प्रियकांत / भाग - 3 / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नितिन को शायद प्रियकांत की ज़रूरत नहीं पड़ी। वह जल्दी ही उसे भूल गया। जिन चीज़ों की व्यक्ति को ज़रूरत नहीं रहती, व्यक्ति अकसर उन्हें भूल ही जाया करता है। प्रियकांत जब-जब उस आर्यसमाज में प्रवचन करने जाता, उसकी निगाहें नितिन को खोजती रहतीं। दो-एक जन से उसने नितिन के बारे में जानना भी चाहा, लेकिन कोई भी उसकी मदद नहीं कर सका।

आशा की डोर कितनी ही पतली, कितनी ही कमज़ोर क्यों न हो, आसानी से नहीं टूटती। फिर प्रियकांत तो अभी युवा था। उसकी आँखों में भविष्य के सुनहरे सपने थे। खुली हुई दुनिया थी। कुछ करने की तमन्ना थी और सामर्थ्य भी। नितिन भले ही उसे उसके बाद कभी दिखा नहीं, लेकिन उसने यह विकल्प कभी बंद नहीं किया।

प्रियकांत अब एक ट्रैक पर चल रहा था। धीरे-धीरे उसे एक ही ट्रैक पर चलते रहना बड़ा उबाऊ लगने लगा। तोते की तरह से वही दो-चार रटे-रटाए मंत्र पढ़ना। उनके वही अर्थ खोलना, वही दो-चार भजन, वही लोग, वही प्रसाद, वही दक्षिणा-कुछ भी तो बदल नहीं रहा था।

गुरुकुल एवं स्वामी विद्यानंद से प्राप्त शिक्षा उसे नाकाफ़ी लगने लगी थी। कुछ समय पहले ही तो ‘कृण्वंतो विश्वम् आर्यम्’ का महास्वप्न देखा था उसने; लेकिन यह महास्वप्न हक़ीक़त में कैसे बदलेगा ? वह कितने आर्यसमाजों में प्रवचन दे चुका था, कितने ही आर्यसमाजियों के संपर्क में आ चुका था। उसने देखा था कि अब आर्यसमाजियों की कथनी और करनी में बहुत बड़ी फाँक आ चुकी है। एक समय था जब आर्यसमाज एक आंदोलन था...सामाजिक सुधार हो या स्वतंत्रता की लड़ाई-हर मोर्चे पर आर्यसमाज का अनुयायी आगे रहता था...एक समय था कि इनकी कथनी

एवं करनी एकमेक थी...एक समय था कि न्यायालय में एक आर्यसमाजी की गवाही पर मुक़दमों के फ़ैसले हो जाते थे...एक समय था कि...न जाने कितने ही तर्क देने के बाद प्रियकांत ने ख़ुद से ही पूछा था कि क्या अब इन बदले हुए आर्यसमाजियों के भरोसे विश्व को आर्य बनाया जा सकता है ? अपने आदर्शों पर मर-मिटने वाले आर्यसमाजी अब कहाँ हैं ? विश्व तो आर्य क्या बनेगा, समाजों में आने वाले स्वयं ही आर्य नहीं रहे। प्रवचन सुनने तक के लिए बूढ़े तोते ही अधिक दिखाई देते हैं। न दृष्टि, न स्वप्न, न सामर्थ्य...इनके सहारे होगा परिवर्तन ?

