प्रियकांत / भाग - 11 / प्रताप सहगल

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“यह नाश्ता है ?” नीहार को इस सबमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह मानसिक रूप से बहुत प्रबुद्ध था, जबकि शेखर हर तरह के दंद-फंद में फँसा हुआ। या कहें कि एक सुरक्षित नौकरी मिल जाने के कारण नीहार के जीवन में ठहराव आ गया था। अपने पाँव जमाने के लिए अपनी ज़मीन खोजते हुए शेखर के जीवन में हलचल थी, असुरक्षा थी। नीहार ने उड़ती नज़र से पढ़ लिया। लिखा था-‘गुलसन सत्संग सभा’ के इतिहास में पहली बार दस दिनों की अमृत-वर्षा। आचार्य प्रियकांत एम.ए. को सुनिए और जीवन सफल बनाइए। यह सब मोटे अक्षरों में था। ‘आचार्य प्रियकांत’ ज़रा ज़्यादा बड़े अक्षरों में। नीचे लिखा था-इस अवसर पर होगा विशाल भंडारा।

“हाँ-हाँ, ठीक है।” नीहार ने टालने की मुद्रा में कहा।

“बिना पढ़े! ठीक है...पढ़ तो सही।”

नीहार अख़बार पूरा न पढ़ पाने की वजह से पहले ही डिस्टर्ब हो गया था। अब उसे थोड़ी ख़ीझ आ गई। उसने इश्तिहार के मैटर वाले काग़ज़ को हाथ में पकड़ते हुए कहा-”आचार्य प्रियकांत, एम.ए....आचार्य भी, एम.ए. भी...यह एम.ए. क्या है ?”

“आचार्य जी की डिग्री।”

“कोई मतलब भी है यहाँ डिग्री लाने का! एम.ए. काट दो। बाक़ी सब ठीक है।” नीहार को समझ आ गया था कि प्रियकांत इतना सब पढ़ने के बाद भी मानसिक रूप से बहुत विकसित नहीं हुआ है। नाम के साथ डिग्री लगाकर अपने महत्व को स्थापित करना चाहता है।

शेखर ने झट से पैन खेाला और ‘एम.ए.’ काट दिया-”लो, काट दिया...बाक़ी ठीक है न ?”

“एक बार कह तो दिया यार! ठीक है, अब तू मेरी जान छोड़...मुझे अख़बार पढ़ने दे...यह ले, तू भी पढ़...” कहते हुए उसने शेखर की ओर दूसरा अख़बार बढ़ाया। पर शेखर के सर पर तो

इस समय इश्तिहार छपवाने का भूत सवार था। वह यह भी चाहता था कि एक बार नीहार भी प्रियकांत को ज़रूर सुने-”अगले हफ़्ते शुरू हो रहा है...एक बार सुन न तू भी...”

“मेरे पास इतना वक़्त कहाँ...तू ही कर अपना जीवन सफल।”

“तेरे में यही ख़राबी है...बस...बिना देखे, बिना सुने ही...सही है, ग़लत है, बकवास है...बस...”

“चल-चल, भाषण मत दे। नाश्ता लेना है तो बना, नहीं मुझे चैन से बैठने दे।”

“नाश्ता तो लूँगा...आचार्य प्रियकांत के बारे में...”

“मेरी क्या राय है...यही पूछना चाहता है न तू ?”

“ओ तू जाणीजाण है।” शेखर ने चुटकी ली।

“मैंने पार्क में एक दिन घूमते हुए उसे सुना था...चलते-चलते जो दो-चार बातें मेरे कानों में पड़ीं...उससे लगता है कि वह दूसरे उपदेशकों से बहेतर है...!”

“तो आ न...!”

“फिर वही रट! बेहतर है वो आम जनता के लिए...मुझे अपनी राह बनाने के लिए उसके पास जाने की ज़रूरत नहीं है...पर तेरा क्या स्वार्थ है...तू उसके साथ क्यों चिपका हुआ है ?” नीहार ने शेखर पर सीधी चोट की।

शेखर न सकपकाया, न तिलमिलाया-”आचार्य जी को आगे बढ़ाना है।”

“आगे बढ़ाना है...मतलब, तू उसकी दलाली करेगा ?” नीहार ने दूसरी चोट की। पहले वाली चोट से ज़रा तेज़ थी यह चोट।

इस बार शेखर तिलमिलाकर बोला-”आचार्य जी की बातों को फैलाना दलाली है...देख भी रहे हो, क्या हो रहा है देश में।”

“क्या हो रहा है ऐसा कि तू दलाली कर सके!” नीहार भी थोड़ा और तीखा हो गया था।

तीखेपन का जवाब और तीखा होकर ही दिया जा सकता है, यह कला शेखर को आती थी। उसने उसी कला का इस्तेमाल किया-”तुम्हें क्या, चार दीवारों में बंद होकर पढ़ते रहो किताबें...तुम्हें यह दिखता ही नहीं कि मुसलमानों और ईसाइयों ने इस देश को बर्बाद कर दिया है...क्रिश्चियनिटी आजकल किस क़दर फैल रही है, पता भी है कुछ...”

