प्रियकांत / भाग - 13 / प्रताप सहगल
थोड़ी देर की ख़ामोशी के बाद नीहार ने बातचीत का सूत्र पकड़ा:
नीहार : यह सच है कि कलाओं में प्रवेश करने की समझ हमारे यहाँ कम है, पर कौन-सी कला...आभिजात्य कला में...। लोक-कलाओं में तो हर आदमी आराम से दाख़िल हो जाता है
प्रियकांत : लोक-कलाओं में विचार कहाँ हैं ?
नीहार: लोक-व्यवहार तो है न...समाज को समझना हो तो लोक-कलाओं के व्यवहार को समझना ज़रूरी है।
प्रियकांत : और समाज को बदलना हो तो ?
नीहार : फिर दर्शन है, अभिजात विचार है...सदियों से विकसित होता मन है।
प्रियकांत : वही तो नहीं पहुँचता लोगों तक।
नीहार : उन तक तो पहुँच ही जाते हैं वे विचार, जो समाज में बदलाव ला सकते हैं।
प्रियकांत : वही तो मैं भी करना चाहता हूँ।
नीहार को लगा कि प्रियकांत ने यह कहकर उसे फँसाने के लिए जाल फेंका है।
नीहार : पर आप लोग तो हमेशा पीछे ही देखते हैं...हमारे वेद, हमारे उपनिषद्, हमारे पुराण, हमारे स्मृति-ग्रंथ...बस, सब हमारा ही हमारा...बाक़ी दुनिया तो शून्य है...
प्रियकांत : इसमें क्या झूठ है कि हमारा अतीत बड़ा समृद्ध रहा है...पर मेरा ध्यान वर्तमान पर अधिक रहता है...वर्तमान बेहतर बनाओ...भविष्य ख़ुद ब ख़ुद बेहतर हो जाएगा...और आप उन लोगों की बात करते हैं न, जो समाज में बदलाव ला सकते हैं। सिर्फ़ मुट्ठी-भर लोग बदलते हैं, बस...बहुत माइक्रोस्कोपिक बदलाव होता है वह...
नीहार : होता है न, बदलाव की गति धीमी ही होती है...
प्रियकांत : ज़रूरी नहीं। कई बार बदलाव द्रुत भी होते हैं...ऐसा तभी संभव है, जब हम जान लें कि बदलाव लाने के लिए सिर्फ़ विचार से काम नहीं चलता। विचार को अमली जामा पहनाने के लिए कई बार हथियार भी उठाना पड़ता है...राजनीति में उतरना पड़ता है। नीहार ने टोका-”पर आप न तो हथियार उठा रहे हैं, न राजनीति में उतर रहे हैं।”
प्रियकांत : मैंने अपनी राह ख़ुद चुनी है...मेरे प्रेरणास्रोत लेनिन और वाशिंगटन जैसे लोग हैं...आप स्वयं चिंतक हैं। सोचिए कि लेनिन न होते तो क्या मार्क्स के विचारों के अनुरूप समाज बनता...वाशिंगटन न होते तो क्या दास-प्रथा ख़त्म होती...अपने स्वामी दयानंद न होते...स्वामी विवेकानंद न होते तो पाखंड-आडंबर ख़त्म होते ?
नीहार : पाखंड तो बढ़े हैं और मुझे लगता है कि धीरे-धीरे आप भी उन्हीं पाखंडों और आडंबरों की ओर बढ़ रहे हैं।
नीहार ने प्रियकांत पर सीधी चोट की थी। प्रियकांत शांत मन से उसे झेल गया। वह जानता था कि वह सचमुच उसी रास्ते की ओर जा रहा था। उसने यह समझ लिया था कि बिना आडंबरों को स्वीकार किए वह अपनी बात लोगों तक नहीं पहुँचा सकता। अपने मन की बात या
अपने बौद्धिक विमर्श को किसी मुक़ाम तक पहुँचाने के लिए पहले समाज में कोई ऊँचा दर्जा हासिल करना होता है, ताकि लोग आपकी बात सुनें तो सही। यही बात उसने कह भी दी।
नीहार : माना, लेकिन संत-कवि भी हुए हैं। कबीर, तुकाराम, गुरु नानक-एक पूरी जमात है संतों की, जिन्होंने कोई सामाजिक या राजनीतिक मुक़ाम हासिल किए बिना समाज में परिवर्तन किए, जाति-संबंधों को ढीला किया।
प्रियकांत : आप तो मेरे मन की बात कर रहे हैं...असल बात यही है कि वे अपने विचारों को लेकर लोगों तक पहुँचे...उन्होंने धर्म का, अध्यात्म का रास्ता चुना, लेनिन ने हथियार का, वाशिंगटन ने राजनीति का-परिवर्तन तो हुआ न!
