प्रियकांत / भाग - 12 / प्रताप सहगल
शेखर कुछ देर के लिए एकदम चुप हो गया। उससे समझ नहीं आ रहा था कि वह नीहार की बातों का क्या जवाब दे। उस पर प्रियकांत का रंग पूरी तरह से चढ़ चुका था। फिर अपना स्वार्थ भी जुड़ा हो तो रंग ज़रा गहरा चढ़ता है। वैसे भी व्यक्ति न जाने कैसे-कैसे मुखौटे लगा लेता है। उन्हीं मुखौटों में से एक मुखौटा बोलने लगा-”नहीं, आचार्य जी वो नहीं हैं, जो तुम समझ रहे हो। वे सचमुय विश्व-कल्याण चाहते हैं।”
“विश्व-कल्याण नहीं, अपना कल्याण।”
“तू नहीं समझेगा, न कुछ करेगा, न मुझे करने देगा।” शेखर ने कहा।
“तू जो चाहे, सो कर, पर मुझे इस दलदल में मत घसीट...” शेखर का जवाब था।
“ठीक है...चलता हूँ...” अचानक बातचीत के सूत्र को तोड़कर शेखर झट से उठा और चलने लगा।
“नाश्ता तो ले ले।” नीहार ने कहा
“फिर कभी।” शेखर बोला।
“नाश्ते ने तेरा क्या बिगाड़ा है! चल, दोनों बनाते हैं।”
“नहीं, चलता हूँ, कहकर शेखर कमरे से बाहर हो गया।
नीहार ने स्वयं पर निस्पृहता की चादर ओढ़ ली और फिर अख़बार पलटने लगा।
शेखर नीहार को इधर लगभग रोज़ फ़ोन करने लगा था। उस दिन के बाद एक सप्ताह तक शेखर का कोई फ़ोन नहीं आया। नीहार वैसे भी फ़ोन करने में काफ़ी काहिल था, फिर शेखर को फ़ोन करने की तो कोई ख़ास वहज भी नहीं थी। नीहार शेखर या उसके फ़ोन की अनुपस्थिति में ख़ुद को बड़ा रिलीव्ड अनुभव कर रहा था। यह अनुभव अल्पजीवी ही निकला और ठीक एक सप्ताह बाद शेखर फिर सुबह-सवेरे नीहार के घर आ धमका। उसके हाथ में छपा हुआ वही इश्तिहार था, जिसका मैटर उसने नीहार को एक सप्ताह पहले दिखाया था। इश्तिहार को नीहार के सामने रखते हुए बोला-”लो...छप गया।”
नीहार ने इश्तिहार हाथ में लेते हुए कहा-”ठीक है।”
“नीचे चलोगे ?” शेखर ने पूछा।
नीहार के लिए यह प्रश्न अप्रत्याशित था। वह थोड़ी बेरुख़ी से बोला-”क्यों ?”
“आचार्य जी नीचे गाड़ी में बैठे हैं...तुमसे मिलना चाहते हैं।”
नीहार बिफर गया-”मुझसे...किसलिए ? और तू मुझसे पूछे बिना उसे यहाँ लाया क्यों ?”
