प्रियकांत / भाग - 4 / प्रताप सहगल

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दिल्ली में एक पॉश इलाक़ा मधु विहार। देश के विभाजन के वक़्त बसी कॉलोनियों में से एक कॉलोनी। दिल्ली में बहुत-सी कॉलोनियों को विभाजन के समय नए-नए बने पाकिस्तान से आए विस्थापितों ने बसाया था। इन्हीं विस्थापितों में एक था गुलशन। गुलशन तीस के आसपास एक स्वस्थ प्रौढ़ युवा था। लंबा क़द, भरा हुआ शरीर, गोरे चेहरे पर झलकता तेज, आत्मविश्वास से भरी चाल-कुल मिलाकर वह एक प्रभावशाली व्यक्तित्व का मालिक था। पश्चिमी पंजाब में अपने पिता के साथ वह दवाओं का थोक व्यापारी था। विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों की आग में उसका कारोबार, घर सब जल गया। वह पिता, पत्नी एवं तीन बच्चों के साथ किसी तरह जान बचाकर दिल्ली पहुँच गया था। कुछ समय वह ‘शरणार्थी शिविरों’ में रहा। उसे ख़ुद को शरणार्थी कहलवाना क़तई पसंद नहीं था। उसके सामने ही उसे कोई शरणार्थी कहता तो वह उसके गले पड़ जाता-‘हम शरणार्थी नहीं हैं, अपनी ज़मीन से उखड़े हुए लोग हैं, विस्थापित हैं’-पर कितने लोगों को वह यह बात समझाता। उसे अब इन्हीं हालात में अपना भविष्य सँवारना था।

विभाजन के समय आए लोगों में से कुछ नौकरी करने लगे; लेकिन अधिकतर लोगों ने अपना कामधंधा ही जमाया। गुलशन को एक ही काम आता था-दवाएँ बेचना। वह भी थोक में। बिना पूँजी, बिना ठिकाने के वह यह सब कैसे करता ? जैसे-तैसे उसने कुछ पैसे इकट्ठे किए और चीनी की एक बोरी ख़रीदकर खारी बावली की पटरी पर बैठ गया। उसके साथ और भी कई लोग इसी तरह चाँदनी चौक, भागीरथ पैलेस आदि जगहों पर कुछ धंधा करने लगे।

गुलशन कुछ अव्यवस्थित ज़रूर हो गया था, लेकिन मानसिक रूप से वह पहले से भी अधिक सतर्क था। गुलशन की व्यावसायिक बुद्धि कमाल की थी। वह जिस रेट पर चीनी ख़रीदता, उसी रेट पर बेच देता। थोक-विक्रेता और दूसरी संगी-साथी परेशान थे कि वह कैसा धंधा कर रहा है। बिना मुनाफ़े के धंधा! शाम तक वह एक या दो बोरी चीनी बेच लेता। संगी-साथियों में यह बात फैल गई-तोल में डंडी मारता होगा। वस्तुतः खारी बावली में पहले से ही धंधा करते कारोबारियों की नज़र में गुलशन और उस जैसे तमाम लोग या तो पाकिस्तानी थे या पंजाबी। ‘पंजाबी’ शब्द को वे एक गाली की तरह से इस्तेमाल करते। पंजाबियों की सरवाइवल इंस्टिक्ट के सामने वे कई बार ख़ुद को बेबस-सा अनुभव भी करने लगते थे। उन्हीं में से किसी

ने यह बात प्रचारित भी कर दी। उससे ख़रीदी चीनी को कई-कई बार तौला गया तो वही तौल। सेर तो सेर, पाव तो पाव!

आख़िर एक दिन उसके घनिष्ठ मित्र घनश्याम ने उससे पूछा-”यार, तू करता क्या है ? बिना मुनाफ़े के माल बेच देता है ? लोक-सेवा करने आया है क्या ? खाना गुरुद्वारे से खाता है ?”

“इधर आ,” घनश्याम को एक ओर ले जाकर गुलशन ने उसे अपना बिज़नेस सीक्रेट समझा दिया-”मैं ख़ाली बोरी पर खेलता हूँ। ख़ाली बोरी बिकती है न, वही है मेरी बचत।”

घनश्याम की आँखों में एक चमक आ गई-”मैं भी ऐसे ही बेचूँ ?”

“बेच। मुझे क्या, औरों को भी बता...हमें इस खारी बावली पर कब्ज़ा करना है...यह लाले हमें हिकारत से देखते हैं और ख़ुद हैं डंडीमार...हम डंडी नहीं मारेंगे, तरक़ीब से काम करेंगे, मिलकर...तू देख लेना, हम इस पटरी पर हमेशा रहने वाले नहीं, इन दुकानों के अंदर घुसेंगे...”

“यह ख़याल तुझे कैसे आ गया यार ?”

