प्रियकांत / भाग - 16 / प्रताप सहगल

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प्रियकांत : सात दिन का समागम है यह...दो दिन और बचे हैं...उसके बाद सोचूँगा।

माधव : यह अनुभव ठीक रहा ?

प्रियकांत : बहुत ठीक...पहले दिन सिर्फ़ पचास लोग थे, आज पाँच सौ के क़रीब आ रहे हैं, इससे अच्छा और क्या होगा...तू सुना...तेरा क्या प्रोग्राम है ?

माधव : पहले तू बता।

प्रियकांत : तुझे याद है, एक बार तूने मुझे ऑल इंडिया रेडिया ले जाकर एक प्रोड्यूसर से मिलवाया था...कोई राही।

माधव : प्रमिला राही।

प्रियकांत : हाँ, वही। बहुत बोलती थी वो, पर एक बात उसने बड़े पते की कही थी...याद है कुछ ?

माधव : बता।

प्रियकांत : उसने कहा था, कुछ ‘ज़रा हटके’ प्रोग्राम कीजिए...

माधव : वो सभी से यही कहती थी यार...

प्रियकांत : कहती होगी, मैंने उसका यह जुमला ‘ज़रा हटके’ उसी दिन पल्ले बाँध लिया था...अब आया है वक्त कुछ ‘ज़रा हटके’ करने का...अब तू बता अपना प्रोग्राम ?

माधव : कल जर्मनी जा रहा हूँ।

प्रियकांत के चेहरे पर हलकी-सी उदासी छा गई-”कल ही...दो दिन रुक नहीं सकता...?”

“नहीं...” माधव जवाब दे रहा था-”वहाँ बहुत ज़रूरी मीटिंग है...कल से तुम्हारे सारे व्याख्यान वीडियो रिकॉर्ड होंगे...तू इतना अच्छा बोलता है कि लोग उसे बार-बार सुनना चाहेंगे...बाद में उन्हीं व्याख्यानों को छपवा भी देंगे...क्यूँ ?”

“पैसे ?”

“मैं हूँ न,” माधव ने जवाब दिया-”मैं चाहता हूँ कि अब तेरे नाम का डंका पूरी दुनिया में बजे।”

माधव की बात सुनकर प्रियकांत की आँखें डबडबा आईं। माधव ने प्रियकांत की मनःस्थिति लक्ष्य कर ली थी। उसने हलकी-सी मुस्कराहट के साथ कहा-”चिंता मत कर...मैं भी अपना हिस्सा छोडूँगा नहीं...दिमाग़ तेरा, उसे बेचने के लिए इन्वेस्टमेंट मेरा...बोल मंज़ूर ?”

“मंज़ूर।” प्रियकांत ने असमंजस-भरे स्वर में कहा।

“कुछ मत देना यार...तू आगे बढ़।” कहकर माधव ने प्रियकांत को असमंजस की स्थिति से निकाल दिया।

दोनों दोस्तों के बीच फिर कुछ पुराने क़िस्से छिड़े और बड़ी देर तक दोनों ने एक-दूसरे की भावनाओं की भूख को तृप्त किया।

आज समागम का आख़िरी दिन था। लोग अपेक्षा से कहीं ज़्यादा तादाद में उमड़े थे। मधु पार्क में घूमने वाले कुछ लोगों को यह बड़ा अच्छा लग रहा था, लेकिन नीहार और चिंतन जैसे लोग पार्कों में इस तरह से आयोजनों के सख़्त ख़िलाफ़ थे। इस मामले में क़ानून भी उनके पक्ष में था। वे फिर भी कुछ कर नहीं पाए।

प्रियकांत उर्फ़ आचार्य प्रियांशु की इस लोकप्रियता का कारण सिर्फ़ इतना था कि उसने आम जन की नब्ज़ पकड़ ली थी। उसने समझ लिया था कि लोग अपनी समस्या का तुरंत निदान चाहते हैं। ‘तुरंत हल’ देने के साथ-साथ प्रियकांत ने सुखद भविष्य का सपना परोसने की कला सीख ली थी। उसने जान लिया था कि सिर्फ़ परलोक सँवारने का स्वप्न देकर आज लोगों को बाँधना संभव नहीं है। वे तो और धर्माचार्य भी कर रहे थे। उसे परलोक के साथ-साथ लोगों के इहलोक को भी सँवारना था। वही बड़ी होशियारी के साथ निर्गुण में सगुण और सगुण में

निर्गुण को ऐसे ब्लैंड करने लगा था, जैसे माल्ट में स्कॉच ब्लैंड की जाती है। आर्यसमाजी रीति से यज्ञ भी करता और राम-कृष्ण की प्रतिमाओं के सामने नमन भी। वह स्वयं को तुलसी से भी आगे का संत मानने लगा था।

माधव ने जर्मनी जाने से पहले वीडियो-ऑडियो रिकॉर्डिंग की व्यवस्था तो करवा ही दी थी। उसने प्रियकांत के फ़ोटो की कुछ प्रतियाँ भी छपवाकर भेज दीं कि उन्हें लोगों के बीच बाँट दिया जाए। इतना ही नहीं, समागम के अंतिम दिन के लिए उसने भंडारे का इंतज़ाम भी करवा दिया था।

