प्रियकांत / भाग - 10 / प्रताप सहगल
शेखर की पत्नी सुधा सामने ही बैठी थी। वह शेखर की बातें सुनकर भौचक्क थी। उसने किसी दूसरे के सामने पति को डाँटना उचित नहीं समझा। सुधा के चेहरे पर उड़ती हवाइयों को प्रियकांत ने कनखियों से देख लिया था।
“शेखर,” प्रियकांत कहने लगा-”गुरु जी के लिए संस्कृत में एक शब्द है ‘आचार्य’...क्या कहूँ, हम अपनी संस्कृति भूल-सी गए हैं...सर जी, मास्टर जी, श्रीमन्, गुरुजी...नहीं...नहीं, जो बात आचार्य में है, वह किसी और शब्द में नहीं।” ऐसा नहीं कि प्रियकांत को ‘गुरुजी’ शब्द पर कोई बहुत बड़ी आपत्ति थी, लेकिन वह स्वयं को आचार्य के रूप में ही स्थापित करना चाहता था। आख़िर गुरुत्व और आचार्यत्व में अंतर होता है। उसे लगा कि इस अलंकरण को लगाने की शुरुआत शेखर से हो सकती है।
व्यक्ति कई बार जो करना चाहता है, वह किसी भय, आशंका या संकोच के चलते स्वयं न करके किसी दूसरे के कंधों का सहारा लेकर करता है। यहाँ तो शेखर के मज़बूत कंधे हर काम के लिए मौजूद थे। प्रियकांत उन कंधों का इस्तेमाल क्यों न करे ?
“ठीक है, जो आप कहें। बस, आप मेरी विनती स्वीकार कर लें...यह सब विश्व-कल्याण में लगा दीजिए।” कहते हुए उसने अपने घर की ओर संकेत किया।
“यह तुम्हारा घर है शेखर...तुम्हारे बच्चों, तुम्हारी पत्नी...तुम सबका वर्तमान है और भविष्य भी...ऐसी बात फिर कभी मत करना।”
प्रियकांत की इस बात का सुधा पर गहरा असर हुआ। शेखर तो अभिभूत-सा होकर प्रियकांत की चरणों में ही लोटने लगा।
उस रोज़ प्रियकांत सारा दिन शेखर के घर रहा। दोनों में आचार्य और शिष्य का रिश्ता तो बन ही चुका था। सारा दिन साथ रहने से दोनों में एक मैत्री-भाव भी पनपने लगा। दोनों के बीच कुछ धुँधला-धुँधला-सा तय हुआ। दोनों ने कार्य-योजना का एक ख़ाका-सा बना लिया। मिशन था-विश्व-कल्याण। बस, उसी धुँधली-सी योजना को आकार देना था और उसमें रंग भी भरने थे।
‘गुलशन सत्संग सभा’ अब लोगों के बीच एक प्रतिष्ठित सत्संग बन चुका था। मधु विहार के आसपास की कॉलोनियों में लोग भी उससे जुड़ने लगे थे। अधिक नहीं तो औसतन डेढ़-सौ लोग प्रतिदिन उस सत्संग में शिरकत करते। सुबह-सुबह खुली ताज़ा हवा। आसपास झूमते यूक्लिपटस तथा अशोक के पेड़। मख़मली गहरे हरे रंग की घास पर झक सफेद बिछावन। छोटे-से बने मंच पर देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ। खुले माहौल में हलका-हलका गूँजता भक्ति संगीत। सत्संगियों को इससे अच्छा वातावरण और कहाँ मिल सकता था। घर से बाहर भी और घर के पास भी।
शुरू के दिनों में चिंतन एवं दूसरे कुछ लोगों ने जो विरोध किया था, उसे ‘हिंदुत्व’ की हवा ने उड़ा दिया। अब तो ‘राम-नाम’ की हवा चल रही थी। साथ ही कृष्ण को भी नत्थी कर दिया जाता। फिर शिव की अराधना भी होने लगी। ‘जय मातादी’ भी होने लगी और साईं बाबा भी पधारने लगे।
‘गुलशन सत्संग सभा’ का कोई लिखित संविधान नहीं था। गुलशन बाऊजी जो चाहते, वही होता। अपनी मदद के लिए उन्होंने सात लोगों की एक मंडली भी बना रखी थी। सत्संग की व्यवस्था वही देखती। उसी मंडली से गुलशन सलाह-मशविरा भी कर लिया करता, लेकिन अंतिम निर्णय बाऊजी का ही होता। शेखर भी इस अंदरूनी सत्संग मंडली का एक सदस्य था। सत्संग ख़त्म होने के बाद वे सात लोग प्रायः कुछ देर रुकते और आगे की योजनाओं पर विचार करते।