“मेरे दादा जी ने अपने जीवन में बड़ा संघर्ष किया था...फिर बड़े व्यापारी बने...उन्होंने मुझे व्यापार करने का एक सूत्र पकड़ाया था।”

घनश्याम उत्सुक निगाहों से गुलशन को देखता रहा।

“वो कहते थे, व्यापार में कामयाब वही हो सकता है, जो न अक्के, न झक्के, न थक्के।”

घनश्याम की उत्सुकता को चुप्पी ने ढक लिया। यह सूत्र उसकी समझ में भी आ गया और वह नई ऊर्जा के साथ काम में जुट गया।

गुलशन और घनश्याम दोनों पश्चिमी पंजाब के झंग प्रदेश से थे। विभाजन से पहले उन दोनों में इतनी घनिष्ठता नहीं थी, जितनी विभाजन के बाद दिल्ली में आकर हो गई। दुःख का साथी दुखिया ही होता है। दोनों अब यहाँ अपने पाँव जमाने में लगे थे। और सचमुच उनके पाँव जल्दी जमने भी लगे।

रात-दिन मेहनत। सुबह सात बजे से रात दस बजे तक सिर्फ़ काम। गुलशन को दवाएँ बेचने का भी अनुभव था। उसने चीनी का धंधा जमाने के बाद दवाओं का काम भी शुरू कर दिया। गली-गली में घूमकर और दुकान-दुकान पर जाकर। कंधे पर थैला, हाथ में डिब्बा। धीरे-धीरे उसका यह काम भी जमने लगा। उसने भगीरथ पैलेस में एक दुकान का छोटा-सा कोना

किराए पर ले लिया। उसका भाग्य कहिए, संयोग कहिए, मेहनत कहिए, या जो भी नाम दे लें, परिणाम यह था कि गुलशन का यह काम चीनी के व्यापार के काम से भी ज़्यादा जमा। कैसे जमाया उसने अपना काम, यह ट्रेड सीक्रेट वह किसी को भी बताता नहीं था। शायद उसकी दिलदारी, कुछ भी कर गुज़रने की हिम्मत, सरवाइव करने की गहरी ललक या भविष्य के सपने उसे हमेशा आगे बढ़ाते रहे। इसके लिए उसे परंपरागत मूल्यों को तोड़ना पड़ा, तो उसने तोड़े। व्यापार के अपने मापदंड तय किए। उसने मंत्र गढ़ा कि सिर्फ़ मुहब्बत और युद्ध में ही सब जायज़ नहीं होता, बल्कि व्यापार में सफल होने के लिए भी सब जायज़ होता है। उसे देखकर घनश्याम में भी हिम्मत जगी। उन दोनों को देखकर औरों में साहस आया। यानी सभी ने अपने-अपने तरीक़ों और अपनी-अपनी क्षमता से कामयाबी के झंडे गाड़ने शुरू कर दिए।

उन दिनों दिल्ली शहर छोटा और जंगल-खेत ज़्यादा था। पुरानी दिल्ली, नई दिल्ली, दूर-दराज़ बसे गाँव। बस। शेष दिल्ली में या तो खेत थे, या भट्ठे या फिर अव्यवस्थित जंगल।

इन्हीं इलाक़ों में कॉलोनियाँ बसनी शुरू हुईं। कहीं सरकार ने बसाईं, कहीं विस्थापितों द्वारा बनाई गई सोसाइटियों ने तो कहीं निजी कंपनियों ने। इस तरह दिल्ली का विकास होने लगा। इन्हीं कॉलोनियों में से ही एक कॉलोनी थी मधु विहार।

इन कॉलोनियों में बसते लोग देखते ही देखते सरसों के खेतों की तरह लहलहाने लगे। सुनसान, वीरान मधु विहार जल्दी ही गहमागहमी का केंद्र बन गया।

गुलशन के पास अब घर के अलावा भगीरथ पैलेस में थोक दवाइयाँ बेचने की एक दुकान थी। उसने कमला नगर इलाक़े में एक छोटी-सी जगह लेकर दवाओं की एक ट्रेडिंग एवं पैकिंग कंपनी भी खोल ली थी। बच्चे बड़े हो गए थे। एक दिन शाम को वह और घनश्याम दोनों छत पर बैठे दारू पी रहे थे। तीन पैग लगाने के बाद गुलशन ने कहा-”यार घनश्याम! सारी उम्र खटते ही रहेंगे ?”

“सोचता तो मैं भी यही हूँ यार...अब तो सब जम गया है न, तो कुछ अपनी ज़िंदगी भी जी लें...क्या जून भोगकर चले जाएँगे!”

फिर गुलशन ने अपनी आवाज़ दबाते हुए कहा-”यार, कभी गाना-वाना सुनने चल न!”

“अभी चलें...”

“घर क्या कहेंगे...”

“सामान आया है न बाहर से, स्टेशन जाकर देखना है...बोल...”

“तो चल।”

वे दोनों उठ खड़े हुए।

बीवी ने खाने को पूछा-”बाहर ही खा लेंगे।” कहकर गाड़ी निकाली और चल दिए।