प्रियकांत / भाग - 15 / प्रताप सहगल
प्रियकांत को यही चिंता सता रही थी कि जिस अभियान की शुरुआत वह करने जा रहा है, वह कामयाब होगा या नहीं। आज उसे माधव की बड़ी याद आ रही थी। उसे लगता कि वह लगातार एक भीड़ से घिरता जा रहा है और भविष्य में यह भीड़ और बढ़ने वाली है। प्रियकांत को शेखर से सहयोग पूरा मिलता था, लेकिन उसकी छठी इंद्रिय उसे पूरी तरह से शेखर के साथ जुड़ने नहीं देती थी। माधव ने प्रियकांत को हमेशा आगे बढ़ाने की कोशिश की थी। पिछले दिनों माधव का कारोबार देश से विदेश में फैलने लगा था और वह भी देश से ज़्यादा विदेशों में ही रहने लगा था। देश में आता भी तो इतना व्यस्त रहता कि उसे कभी भी प्रियकांत से मिलने की फुरसत नहीं मिली।
ज़रूरत के वक़्त जिसकी याद आए, समझ लीजिए वही ऐसा व्यक्ति है, जो आपको कभी धोखा नहीं देगा। प्रियकांत ने माधव से संपर्क करने की कोशिश की। पता चला, वह जर्मनी में है। बात भी हुई, लेकिन वह एक महीने के बाद ही लौटेगा, यह जानकर प्रियकांत के अभियान की शुरुआत का सारा दारोमदार शेखर पर ही आ गया। गुलशन और घनश्याम प्रियकांत को पसंद ज़रूर करते थे, लेकिन गुलशन का अहं बार-बार आड़े आता कि ‘गुलशन सत्संग सभा’ का वह संस्थापक-संचालक है। प्रियकांत और गुलशन के बीच अहं का द्वंद्व-युद्ध लगातार जारी था। प्रियकांत ही अपने अहं के फन को दबाए रखता। उसे तो अपनी दुकान जमानी थी और दुकान जमाने का हुनर शेखर के पास था। इस बात की समझ प्रियकांत को भी थी, इसलिए उसने शेखर से कहा-”इश्तिहार तो छप गए, अब ?”
शेखर जानता था कि जब भी कोई नई दुकान खोलनी हो, उसकी सज-धज अच्छी होना ज़रूरी है। उसने वही किया। फूल। झंडे। म्यूज़िक का प्रबंध। सब टिप-टाप। मधु विहार की दीवारों को पोस्टरों से श्रृंगारित कर दिया गया। यानी आचार्य प्रियांशु के नाम को पूरी नाटकीयता के साथ लोगों तक पहुँचाया गया।
समागम शुरू हुआ। आचार्य प्रियांशु उर्फ़ प्रियकांत के प्रवचनों की प्रशंसा तो लोग पहले से ही करने लगे थे। समागम होने से श्रोताओं की तादाद बढ़ने लगी। पहले दिन आचार्य प्रियांशु ने
केवल गायत्री मंत्र की व्याख्या की। उसे ईश्वर, मनुष्य, प्रकृति एवं जीवन के साथ जोड़ा। बीच-बीच में चुटकले। फिर भजन। उसकी यही शैली थी। इसी शैली ने लोगों को मुग्ध किया हुआ था।
समागम के पहले दिन के अंत में शांति-पाठ। शांति-पाठ पूरा होते ही शेखर प्रियकांत को अपने कंधों पर उठाकर अपनी गाड़ी तक ले गया। कुछ लोग हँसे। अधिकतर लोगों पर इसका प्रभाव सकारात्मक ही पड़ा।
समागम के अगले दिन से शेखर सबसे पहले आचार्य जी को साष्टांग दण्डवत् करने के बाद ही प्रवचन सुनने बैठता।
