प्रियकांत / भाग - 17 / प्रताप सहगल

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‘विश्व शांति मिशन’ को रजिस्टर्ड करवाना था। उसके लिए कुछ पद बने। उन पदों के लिए लोग जुटाए गए। अब तक आचार्य प्रियांशु के काफ़ी भक्त हो चुके थे। कार्यसमिति में उन्हीं लोगों को रखा गया, जो आचार्य के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध थे। शेखर उसका महासचिव बना। हर दो साल बाद चुनाव का प्रावधान। आचार्य प्रियांशु उस मिशन के आजीवन अध्यक्ष एवं एकमात्र संस्थापक घोषित हुए।

मिशन को रजिस्टर्ड करवाने के लिए उनका सबसे पहले सामना हुआ भ्रष्टाचार से। बिना रिश्वत दिए रजिस्टर्ड होने की कल्पना भी मत कीजिए। हो भी जाए तो संभव है, साल, दो साल लगें। सार्वजनिक रूप से उच्च नैतिक मूल्यों की बात करने वाले आचार्य ने ख़ामोशी से यह कहकर स्वीकार कर लिया कि कोई काम करवाने के लिए प्रोफ़ेशनल फ़ीस तो देनी ही पड़ती है।

शेखर सोचने लगा-‘सुविधा-शुल्क, चाय-पानी, आबोदाना, कितने महात्मा गांधी, प्रोफ़ेशनल फ़ीस, प्रोटेक्शन मनी, हफ़्ता, न जाने कितने नाम हैं रिश्वत के महान भारत में।’

प्रोफ़ेशनल फ़ीस देकर जो भी दंद-फंद करने पड़े, किए गए और अगले समागम के आयोजित होने से पहले ही ‘विश्व शांति मिशन’ के आगे ब्रेकेट में एक ‘महान’ शब्द लग गया-‘रजिस्टर्ड’।

अगले समागम की घोषणा पहाड़ की चोटी से की गई। पूरी दिल्ली को ख़बर हुई। समागम के लिए मधु विहार के ही क़रीब राजा गार्डन के पास पड़ा एक ख़ाली मैदान बुक कर लिया गया। मिशन के विस्तार के लिए वालंटियर भरती किए गए। प्रियकांत ने ग़रीबों की बस्तियों का दौरा किया। ग़रीब आदमी हर कहीं आसरा ढूँढ़ने लगता है। आचार्य प्रियांशु में भी उन्हें एक आसरा दिखाई देने लगा। एक बस्ती में किसी ने प्रियकांत से निवेदन किया-”हमारी बस्ती में भी करिए न अपना समागम।” प्रियकांत इस निवेदन के लिए तैयार था और नहीं भी। तुरंत उत्तर दिया-”आप लोगों के क़रीब ही तो हो रहा है बड़ा समागम, भंडारा भी है, वहीं आइए।” प्रियकांत जानता था कि ग़रीब बस्तियों से धन नहीं, लोग मिलेंगे और अपने पहले समागम में वह अधिक से अधिक लोग जुटा लेना चाहता था।

समागम शुरू हुआ। भीड़ जुटी और ख़ूब जुटी। प्रेस के लोग भी पहुँचे। प्रचार के शोर ने लोगों को यह विश्वास दिला दिया था कि शांति और प्रेम का एक नया दूत अवतरित हुआ है। वह हिंदू समाज में जागृति लाना चाहता है। हिंदू समाज को सुख एवं समृद्धि से भर देना चाहता है। हिंदू समाज को इस्लाम और क्रिश्चियनिटी के हमलों से बचाना चाहता है और एक बार फिर भारत को जगत-गुरु के रूप में स्थापित करना चाहता है।

प्रचार से यश मिलता है। यश से धन और धन से मिलती है तंत्र के विभिन्न घटकों को नियंत्रित करने की शक्ति।

लोगों को लग रहा था कि अमृत-रस की वर्षा हो रही है। अंतिम दिन तो भीड़ शामियानों की परिधि में बँधी एक समुद्र की तरह लग रही थी।

समागम का अंतिम दिन। ‘विश्व शांति मिशन’ की विधिवत घोषणा की गई। भावी कार्यक्रमों की रूपरेखा दी गई और दान-दक्षिणा की अपील की गई। पैसा तो पहले दिन से ही टपक रहा था, लेकिन अंतिम दिन पैसा बरसा और खूब बरसा। आनन-फानन में तीस लाख। छोटे-मोटे चढ़ावे अलग। आचार्य प्रियांशु ने वहीं उस धन से आश्रम बनाने की घोषणा कर दी। करतल ध्वनि से मंडप गूँज उठा।

प्रियकांत उर्फ़ आचार्य प्रियांशु को भी इतनी सफलता की उम्मीद नहीं थी। शेखर को लग रहा था कि प्रियकांत की इतनी बड़ी सफलता के पीछे उसी का हाथ है।

समागम में आए लोग लौट रहे थे कि तभी सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने एक चेहरा प्रियकांत के सामने प्रकट हुआ। हाथ जोड़ते हुए बोला-”आचार्य जी! पहचाना ?”

प्रियकांत ने उस चेहरे को पहचान तो लिया था, लेकिन उस चेहरे के साथ जुड़ी स्मृति अच्छी नहीं थी। मन ही मन सोचा-‘यह वही चेहरा तो है, जिसने मुझे आज तक पूछा नहीं। पलटकर भी कभी मेरी ओर देखा नहीं। मेरी प्रतिभा को इस चेहरे ने नहीं पहचाना तो मैं इस चेहरे को क्यों पहचानूँ!’

