प्रियकांत / भाग - 14 / प्रताप सहगल
“फिर भी हम मिलकर चल सकते हैं...समानांतर राहों के बीच एक पुल भी बनाया जा सकता है।” प्रियकांत का कहना था।
शेखर चाह रहा था कि बात यहीं ख़त्म हो और वह आगे के काम पर जुटे। प्रियकांत अभी भी उठना नहीं चाहता था। उसने नीहार के साथ धर्म, राजनीति, अध्यात्म, कला, साहित्य, व्यवस्था, वैज्ञानिक सोच, आधुनिकता, भारतीयता यानी हर विषय पर दो घंटे तक जमकर चर्चा की। प्रियकांत ने नीहार को हर विषय पर लगभग चित कर दिया। यह बात शेखर से भी छिपी नहीं रही। उसके चेहरे पर फैला हलका-सा स्मित बता रहा था कि उसने प्रियकांत का पल्ला पकड़कर कोई ग़लती नहीं की।
प्रियकांत और नीहार के बीच होता हुआ संवाद जब एक असहज ख़ामोशी पर आकर रुक गया तो प्रियकांत ने ही नीहार से कहा-”चार दिन बाद समागम शुरू होगा...वहाँ मेरी भाषा अलग होगी। सभी इतना पढ़े-लिखें नहीं हैं, जितना कि आप। मुझे आम जन तक पहुँचना है...वहाँ भक्ति भी होगी, संगीत भी...बोधकथाएँ होंगी और चुटकुले भी..समय मिले तो आइए...”
“आम जन...वही हैं आपके क्लाएंट।” नीहार पस्त होने के बाद भी चुटकी लेने से बाज़ नहीं आ रहा था।
प्रियकांत ने शालीनता से कहा-”जो भी मानिए, क्लाएंट, भक्त जन, अनुगामी या जो भी...चलूँ...नमस्कार।” कहकर प्रियकांत अपनी धोती को व्यवस्थित करते हुए उठा और सीढ़ियाँ उतर गया। शेखर उसके पीछे था।
शेखर ने प्रियकांत को गाड़ी में बैठने के लिए गाड़ी का दरवाज़ा खोलते हुए पूछा-”कैसा लगा मेरा दोस्त ?”
प्रियकांत गाड़ी की सीट पर व्यवस्थित होते हुए बोला-”शेखर! नीहार उन लोगों में से हैं, जिन्होंने ख़ुद को एक शैल में बंद किया हुआ है...इनसे कुछ नहीं होगा...इनसे बस भाषण दिलवा लो...आकाश-पाताल की कुलाँचें मारेंगे, लेकिन समाज का जो असली रूप है, उसकी निंदा करेंगे...किसी की निंदा करके आप उसे बदल नहीं सकते...फिर आदमी ख़ुद को बदले भी तो क्यों ? क्या इनके पास ईश्वर का कोई विकल्प है ?”
शेखर भला इस बात का जवाब क्या देता। वह तो प्रियकांत का भक्त हो गया था और इसी भक्तपन की आड़ में उसे अपने बिज़नेस को भी सुधारना था-”आप ठीक कहते हैं आचार्य जी! पर नीहार जैसे लोगों की बात का भी लेागों पर गहरा असर होता है...ऐसा मैंने ख़ुद देखा है।”
“देखेंगे...ऐसा करो, मुझे घर छोड़ दो।”
शेखर गाड़ी प्रियकांत के घर की दिशा में मोड़ ही रहा था कि उसका मोबाइल बजा। देखा, स्क्रीन पर नीहार का नाम कूद रहा था।
ड्राइव करते हुए ही शेखर ने फ़ोन उठा लिया-”हेलो, कुछ छूट गया क्या ?”
दरअसल प्रियकांत और शेखर के जाने के बाद नीहर कुछ अनमना-सा हो गया था। उसे प्रियकांत की बातें अधिक व्यावहारिक और मारक लगी थीं। उसे प्रियकांत के लिए उन सब बातों को स्वीकार करना संभव नहीं था। उसकी समझ में किसी भी नई बात या संभावना के ग्राहक कम ही होते हैं। वह यह भी समझ रहा था कि जब परलोक में स्वर्ग का सपना परोसा जा रहा हो तो उस स्वप्न के आगे ठोस यथार्थ कितनी देर और कैसे खड़ा रह सकता है। इससे पहले नीहार ने कभी भी किसी के सामने ख़ुद को इतना निहत्था महसूस नहीं किया था, जितना प्रियकांत के सामने।
वह प्रियकांत का कुछ बिगाड़ नहीं सकता था, न सुधार सकता था। उसने प्रियकांत के साथ एक खेल की शुरुआत की थी। वो खेल था या नहीं, यह कहना तो मुश्किल है, लेकिन कम से कम नीहार के लिए तो वह खेल ही था, इसलिए उसने शेखर को फ़ोन करके अपनी ओर से खेल की घंटी ही बजाई थी। शेखर के सवाल के जवाब में नीहार ने कहा-”नहीं, छूटा तो कुछ नहीं। तुम लोगों के जाने के बाद एक और बात ध्यान में आई।”
“क्या ?”