अधिकतर लोग देखा-देखी ही काम करने लगते हैं। हमारे रीति-रिवाज समझकर कम और देखा-देखी ही अधिक चलते हैं। परंपरा के नाम पर रूढ़ियों को ढोता समाज प्रियकांत जैसों के लिए कच्ची ज़मीन का काम कर रहा था। कोई नया-सा लगने वाला हाइब्रिड बीज बो दो और भरपूर फ़सल ले लो।
शेखर को श्रद्धा उँडेलते देख और दो लोगों ने पाँव छुए। फिर धीरे-धीरे सौ ने। शुरू में प्रियकांत किसी को अपने पाँव छूने नहीं देता था। कहता था-”सम्मान मन में होता है, मन में ही रहना चाहिए, सम्मान-प्रदर्शन के और तरीक़े भी हैं, मेरे पाँव मत छुइए।” जब वह यह कहता तो माधव की कही हुई यह बात भी उसके ज़हन में घंटी की तरह बजती रहती-”सम्मान केवल करना नहीं, करते हुए दिखाना भी चाहिए...” वह कहता था-”प्रियकांत! मान लो, मैं तुम्हारा बहुत सम्मान करता हूँ, समझ लो इतना कि मैंने अपने घर में तुम्हारी फ़ोटो रखी हुई है और रोज़ उस फ़ोटो की आरती उतारता हूँ, उससे तुम्हें क्या लाभ...और मुझे भी क्या लाभ...अरे, जिसका सम्मान कर रहे हो, उसे बताओ कि हम तुम्हारा सम्मान करते हैं, तुम्हारी पूजा करते हैं...इसमें छिपाना और शरमाना क्यों ?” प्रियकांत शायद अभी इतना बेहिचक नहीं हो पाया था, इसलिए वह लगातार लोगों को रोकता। मज़ेदार बात यह है कि वह जितना रोकता, पाँव छूने वाले लोगों की संख्या उतनी ही बढ़ती जाती। अंततः प्रियकांत ने सहर्ष स्वीकार कर लिया कि यह ‘चरण-छू संस्कृति’ भी उसके कारोबार का एक हिस्सा है।
एक और दुविधा भी थी प्रियकांत के सामने। ‘गुलशन सत्संग सभा’ में आने वाले अधिकतर लोग मूर्ति-पूजक थे। प्रियकांत के संस्कारों में मूर्ति-पूजा पाखंड था। यहाँ भी उसने
समन्वय की राह ही चुनी। वह अपनी बात कहता और मूर्ति-पूजा करते लोगों को निरपेक्ष भाव से ही देखता। इसे पाखंड या अंधविश्वास कहकर वह मूर्ति-पूजकों को नाराज़ नहीं करना चाहता था। वह जानता था कि ऐसा करने से उसका अभियान यहीं रुक जाएगा।
समागम के पाँचवें दिन तक वह भी मूर्ति-पूजा में शामिल होने लगा। अस्थाई रूप से स्थापित राम एवं कृष्ण की प्रतिमाओं के सम्मुख हाथ जोड़कर उनकी वंदना करने लगा। संयोग से उस दिन माधव भी वहाँ उपस्थित था। उस दिन का समागम ख़त्म होने के बाद माधव ही उसके पास गया। प्रियकांत ने माधव को देखा। वह उसकी ओर बढ़ना चाहता था, लेकिन आचार्य प्रियांशु के पाँव छूकर आशीर्वचन लेने वालों की संख्या काफ़ी थी। माधव एक ओर खड़ा अपनी गाड़ी के छल्ले को उँगली में घुमाते हुए मंद-मंद मुस्करा रहा था।
प्रियकांत लोगों के बीच में से रास्ता बनाते हुए माधव के पास गया-”माधव! तुम! यहाँ ?”
“हाँ। मैं यहाँ...पोस्टर देखे, चला आया...चल घर...”