‘गुलशन सत्संग सभा’ के माध्यम से अब तीर्थयात्राओं का आयोजन भी होने लगा। वे सात लोग एक दिन बैठे थे। प्रस्ताव था कि अमरनाथ यात्रा के लिए पचास-सौ लोगों का जत्था तैयार करके भेजा जाए। शेखर तो पहले भी अमरनाथ होकर आ चुका था। उसे अनुभव था, इसलिए इस आयोजना को सँभालने की ज़िम्मेदारी शेखर को ही सौंपी गई।
शेखर खुश था कि उस पर इतना भरोसा किया जा रहा है। खुश था कि सत्संग के कार्यकलापों में उसकी राय भी ली जाती थी। उस दिन माहौल बहुत ही माकूल था। शेखर को ऐसे ही मौक़े का इंतज़ार था। वह कह उठा-”बाऊजी! मेरा एक प्रपोज़ल और है।”
“बोल पुत्तर!” गुलशन शेखर को पुत्रवत ही मानने लगा था।
“आचार्य प्रियकांत के प्रवचनों से लोगों को बहुत लाभ हो रहा है।” शेखर कह रहा था-”प्रपोज़ल यही है कि दो-दो, चार-चार दिन के बजाय उन्हें दस-पंद्रह दिन सुनें, एक भंडारा करें।”
‘भंडारा’ सुनते ही शेष लोग भी उत्साहित हो गए। गुलशन भी प्रियकांत को पसंद करता था, लेकिन वह इस सत्संग सभा पर किसी भी दूसरे के वर्चस्व को स्वीकार नहीं कर सकता। उसने अपने तन, मन और धन से यह पौधा लगाया था। उसे पल्लवित किया। अब यह पेड़ बनने की प्रक्रिया में है। एक घना छायादार पेड़। इसकी छाया सभी को मिले, फल भी सभी को मिलें, लेकिन इस उद्यम का यश केवल और केवल उसे ही मिलना चाहिए। गुलशन इसलिए हमेशा सतर्क रहता कि सत्संग की सफलता का यश कोई और न लूट ले।
अपने इस भाव को भरसक छिपाते हुए गुलशन ने कहा-”हाँ, प्रियकांत के प्रवचन होते तो बहुत अच्छे हैं, पर वो कभी-कभी जो सनातन धर्म-विरोधी बातें करने लगते हैं न, कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता।”
“कुछ लोगों को तो वह बहुत अच्छा लगता है कि कोई तो है, जो क़ायदे की बात करता है।” शेखर ने कहा।
“वो सब आर्यसमाजी हैं।” गुलशन ने कहा।
“हाँ, हैं, पर उनके सहयोग के बिना यह सत्संग सभा बचती नहीं। कोर्ट केस के वक़्त वही हमारे साथ खड़े थे कि यहाँ सभी मत-मतांतरों का मिला-जुला रूप बन चला है, सो चलते रहना चाहिए।” यह बात कहने वाला सदस्य और कोई नहीं, घनश्याम था-सिर्फ़ घनश्याम ही गुलशन को लगाम लगा सकता था।
शेखर को पलड़ा अपनी तरफ़ झुकते हुए दिखा-”फिर...?”
“और वो अमरनाथ-यात्रा ?” गुलशन ने बात बदली।
“अभी तीन महीने पड़े हैं बाऊजी! सारी तैयारी हो जाएगी। वो सब आप मुझ पर छोड़ दो।”
“ठीक है, करो तैयारी भंडारे की...आचार्य जी से भी समय ले लो।”
शेखर के मन की स्थिर घंटियाँ हिलने लगीं। धीरे-धीरे उनसे संगीत सुनाई देने लगा। फिर हलका-हलका प्रकाश भी फैलने लगा। शेखर जानता था कि आचार्य प्रियकांत को लॉन्च करने के लिए इससे अधिक विश्वसनीय और बेहतर मंच दूसरा नहीं हो सकता।
शेखर ने प्रियकांत से मिल इश्तिहार छपवाने के लिए मैटर तैयार किया। पूछा-”एक बार नीहार को दिखा लूँ ?”
“कौन नीहार ?” प्रियकांत ने पूछा।
“वही, मेरा दोस्त, पुराना यार, कॉलेज में अंग्रेज़ी का प्रोफ़ेसर है।”
प्रियकांत से स्वीकृति लेकर शेखर ने सीधे नीहार के घर की ओर रुख़ लिया।
शेखर जब उसके घर पहुँचा तो नीहार चाय के प्याले के साथ अख़बार के दरीचों में घुसा हुआ था। अख़बार पढ़ते हुए कोई डिस्टर्ब करे, यह नीहार को अच्छा नहीं लगता था। अलबत्ता शेखर के साथ पुरानी दोस्ती की वजह से वह उसे जब-तब बर्दाश्त कर लेता। उसे देखते ही नीहार ने कहा-”आज क्या प्रॉब्लम लाया है ?”
“मैं ख़ुद ही प्रॉब्लम हूँ।”
“वो मुझे मालूम है। चाय पिएगा ?”
“नाश्ता भी लूँगा।”
नीहार अकेला ही रहता था। अविवाहित। बोला-”बना, ख़ुद खा, मुझे भी खिला।”
“वो भी कर लेंगे, पहले यह देख।” कहते हुए शेखर ने इश्तिहार का मैटर नीहार के सामने परोस दिया।