प्रियकांत ने भावशून्य होकर कहा-”क्षमा करें, नहीं पहचाना।”

“मैं नितिन कपूर, फ़िल्मवाला।” नितिन समझ तो रहा था कि प्रियकांत ने उसे पहचान लिया है, लेकिन वह न पहचानने का अभिनय कर रहा है।

“ओ हाँ,” जैसा दिमाग़ पर बहुत ज़ोर देने के बाद प्रियकांत के मुख से ये दो शब्द निकले।

“बहुत अच्छा बोलते हैं आप...” नितिन को सूझ नहीं रहा था कि ऐसी स्थिति में वह इसके अतिरिक्त और क्या कहे।

“हाँ!” प्रियकांत के स्वर में अभी भी निस्संगता थी।

“लगता है, इधर आपने कई नए भजन लिख लिए हैं...माशा अल्लाह धुनें भी बड़ी कर्णप्रिय हैं।” बात को आगे बढ़ाने की ग़रज़ से नितिन बोला।

“हाँ, बस, प्रभु की कृपा से कुछ हो ही जाता है।”

“अपनी अगली फ़िल्म में आपके प्रवचन का प्रसंग रखना चाहता हूँ।” नितिन के यह कहने पर प्रियकांत की आँखें घूम गईं। अपनी उत्सुकता पर एक मोटी चादर डालते हुए उसने कहा-”कहाँ, अब समय कहाँ...?”

नितिन को प्रियकांत से ऐसे बेरुखी भरे जवाब की उम्मीद नहीं थी। वह अंदर ही अंदर कट सा गया। नितिन का अनुमान था कि अपनी वक्तृत्व कला से आने वाले दिनों में प्रियांशु महाराज की क्रेज़ होने वाली है। वह उसी क्रेज़ के पैदा होने की संभावना से ही प्रियकांत की ओर हाथ बढ़ा रहा था। उसे भुनाना चाहता था।

प्रियकांत को भी नितिन का प्रस्ताव अच्छा लग रहा था, लेकिन ‘ज़रा हटके’ तो वह अपने बलबूते पर ही कर सकता था। अब जब उसके नाम की धूम मचने लगी है तो वह अपने नाम की पूरी क़ीमत वसूलेगा। नितिन समझ नहीं पा रहा था कि वह बात जारी रखे या वहाँ से चला जाए। तभी प्रियकांत ने उससे कहा-”नितिन, ऐसा कीजिए, कभी डेरे पर आइए, वहीं बात करेंगे।”

“डेरा ?” नितिन की उत्सुकता जगी।

“हाँ, मेरा घर, अब भक्तों का डेरा ही तो है।”

नितिन ‘जी-जी’ करता लौट गया तो पास खड़े शेखर ने पूछा-”आचार्य जी, चलें ?”

“हाँ।”

भक्तों की टोली ने प्रियांशु महाराज को गाड़ी तक पहुँचाया। आचार्य प्रियांशु के भक्तों में अब कई पत्रकार और बड़े सरकारी ओहदों पर काम करने वाले भी जुट गए थे। सभी कहीं न कहीं, किसी न किसी बात से जीवन में दुःखी थे। उन सबको सुख की खोज थी। उन्हें लगता था कि आचार्य प्रियांशु की पूँछ पकड़कर वे भी वैतरणी पार कर सकते हैं।

गाड़ी आज तेज़ चल रही थी...चल नहीं रही थी, शेखर चला रहा था। गाड़ी की तेज़ रफ़्तार यही बता रही थी कि शेखर का दिमाग़ भी उसी रफ़्तार से चल रहा है। तरह-तरह की योजनाएँ, तरह-तरह के सपने। शेखर सोच रहा था कि प्रियकांत उर्फ़ आचार्य प्रियांशु के नाम की धूम मचाने में उसका बड़ा हाथ है। वह शुरू दिन से ही इतना मान-सम्मान न देता तो आज प्रियकांत परम पूज्य आचार्य प्रियांशु महाराज न होते। उसे लगने लगा था कि उसके दिन फिर गए हैं। इतने चढ़ावे में कुछ हिस्सा तो उसे भी मिलेगा। मिलना भी चाहिए। लेकिन आचार्य ने हिस्सा न दिया तो ? ‘तो’ के आगे बड़ा प्रश्नचिह्न। एक काला धब्बा। वह ख़ुद को ख़ुद ही जवाब देने लगा...हिस्सा न दिया तो वह माँग लेगा...आख़िर ‘गुलशन सत्संग सभा’ से लेकर यहाँ तक की यात्रा में हर क़दम पर वह प्रियकांत के साथ रहा है। उसका हर हुक़्म बजाया है। वह न होता तो क्या ‘गुलशन सत्संग सभा’ में उसकी जय-जयकार होती ? वह उसे नीहार से न मिलवाता तो क्या आज प्रियांशु की कोई सत्ता होती ? उसी ने वहाँ भंडारा आयोजित किया। उसी ने एक लाख ग्यारह हज़ार एक सौ ग्यारह रुपए का चैक दक्षिणा स्वरूप देकर बड़ी दक्षिणा की शुरुआत की। उसी ने ‘विश्व शांति मिशन’ को एक सप्ताह में रजिस्टर्ड करवा दिया। उसी ने इतने बड़े समागम का आयोजन करवाया। तो उसका हिस्सा उसे क्यों न मिले ?