प्रियकांत ने कनखियों से इधर-उधर देखा कि माधव की बात कोई सुन तो नहीं रहा। सब लोग प्रसाद खाने में व्यस्त थे। सिर्फ़ शेखर ही पास था-”माधव! यह शेखर है। शेखर! यह माधव। मेरा बहुत पुराना दोस्त।”
दोनों ने हाथ मिलाए।
“शेखर! आज मैं माधव के साथ जाऊँगा, कल सुबह मिलते हैं।” कहकर प्रियकांत माधव के साथ उसकी गाड़ी की ओर चला। साथ में दो-चार भक्त भी थे। शेखर को यह सब अच्छा तो नहीं लगा, पर वह करता भी क्या ? कहता कि अपने पुराने दोस्त के साथ न जाओ, कहता कि मुझे भी साथ ले लो। उसने कुछ नहीं कहा। मन ही मन कट गया। उसके पास उन्हें माधव की गाड़ी तक छोड़ने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था।
गाड़ी में माधव और प्रियकांत। बस।
बात माधव ने ही शुरू की-”यह क्या माजरा है दोस्त!”
प्रियकांत : अपनी राह बना रहा हूँ।
माधव : हाँ, पर तू आचार्य प्रियांशु कैसे बन गया ? यह तो तेरे पोस्टरों पर तेरी फ़ोटो थी, वरना मुझे क्या पता चलता कि अपना प्रियकांत ही आचार्य प्रियांशु है।
प्रियकांत : यह नाम ठीक है न ?
माधव : झकास।
प्रियकांत आश्वस्त हुआ।
प्रियकांत : इतने दिन कहाँ-कहाँ भटकता रहा ?
माधव : पइसा, यार पइसा, धंधा ज़ोरों पर है, सब प्रभु की कृपा है।
प्रियकांत : प्रभु-कृपा बोले तो...
दोनो पुराने दोस्तों में कोई औपचारिकता काम नहीं करती। सदियों बाद भी मिलें तो वक़्त के परदे क्षणों में हटने लगते हैं।
माधव कहने लगा-”जमावड़ा तो काफ़ी बड़ा है।”
प्रियकांत : शेखर मिला था न अभी, उसने बड़ी मेहनत की है।
माधव : पर वो तेरे उसूल...
प्रियकांत : मन में तो अभी वही हैं, पर उनसे बात बनती नहीं यार! फिर मेरे उसूलों और जो मैं कर रहा हूँ-उसमें कोई बड़ी फाँक भी नहीं है।
माधव : क्या कह रहे हो यार! तुम निर्गुण ब्रह्म के उपासक...यह मूर्ति-पूजा...पाखंड, ढोंग...तुम तो इस सबके विरोधी थे। आइस्कॉन-कीर्तन में तुम इसी बात को लेकर स्वामी जी से उलझ गए थे।
प्रियकांत : तो...? इन लोगों के सामने भी वही विरोध का झंडा लेकर खड़ा रहूँ...इतने सैकड़ों लोग जो आते हैं, मेरी बात सुनने...उनकी भावनाओं का मखौल उड़ाऊँ, उन्हें ठेस पहुँचाऊँ...उससे मुझे क्या मिलेगा...?
माधव : वो ‘कृण्वंतो विश्यम् आर्यम्...’
प्रियकांत : है न वही मंत्र मेरे पास...आर्य का अर्थ क्या है...सज्जन...वही बनाना है लोगों को।
माधव : आर्य एक रेस भी है प्रियकांत! तुम अच्छी तरह से जानते हो कि आर्य सिर्फ़ एक शब्द नहीं, एक अवधारणा है...और इसी अवधारणा को लेकर दुनिया में क्या-क्या अत्याचार नहीं हुए!
प्रियकांत : मैं हिटलर नहीं हूँ माधव! तू क्यों सारी बहस को सिर्फ़ अँधेरे रास्तों की ओर ही ले जाना चाहता है ?
माधव : बिलकुल नहीं...तू तो जानता है...मैं शुरू से ही कृष्ण-भक्त हूँ...तुझे भी मैं प्रभुपाद के चरणों में ले गया था। पर तुम तो आर्यसमाज के भक्त...
प्रियकांत : अपमानित हुआ था मैं वहीं।
माधव थोड़ी देर के लिए ख़ामोश हो गया। फिर बोला-”तोऽऽऽ अब आगे क्या प्रोग्राम है ?”