प्रियकांत की इस सफलता के सामने स्वयं गुलशन एवं दूसरे लोग हतप्रभ थे। उन्हें यह सब अच्छा भी लग रहा था, लेकिन वे, ख़ास तौर पर गुलशन इस बात से परेशान था कि ‘गुलशन सत्संग सभा’ पर उसका वर्चस्व कम हो रहा है। गुलशन को ‘बाऊजी, बाऊजी’ कहकर उसके आगे-पीछे घूमने वाले लोग अब आचार्य प्रियांशु के आगे-पीछे घूमने लगे थे।

आचार्य प्रियांशु पहले आदरणीय, फिर श्रद्धेय, पूज्य और फिर परम पूज्य हो गए।

समागम का अंतिम दिन गहमगहमी का दिन था। भंडारे की घोषणा से आज लोगों की संख्या हज़ारों में पहुँच गई थी। आचार्य प्रियांशु के लिए यह एक बड़ी सफलता थी। व्याख्यान समाप्त होने के बाद आचार्य जी के लिए दक्षिणा देने की अपील की गई तो सबसे पहले शेखर ने एक लाख ग्यारह हज़ार एक सौ ग्यारह रुपए का चैक दिया। शेखर के इस चैक ने और लोगों को भी उकसाया। वैसे भी मधु विहार अब समृद्ध लोगों की कॉलोनी थी। इतना तो नहीं, लेकिन इक्यावन हज़ार, ग्यारह हज़ार और पाँच-पाँच हज़ार तो कई लोगों ने दिए। कुल मिलाकर पाँच लाख के क़रीब धन इकट्ठा हुआ। इतनी दक्षिणा यहाँ पहले किसी भी साधु-संत को नहीं मिली थी। लोगों में आचार्य प्रियांशु के फ़ोटो बाँटे गए। भंडारा जारी था। शेखर आचार्य को अपने कंधों पर बिठाकर गाड़ी तक ले गया।

आज प्रियकांत की खुशी का ठिकाना न था। उसे अपनी राह साफ़ दिखने लगी थी। गाड़ी में शेखर और प्रियकांत ही थे। प्रियकांत ने एक लाख ग्यारह हज़ार एक सौ ग्यारह रुपए का चैक शेखर को लौटाते हुए पूछा-”ठीक रहा न ?”

“सुपर्ब! अब आगे ?” शेखर के जवाब के साथ एक सवाल भी नत्थी था।

“नीहार आया ?” प्रियकांत चाहता था कि नीहार जैसे लोग भी उसके साथ जुड़ें तो उसके अभियान को अतिरिक्त गरिमा मिलेगी।

“एक दिन भी नहीं।” शेखर ने जवाब दिया।

“उसने यह सब देखा तो होगा ?” प्रियकांत ने पूछा।

“सब देखा...पर आचार्य जी...यह वीडियो...भंडारा...”

“मेरा दोस्त है न माधव...बड़ी कृपा है उस पर प्रभुपाद की...कृष्ण का भक्त है वह...उसी ने सब किया।”

शेखर को माधव में अपना प्रतिद्वंद्वी दिखने लगा। अपने अंदाज़े-बयाँ में उपेक्षा भाव लाते हुए उसने कहा-”उसका क्या इंटरेस्ट है ?”

प्रियकांत ने शेखर की दुविधा भाँप ली और निस्संग भाव से बोला-”पुराना दोस्त है न!”

फिर बात बदलने की मंशा से कहा-”वो तुम्हारा नीहार अब कहता क्या है ?”

“कहता है, आचार्य प्रियांशु फ्रॉड है।” कहकर शेखर ने अपनी नज़र प्रियकांत के चेहरे पर गड़ा दी।

प्रियकांत के चेहरे पर हलका-सा स्मित फैल गया, बोला-”मैंने तो उसके कहने से अपना नाम तक बदल लिया और उसके साथ या किसी के भी साथ क्या फ्रॉड किया है मैंने ?”

“चलें उसके पास...?” शेखर ने पूछा।

“अब छोड़ो...वो न कुछ करेगा...न करने देगा...तुम्हारा यह चैक निकाल दें, तो भी लगभग चार लाख रुपया इकट्ठा हुआ है...इसके साथ एक समागम करो...और यह गुलशन बाऊजी फिर आने को कहें तो उनसे एक लाख पहले एडवांस लेना...अब से मेरा काम तुम्हीं सँभालोगे...”

“दो निमंत्रण तो मिले हैं।” शेखर को माधव के आतंक से थोड़ी राहत मिली।

प्रियकांत ने कहा-”उनसे कहो, थोड़ी प्रतीक्षा करें...पहले अपना समागम...विशाल भंडारा...सात दिन भक्तों से जो भी दक्षिणा मिले, लेते रहो। भंडारा चलता रहना चाहिए।” फिर थोड़ी देर रुककर-”पहले अपना एक फोरम होना चाहिए...क्यों ?”

“हाँ, मैं तो कब से यही सोच रहा हूँ।” शेखर ने ताईद की।

तब बना ‘विश्व शांति मिशन’। मकसद था-जन-कल्याण, धर्मांतरण को रोकना और छुआछूतरहित हिंदू समाज की स्थापना करना।