि प्रियकांत के अंदर एक कॉम्प्लेक्स चरित्र छिपा हुआ है। वह अपनी किसी फ़िल्म में इसी चरित्र को उतारने की योजना बनाने लगा था। चरित्र कॉम्प्लेस हो या मज़ाहिया भी, तो चरित्र निभाने वाले अभिनेता को तो मज़ा आता ही है-दर्शकगण भी ऐसे चरित्र को बहुत पसंद करते हैं। मन में उतरी इस बात को अभी वह प्रियकांत के सामने नहीं खोलना चाहता था। उसे नहीं बताना चाहता कि फ़िल्म वाले इसी तरह के चरित्रों को खोजते हैं और फिर कुछ जमा-घटा करके उसे पर्दे पर उतारते हैं। प्रत्यक्षतः नितिन ने कहा-”ज़रूरत पड़ने पर आपको कहाँ ढूँढूँ ?”
प्रियकांत के डूबते चेहरे पर आशा की पतली-सी किरण तैरने लगी। तब प्रियकांत आर्यसमाज के एक मंदिर में ही रहता था। अपना पता पकड़ाते हुए बोला-”यहाँ, या फिर दीवान हॉल के पते पर चिट्ठी डाल दें, मुझे मिल जाएगी।” दरअसल प्रियकांत अपने दो-दो पते देकर स्वयं ही आश्वस्त होना चाहता था कि नितिन कहीं पता खो दे, भूल जाए तो दीवान हॉल, चाँदनी चौक, दिल्ली तो नहीं ही भूल सकता। वह तो वहाँ आता-जाता ही रहता था।
नितिन ने “ठीक है,” कहकर पते की पर्ची जेब में रखी और चल दिया।
उस समय प्रियकांत का मुँह ऐसे खुला हुआ था, जैसे किसी ने उसके मुँह में लॉलीपाप डलकर खींच लिया हो।