“क्रिश्चियनिटी फैल रही है, इस्लाम फैल रहा है, बौद्ध फैल रहे हैं...यही बोगी उठा-उठाकर तुम लोग देश में दंगे करवाते रहते हो।”

“तुमसे बहस करना बेकार है...” शेखर कहकर ख़ामोश हो गया।

नीहार ने ही चुप्पी तोड़ते हुए कहा-”चलो, तुम्हारी बात पल-भर के लिए मान भी ली जाए तो कौन ज़िम्मेदार है इस सबके लिए...”

“वही, जो इनके वोटों के लिए इन्हें किसी भी क़ीमत पर खुश करने में लगे रहते हैं।”

“नहीं, अगर हिंदू क्रिश्चियनिटी की ओर आ-जा रहे हैं तो इसके लिए हिंदू समाज ही ज़िम्मेदार है।” नीहार ने कहा।

“क्या...क्या...क्या कह रहे हो नीहार! हिंदू कैसे हैं ज़िम्मेदार ?”

“अछूतों और दलितों को ज़िंदा जला देते हो...जो कन्वर्ट हो गया, उसे अपने समाज में लौटने का अवसर नहीं देते हो...बचपन से ही बच्चे के दिमाग़ में ऊँची-नीची जात की बात भर-भर के उसे हरिजनों और दलितों से घृणा करना सिखाते हैं तो वे क्यों रहे हिंदू समाज में, जहाँ उनका सम्मान नहीं...।”

“हिंदू धर्म से अच्छा कोई और धर्म नहीं।” शेखर ने सवालों का जवाब न देते हुए सिर्फ़ एक वक्तव्य दे दिया।

“हिंदू धर्म मनुष्य को मनुष्य से घृणा करना सिखाता है...घृणा-भरा धर्म है यह।” नीहार ने अपना वक्तव्य दिया।

फिर दोनों के बीच एक चुप्पी परस गई।

शेखर थोड़ी देर तक कुछ सोचता रहा, फिर बोला-”शुद्धिकरण तो होता है न ?”

“सिर्फ़ आर्यसमाज में...बस...वो भी कितना...फिर उन्हें समाज में स्वीकृति कितनी मिलती है...देखो शेखर, तुम मेरे पुराने दोस्त हो, इसलिए तुमसे यह कह रहा हूँ...हिंदू धर्म का डंका बजाना छोड़ो। कुछ करना ही है तो हिंदुओं के मन को बदलने का काम करो...” नीहार ने यह बात बड़ी नरमी के साथ कही थी। शेखर पर इसका असर भी हुआ। उसे लगा कि नीहार की सारी बातें ग़लत नहीं हैं...पर शेखर जानता था कि उसके पास न इतना ज्ञान है, न इतनी वकृतत्ता कि वह आम जन को यह सब समझा सके।

दरअसल शेखर का मन दुचिता हो रहा था। वह समाज के लिए कुछ करना चाहता था और उसे अपने डूबते व्यवसाय को भी बचाना था। वह यह सब बातें कहकर व्यवसाय करने लायक़ हिंदुओं की सहानुभूति नहीं ले सकता था। उसके स्वार्थ प्रियकांत के साथ ही जुड़ गए थे। इसलिए नीहार की बातों को सही मानकर भी वह दूसरों को यह नहीं कह सकता था कि हिंदू समाज में ही इतनी बुराइयाँ हैं तो हम इस्लाम और ईसाइयत के पीछे क्यों पड़े हुए हैं ? उसका लक्ष्य सिर्फ़ एक ही था। किसी तरह से प्रियकांत एक धर्मगुरु के रूप में स्थापित हो जाए। पर वह नीहार के सामने निरुत्तर हो चुका था। बोला-”बातें तो तेरी ठीक हैं यार,...यह सब आचार्य जी से मिलकर उन्हें बताओ न!”

अकसर शांत रहने वाला नीहार एकदम खौल उठा-”किसलिए, किसलिए मिलूँ उससे...यह प्रवचन, यह पाठ उसका मिशन नहीं, व्यवसाय है...यह जो आजकल धर्माचार्यों की बाढ़ आई हुई है न, सब धर्म के सौदागर हैं...और तुम जैसे लोग हैं उनके पिछलग्गू...इससे कोई कल्याण होने वाला नहीं, सिर्फ़ टेंशन पैदा होती है समाज में...। अपना कामधाम करो, समझ में आता है। समाज-सेवा करो, समझ में आता है। शिक्षा बाँटो, समझ में आता है। उससे कमाओ, जीवन चलाओ, यह भी समझ में आता है, पर धर्म का धंधा अपनी समझ में नहीं आता।”