“मिल तो ले यार,” शेखर ने पूरी ढिठाई के साथ कहा-”तेरे से कुछ माँग थोड़े ही रहे हैं।”
नीहार हालाँकि इन आचार्यों-संतों को पसंद नहीं करता था, लेकिन वह द्वार पर आए किसी व्यक्ति के साथ अशिष्ट भी नहीं होना चाहता था। या शायद हो ही नहीं सकता था। या फिर कहीं उसके अहं को तृप्ति मिल रही थी। कारण जो भी रहा हो, उसने शेखर से कहा-”उन्हें ऊपर ले आओ।”
शेखर भी यही चाहता था। वह जानता था कि नीहार के साथ अगर प्रियकांत की पटरी बैठ जाती है तो एक पढ़े-लिखे समाज में भी आचार्य जी की पैठ हो जाएगी। वह प्रियकांत को ऊपर नीहार के कमरे में ले आया और उन दोनों का औपचारिक परिचय करवाया।
“आपका यह दोस्त आपकी बड़ी तारीफ़ करता है।” प्रियकांत ने कुर्सी पर बैठते ही अपने तरकश का पहला बाण छोड़ा। वह अच्छी तरह से जानता था कि अपनी प्रशंसा-चाहे झूठी ही हो-सभी को अच्छी लगती है।
प्रियकांत शेखर के माध्यम से नीहार के विचारों को भी कुछ-कुछ जान चुका था। उसके बावजूद वह नीहार से मिलने आया था, या कहना चाहिए कि नीहार के विचारों की वजह से ही प्रियकांत उससे मिलने आया था। नीहार बहुत जल्दी चित होने वाले लोगों में से नहीं था। उसने संक्षिप्त-सा ही जवाब दिया-”आजकल तो यह आपकी तारीफ़ करता है।”
फिर थोड़ी देर के लिए सन्नाटा-सा पसर गया। कोई बातचीत शुरू होने से पहले ही पसरा सन्नाटा इस बात का संकेत था कि वे दोनों एक-दूसरे की उपस्थिति में ख़ुद को सहज अनुभव नहीं कर रहे थे।
जब कुछ भी बात न हो रही हो, एक असहज ख़ामोशी पसरी हो तो उसे तोड़ने के लिए एक जुमला बहुत काम आता है। नीहार ने वही जुमला इस्तेमाल किया-”क्या लेंगे ?”
प्रियकांत तो अपने मिशन पर था ही। बोला-”आपकी इजाज़त हो तो आपका थोड़ा-सा वक्त ले लूँ।” प्रियकांत के स्वर में अतिरिक्त कोमलता एवं शिष्टता थी।
उसकी इस शिष्टता के सामने नीहार ढेर हो गया। वह सिर्फ़ प्रियकांत को देखता-भर रहा। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद प्रियकांत ने सूँघ लिया कि नीहार उसके साथ संवाद करने को तैयार हो गया है। वह बोला-”आपके क्रांतिकारी विचार मुझ तक पहुँचे हैं...शेखर ने बताया...मेरा मन हुआ, आपसे मिलूँ...नीहार साहब! जैसा आप सोचते हैं, मैं भी वैसा ही सोचता हूँ, लेकिन समाज में अगर कुछ बदलना है तो सिर्फ़ सोचकर नहीं बदला जा सकता।”
“जानता हूँ, और यह भी जानता हूँ कि हर बदलाव की पहली शुरुआत सोच से ही होती है।” शेखर के जवाब से प्रियकांत ने सोचा कि संवाद का दरवाज़ा पहले से ज़्यादा खुल गया है।
पास ही बैठा शेखर प्रियकांत के गहरे प्रभाव में तो था ही। उनके बीच एक अनकही साँठ-गाँठ भी थी। दूसरी ओर वह नीहार से भी प्रभावित था और शायद अपने को पढ़े-लिखे लोगों के साथ दिखाकर वह प्रियकांत को भी यह बताना चाहता था कि उसके रिश्ते सिर्फ़ कारोबारियों से ही नहीं, प्रोफेशनल्स के साथ भी हैं।
प्रियकांत ने बात आगे बढ़ाई :
प्रियकांत : जो शुरुआत सोच से शुरू हो और सोच पर ही ख़त्म हो जाए, उसका लाभ ?
नीहार : हर शुरुआत सिर्फ़ सोच पर ही ख़त्म नहीं होती प्रियकांत जी! आगे भी चलती है। कहीं शब्दों में, कहीं चित्रों में, कहीं दूसरी कलाओं में...
प्रियकांत : पहली बात तो यह कि कलाओं का संसार नितांत निजी होता है। कलाकार के निजी संसार में दाख़िल होने के लिए एक ट्रेनिंग और एक तैयारी की ज़रूरत होती है...कितने लोगों के पास है वह ट्रेनिंग और कितने लोगों के पास वह तैयारी...
नीहार : यानी आप सीधे-सीधे कला की सामाजिकता, या कहूँ कि उसकी उपयोगिता की बात कर रहे हैं!
प्रियकांत : सही समझा है आपने। मैंने जितना पढ़ा और देखा है, मुझे तो यही समझ में आया है कि हमारे बुद्धिजीवी वर्ग के पास अपने विचार कम हैं। वह विदेशों में पनपे विचारों की नक़ल करता है और फिर लगा रहता है उन्हीं की जुगाली में...
नीहार : यह सरलीकरण है
प्रियकांत : सरलीकरण नहीं, मेरी समझ है।