नीहार को लगा कि वह अपने ही तर्क-जाल में फँसता जा रहा है। उसने पैंतरा बदला-”लेनिन और संतों को आप एक ही पलड़े में नहीं रख सकते।”
प्रियकांत ने टोकना चाहा तो नीहार ने उसे बरजते हुए कहा-”पहले मेरी बात पूरी होने दीजिए...हाँ, मैं कह रहा था कि लेनिन ने हथियार उठाया तो उससे एक पूरी समाज-व्यवस्था बदल गई। संतों की वाणी से ऐसा कुछ नहीं हुआ...कुछ बदलाव हुए, लेकिन आज फिर हम समाज को जातिवाद के बंधन में पहले से भी ज़्यादा कसा हुआ पाते हैं।”
प्रियकांत : नीहार जी, हर विचार, और व्यवस्था की एक उम्र होती है...परिर्वतन तो सृष्टि का आत्यंतिक सत्य है...यह परिवर्तन कभी चक्र रूप से होता है तो कभी रेखाओं के उतार-चढ़ाव जैसा। परिवर्तन होता है ज़रूर...और यह जो जातिवाद है न, इसकी जड़ें बहुत गहरी हो चुकी हैं...इसे समूल नष्ट करना संभव भी नहीं है। हाँ, इस जातिवादी पेड़ के आसपास जो खरपतवार उग आया है, उसे तो उखाड़ा ही जा सकता है।
शेखर इतनी देर से बैठा-बैठा उन दोनों का वार्तालाप सुन रहा था। कोई बात उसकी समझ में आती, कोई नहीं आती। वह कभी इश्तिहार पर कुछ लिखने लगता, कभी अख़बार देखने लगता। कभी उन दोनों की बातों में उतरने लगता। चाहता तो वह भी था कि संवाद में शिरकत करें, लेकिन उसने तो कभी लेनिन, मार्क्स और फ्रायड वग़ैरह के नाम भी नहीं सुने थे।
प्रियकांत ने शेखर की बोरियत लक्ष्य कर ली थी। वह जानता था कि संवाद करने की उत्तम कला वह है, जिसमें उपस्थित सभी लोगों की रुचि की कोई न कोई बात हो। इसलिए उसने शेखर को भी उस संवाद में शामिल करने की मंशा से ही कहा-”होता यह है नीहार जी कि हम अपनी भूमिका नहीं समझते, समझते हैं तो प्रायः उसका निर्वाह ठीक से नहीं करते...”
“मैं समझा नहीं!” नीहार ने कहा।
प्रियकांत : अब देखिए, शेखर ने मुझे आकर बताया कि आपने मेरे नाम के साथ लगे ‘एम.ए.’ शब्द पर एतराज़ किया। मुझे समझने और ख़ुद को बदलने में ज़रा भी देर नहीं लगी...देखा ही होगा आपने इश्तिहार। उसमें मैंने ‘एम.ए.’ शब्द हटा दिया है।
शेखर का नाम लेने से ही उसे महसूस हुआ कि उस सारे संवाद में उसकी उपस्थिति भी दर्ज हो रही है। वह चहका-”हाँ, आचार्य जी ने बस एक पल सोचा और एम.ए. पर फेर दिया काटा।”
“बड़ा फूहड़ लगता था।” नीहार ने कहा।
प्रियकांत को नीहार की यह व्यंग्योक्ति अच्छी तो नहीं लगी, लेकिन वह पी गया। वह दरअसल नीहार का समर्थन जुटाने आया था। प्रियकांत अच्छी तरह से जानता था कि अगर पढ़ी-लिखी जमात का छोटा-सा हिस्सा भी उसके प्रभाव में आ जाए तो जो गंतव्य उसने सोच रखा है, उस तक पहुँचने की राह आसान हो जाएगी। इसलिए उसने व्यंग्योक्ति का जवाब सीधी भाषा में ही देना मुनासिब समझा-”जो भी हो...मैं बदला न! मेरा निवेदन सिर्फ़ इतना है कि आप जैसे बुद्धिजीवी इस चारदीवारी में बैठकर न सोचते रहें। अपनी सोच को लोगों तक पहुँचाएँ भी।”
“आप हैं न!’ नीहार ने फिर चुटकी ली।
प्रियकांत भी पीठ के बल गिरने वाला पहलवान नहीं था, बोला-”मेरे पास अपनी सोच है। बहुत-सी बातें आपकी सोच से मिलती हैं, बहुत-सी नहीं भी मिलतीं...और फिर हर आदमी को अपना सलीब ख़ुद ही ढोना पड़ता है।”
“आपकी राह अलग है, मेरी अलग।” नीहार ने कहा।