न जाने मन की कितनी-कितनी परतों के नीचे से इस प्रश्न का उत्तर उसे ‘न’ मिला था।

धीरे-धीरे प्रियकांत आत्मकेंद्रित होने लगा। स्वामी विद्यानंद द्वारा दी गई शिक्षा उसे अधूरी लगने लगी। वह रात-रात-भर बेचैने रहता। सोचता कि कैसे वह आगे बढ़े। कैसे उसके नाम का डंका बजे। कैसे समृद्धि उसके चरण चूमे। एक रोज़ यही सब सोचते-सोचते उसके स्मृतिपटल पर एक कौंध आई।

उसे याद आया, एक बार माधव उसे रेडियो स्टेशन ले गया था। माधव जानता था कि प्रियकांत में लिखने की अप्रतिम प्रतिभा है, लेकिन उसका समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा था। उन दिनों वे दोनों संघर्षशील युवक थे। संघर्ष तो अभी भी जारी था, लेकिन संघर्ष का स्तर बदल गया था। तब प्रियकांत को अपने सरवाइवल के लिए पैसों की सख़्त ज़रूरत थी। सिवाय पढ़ने, पढ़ाने या लिखने के वह और कुछ कर सकेगा, इसके लिए वह आशंकित रहता। माधव दो-तीन बार रेडियो पर कार्यक्रर्मों में हिस्सा ले चुका था। वह प्रियकांत को उसी राह पर डालना चाहता था। माधव की पहुँच रेडियो स्टेशन की एक प्रोड्यूसर प्रमिला राही तक थी।

माधव ने ही प्रियकांत का परिचय देते हुए प्रमिला राही से कहा था-”मैडम! यह प्रियकांत...मेरा दोस्त...बहुत ही प्रतिभाशाली है। गीत, कविता, भजन, नाटक, फ़ीचर, वार्ता-कुछ भी लिखवा लीजिए...गाता तो अच्छा है ही...संगीत का भी इसे अच्छा ज्ञान है।”

प्रमिला राही चालीस के आसपास की एक प्रौढ़ महिला थी। केवल पहनावे से अगर व्यक्तित्व का अनुमान लगाया जा सकता हो, तो प्रमिला राही की गिनती अधुनातन महिलाओं में की जा सकती थी। बॉब-कट बाल, चेहरे पर हलका मेकअप, सुनहरी फ्रेम में जड़े चौड़े गोल शीशों वाला चश्मा, स्लीवकेस ब्लाउज़, नाभि के नीचे बँधी साड़ी और बेपरवाह तरीके से लिया गया साड़ी

का पल्लू। कुल मिलाकर प्रमिला का प्रभाव सकारात्मक ही पड़ता था। प्रमिला के पास तो रोज़ ही कोई न कोई मिलने आता था। उन दिनों टी.वी. का विस्तार तो होने लगा था, लेकिन रेडियो का आकर्षण कहीं भी कम नहीं हुआ था।

माधव से प्रमिला परिचित थी। उसने ग़ौर से प्रियकांत को देखा और कहा-”प्रियकांत जी, कुछ लिखिए, हमारे लिए...एकदम बिंदास...कुछ बिंदास...यू सी...ज़रा हटके...सब वही कर-करके मैं बोर हो चुकी हूँ।”

प्रमिला ने अपनी बात पूरे लटके-झटके के साथ कही थी। इन्हीं लटकों-झटकों में ही उसका आत्मविश्वास झलकता था, या कहें कि इन्हीं लटकों-झटकों के पीछे उसकी कमज़ोरियाँ इस तरह छिपी रहतीं कि वे जल्दी से दूसरों के सामने उजागर नहीं होती थीं।

प्रियकांत की न तो यह समझ में आया कि मैडम ‘सब वही’ कहकर क्या समझाना चाहती हैं और ना ही उसे ‘ज़रा हटके’ वाला जुमला पसंद था। वह जानता था कि यह जुमला फ़िल्मी दुनिया से चला है। वहाँ हर आदमी अपनी फ़िल्म को ‘ज़रा हटके’ बता रहा था। पढ़े-लिखे तबकों में यह जुमला हलके-फुलके मज़ाक़ का केंद्र बन गया था। वह प्रमिला राही से पहली बार मिला था और कोई अमर्यादित टिप्पणी करके अशिष्ट नहीं होना चाहता था। अपनी हर टिप्पणी को अंदर ही दबाकर वह इतना ही कह पाया था-”जी...जी...देखता हूँ...ज़रा हटके...” इसी के साथ ही उसने पास बैठे माधव के पाँव से अपना पाँव टकराकर संकेत दिया कि ‘चलो’।

बाहर आकर वह माधव पर उस दिन बहुत झल्लाया था-”कहाँ ले जाकर फँसा दिया! बिना मेरा काम देखे ही ‘वही सब’, ‘ज़रा हटके’-यह सब क्या है ? रेडियो स्टेशन इन्हीं लोगों के दम पर ही चलता है?”