“तुम्हारे आचार्य जी तुम्हारे साथ ही हैं न ?” इस पूरे वाक्य को बलाघात के साथ नीहार ने बोला था, ‘आचार्य जी’ पर बलाघात कुछ ज़्यादा था।
“हाँ, मैं ड्राइव कर रहा हूँ, उन्हीं से बात कर।” कहते हुए शेखर ने मोबाइल प्रियकांत के हाथ में पकड़ा दिया।
“जी, फ़रमाएँ!” प्रियकांत ने भी समझ लिया था कि नीहार को उसने वैचारिक स्तर पर चित कर दिया है। ‘जी फ़रमाएँ’ में अतिरिक्त कोमलता थी।
“मैं सोच रहा था कि आप अपना नाम भी बदल लें।” नीहार ने हमला सीधा किया।
“नाम बदल लूँ ?” प्रियकांत ने हमले की तेज़ी को लक्षित कर लिया था। अब उसके लहजे में थोड़ी तुर्शी आ गई थी।
“देखिए, पहले मेरी पूरी बात सुन लीजिए।”
“कहिए,” कहकर उसने मोबाइल का स्पीकर ऑन कर दिया, ताकि शेखर भी सारी बात सुन सके।
“यह ‘प्रियकांत’ नाम, लगता है, जैसे किसी फ़िल्मी एक्टर का नाम हो।” नीहार ने हथौड़ा सीधा मारा।
“जो भी हो, नाम तो नाम है।” प्रियकांत ने जवाब दिया।
“अभी आप कहेंगे कि नाम में क्या रखा है...पर मैं कहूँगा कि नाम में ही सब रखा है।”
“जो भी मानें नीहार साहब! अपने नाम से बड़ा मोह होता है...यही बात मैं आपसे कहूँ तो...” प्रियकांत ने पलटवावर किया।
नीहार जैसे पूरी तरह से प्रियकांत को चित करने के लिए लँगोट कसकर बैठा था-”ज़रूरत पड़े तो बदल लूँगा...बस, मेरे दिमाग़ में एक फ़्लैश आई, सोचा कह दूँ...पर प्रियकांत जी! आप तो बिना डिटेल्स जाने ही नाम-मोह में फँस गए...आपको ही मोह से मुक्ति नहीं तो आम जन मोह-पाश से कैसे छूटेगा...” इस बार चोट सीधी गर्म लोहे पर पड़ी थी।
चोट की मार झेलते हुए बिना किसी झुँझलाहट के प्रियकांत ने पूछा-”अच्छा, बतलाइए।”
“मुझे लगता है कि आप अपना नाम प्रियांशु कर लें...आचार्य प्रियांशु...छोटा...सुंदर...कुछ अलग...अपीलिंग...कैसा रहेगा ?”
“प्रियांशु!” प्रियकांत ने दोहराया-”बोलो शेखर, क्या कहते हो...तुम्हारे मित्र कह रहे हैं कि मैं अपना नाम प्रियांशु रख लूँ...ज़्यादा अच्छा रहेगा...अच्छा, सोचता हूँ...” कहकर प्रियकांत ने फ़ोन काट दिया।
प्रियकांत के मस्तक पर कुछ रेखाएँ उभरने लगीं। वह समझ नहीं पा रहा था कि नीहार यह बात गंभीरतापूर्वक कह रहा है या उसका चूतिया खींच रहा है।
शेखर को ‘आचार्य प्रियांशु’ सुनने में अच्छा लगा था। अच्छा तो प्रियकांत को भी लगा था, लेकिन वह तय नहीं कर पा रहा था कि वह ठीक रहेगा या नहीं। उसने शेखर से फिर पूछा-”बोलो, क्या कहते हो ?”
“आचार्य जी! नीहार को न्यूमरालॉजी की अच्छी समझ है।”
“अच्छा,” कहते हुए प्रियकांत ने नीहार का नंबर मिलाया। उधर से हलो सुनाई देने के बाद बोला-”नीहार जी! यह जो सुझाव आपने मुझे दिया है...इसमें न्यूमरालॉजी की बात है क्या ?”
“वही समझ लीजिए।” हालाँकि नीहार ने ऐसी कोई गणना नहीं की थी...पर कह दिया...क्यों कह दिया...इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर उसके पास नहीं था।
प्रियकांत पर इस बार असर गहरा हुआ। उसका फलित ज्योतिष और हस्तरेखाओं पर विश्वास नहीं था। आर्यसमाज में उसे यही सिखाया गया था कि यह भी एक प्रकार के अंधिविश्वास ही हंई और इनसे बचना चाहिए। लेकिन जहाँ तक न्यूमरालॉजी की बात है, इस संबंध में कभी किसी ने कोई खंडनात्मक टिप्पणी नहीं की थी। जब बात अपने बारे में हो रही हो तो पाखंड-विरोधी व्यक्ति भी उन्हीं पाखंडों में विश्वास करने लग जाते हैं, जिन पाखंडों का वे दूसरों के संदर्भ में विरोध करते हैं।
न्यूमरालॉजी की बात सुनकर प्रियकांत को ‘आचार्य प्रियांशु’ नाम अधिक आकर्षक लगने लगा। वह शेखर से समर्थन माँग रहा था।
“आचार्य जी, नीहार है बड़ा इंटेलिजेंट...आचार्य प्रियांशु सुनने में अच्छा लगता है न!”
“लोग तो मुझे ‘प्रियकांत’ के नाम से ही जानते हैं।” यह प्रियकांत की दूसरी दुविधा थी।
“अभी तो शुरुआत है आचार्य जी...”
“और यह इश्तिहार ?”
“अभी कौन-से बँटे हैं...नए इश्तिहार छपवा लेते हैं।”
“तो प्रेस चलें!”
शेखर ने गाड़ी प्रेस की ओर मोड़ ली। वे दोनों दिन-भर प्रेस में ही रहे और शाम तक इश्तिहारों पर ‘आचार्य प्रियकांत’ बदलकर ‘आचार्य प्रियांशु’ छपकर बाहर आ गया।
यह एक नए धर्माचार्य का जन्म था।