“नहीं यार, यह तेरे-मेरे जैसों के दम पर चलता है। काम करो, पैसा लो...बात ख़त्म...पर एक बात कहूँ प्रियकांत! कभी-कभी इस बहाने अच्छा काम भी हो जाता है...पहले कर...अच्छा न लगे तो छोड़ देना।”

प्रियकांत को पैसों की सख़्त ज़रूरत थी। वह रेडियो के लिए लिखने लगा। नाटक, वार्ता, फ़ीचर-सब लिखा और फिर धीरे-धीरे उसे लगा कि रेडियो कहीं भी उसके व्यक्तित्व का विकास

नहीं कर रहा। उसे तो कुछ और करना हैं एक दिन खिन्न होकर उसने रेडियो स्टेशन जाना छोड़ दिया।

आज अचानक उसे ‘ज़रा हटके’ वाला जुमला बड़ा सार्थक लगने लगा। उसके गुरुदेव स्वामी विद्यानंद ने दक्षिणास्वरूप बड़ी चीज़ माँगी थी। एक ओर अपने गुरु के प्रति वह कृतज्ञ था और कोई बड़ा काम करना चाहता था, तो दूसरी ओर उसके अंदर बैठा महत्वकांक्षी मन नितिन जैसों को सीढ़ी बनाने के लिए तत्पर था।

उसे निर्णय लेना था कि वह जीवन-भर एक प्रचारक ही बना रहेगा या ‘ज़रा हटके’ कुछ करेगा ? कैसे-कैसे लोग धर्माचार्य बने बैठे हैं! उसके पास तो पूरी परंपरा का ज्ञान है। वही मात्र एक प्रचारक क्यों बना रहे...? इस राह से न हट सकने की एक ही वजह थी-स्वामी विद्यानंद की मानसिक उपस्थिति। उसे वह बड़ी ऊहापोह के बाद भी ख़ारिज नहीं कर पा रहा था। पर एक बात अब उसके सामने बिलकुल स्पष्ट थी कि अगर वह ‘ज़रा हटके’ कुछ नहीं करेगा तो उसे न यश मिलने वाला है, न समृद्धि।

उसने निर्णय ले लिया कि इस समर में उसे उतरना ही होगा। यही होगा उसका कुरुक्षेत्र। उसे अपना दीपक आप ही बनना होगा। और सचमुच अगले ही दिन उसने समर में उतरने की तैयारी शुरू कर दी। उसके इस समर की तैयारी का इलाक़ा कभी दिल्ली विश्वविद्यालय का पुस्तकालय होता तो कभी ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी। कभी वह अमेरिकन सेंटर में दिखता तो कभी आई.आई.सी.आर. में। कभी इंडिया हैबिटेट सेंटर में होता तो मारवाड़ी लाइब्रेरी में। दिल्ली का कोई भी बड़ा पुस्तकालय उसने नहीं छोड़ा। उन पुस्तकालयों में अधिकतर वह देशी-विदेशी पत्रिकाएँ खँगालता और उनमें से वही प्रसंग कथाएँ या जानकारियाँ ढूँढ़ता, जो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में या तो भारतीयता के साथ जुड़तीं या फिर व्यक्ति के रोज़मर्रा जीवन के साथ। उसने इन सब प्रसंगों एवं जानकारियों को दर्ज करने के लिए एक डायरी बना ली थी। डायरी के कोरे पन्नों पर धीरे-धीरे भविष्य के प्रवचनों की इबारतें उतर रही थीं।