प्रियकांत / भाग - 18 / प्रताप सहगल

Gadya Kosh से
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इधर प्रियकांत अपने संसार में खोया हुआ था। उसने तीस पार कर लिए थे। उसके सामने उसका सुनहला लोक खुलने लगा था। वह जल्दी से जल्दी अब गृहस्थ में प्रवेश करना चाहता था। सादगी-भरा धूमधाम-पूर्वक विवाह। धूमधाम भक्तों की। वह अपने गृहस्थ आश्रम में प्रवेश को भी एक महत्वपूर्ण घटना बनाना चाहता था। वह अपने स्वप्नलोक में विचर ही रहा था कि शेखर के प्रश्न ने उसकी सोच-कड़ी में ब्रेक लगा दी-”आचार्य जी, अब ?”

इस प्रश्न के साथ ही गाड़ी क्रीच करती हुई झटके से रुकी। गाड़ी के सामने एक गाय आ गई थी। शेखर ने हँसकर कहा-”माताजी।”

प्रियकांत ख़ामोश रहा।

शेखर ने प्रश्न दोहराया।

प्रियकांत ने जवाब दिया-”आश्रम के लिए कोई अच्छी-सी जगह तलाश करो।”

शेखर तो सोच रहा था कि आचार्य जी ख़ुद ही उसे कुछ ऑफ़र करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सीधे-सीधे माँगना उसे अच्छा नहीं लग रहा था। उसने पैसे ऐसे माँगे-”आचार्य जी! आपकी कुछ कृपा हो जाती तो मैं भी अपना काम कुछ जमा लेता।”

प्रियकांत को उसका संकेत समझने में एक पल भी नहीं लगा। उसने ज़रा लापरवाही से जवाब दिया-”हाँ, देखते हैं...पर पहले ऐसा करें कि मिशन की कार्यसमिति का पुनर्गठन कर लें।”

“अभी तो बनी है कार्यसमिति।”

“हाँ, रजिस्ट्रेशन की जल्दी में उसमें कुछ ऐसे लोग भी आ गए हैं, जो बाद में हमें परेशान कर सकते हैं।” प्रियकांत शेखर को समझा रहा था-”फिर मैं चाहता हूँ कि इसमें दो-तीन पत्रकार हों, दो-तीन ऊँचे सरकारी ओहदों पर बैठे लोग हों, दो-तीन डॉक्टर हों...समझ रहे हो न, मैं क्या कह रहा हूँ ?”

“जी!” शेखर ने जवाब दिया और उसकी सोच का दूसरा दरवाज़ा खुल गया। उस दरवाज़े के सामने जंगल था। निचाट जंगल। जंगल में सिर्फ़ सरकंडे के पेड़। उस जंगल में सरकंडों के आसपास वह अकेला भाग रहा है। न छाया, न फल। उसे उन सरकंडों पर पीली झालरें दिख रही थीं, फिर उनका रंग स्याह हो गया। फिर उसे वहाँ एक नखलिस्तान दिखने लगा। वह फिर ठोस यथार्थ में लौट आया। क्या वह आचार्य जी को अभी ऐसा न करने के लिए कहे ? बात मानेंगे ? नहीं, शायद वह आचार्य जी को ऐसा करने से रोक नहीं सकता था। वह जानता था कि मिशन के संस्थापक एवं आजीवन अध्यक्ष के नाते उनके पास अपार शक्तियाँ थीं और वे जब भी चाहें कार्यसमिति का पुनर्गठन कर सकते हैं।

प्रियकांत ने प्रसंग बदलते हुए शेखर से कहा-”एक निमंत्रण है माउंट आबू से...वहाँ चले जाओ...देखो, व्यवस्था कैसी है...और बातें भी ठीक कर लेना।”

“माउंट आबू पर तो ब्रह्मकुमारियों का कब्ज़ा है।” शेखर ने टिप्पणी की।

“हाँऽऽऽ...बड़ी धार्मिक जगह है...कात्यायनी की पीठ भी है वहाँ, दिलवाड़ा भी है...आजकल मौसम भी अच्छा होगा...दो-चार दिन घूम-फिर लेना...गोमुख ज़रूर जाना...बहुत नीचे है वहाँ विशिष्ठ मुनि का आश्रम...तुम्हें वहाँ आनंद आएगा।”

शेखर के सामने जैसे रोमांच का दरवाज़ा खुल गया। वह सरकंडे के जंगल से निकलकर नक्की झील की नीली गहराइयों में उतरने लगा। उसे लगने लगा, वह एक गहरे हरे रंग के महल में खड़ा है। हरे कपड़े। हरा बिछावन। हर ओर हरियाली।

अगले ही दिन वह ट्रेन से गंतव्य की ओर रवाना हो गया।

शेखर माउंट आबू से पाँच दिन बाद लौटा। घर पहुँचा तो उसे ‘विश्व शांति मिशन’ का एक बंद लिफ़ाफ़ा मिला। खोलकर पढ़ने लगा। पढ़ते-पढ़ते उसका चेहरा पीला पड़ गया। पत्नी ने लक्ष्य किया, पूछा-”क्या हुआ ?”

“कुछ नहीं...अभी आता हूँ।” कहकर वह सीधा प्रियकांत के घर पहुँचा। प्रियकांत पूजा में व्यस्त था। लगभग एक घंटे की प्रतीक्षा के बाद वह बाहर निकला। शेखर के चेहरे को देखते ही प्रियकांत ने भाँप लिया था कि उसे मिशन का पत्र मिल चुका है। फिर भी सामान्य भाव से ही प्रियकांत ने कहा-”आओ शेखर, माउंट आबू से कब लौटे ? वहाँ कार्यक्रम तय हो गया ?”

“आज सुबह...कार्यक्रम की बात बाद में, पर यह...यह क्या है आचार्य जी ?” पूछते हुए शेखर ने पत्र प्रियकांत को दिखाया।

प्रियकांत ने बड़े निर्लिप्त भाव से जवाब दिया-”हाँ...यह सब इन लोगों ने ही तय किया है। मैंने इन्हें समझाया भी...पर क्या करूँ...तुम तो समझते ही हो, मैं अब जनता की संपत्ति हूँ, जो चाहें सो करें।”

“लेकिन मेरा इंतज़ार तक नहीं किया ?” शेखर की आवाज़ में तुर्शी आने लगी थी।

“मैंने कहा भी इन्हें...पर वो मामला आश्रम के लिए ज़मीन का था और उसके लिए महासचिव के हस्ताक्षर की ज़रूरत थी...बस, जल्दी-जल्दी में सब हो गया।...बड़ी अच्छी ज़मीन मिल गई है...सस्ती भी...वो हैं न अर्बन डेवलपमेंट मिनिस्ट्री के ज्वॉइंट सेक्रेटरी...बस, उन्होंने करवाया है यह सब...तो प्रकाश द्विवेदी को बनाना पड़ा महासचिव...”

“कौन है यह प्रकाश द्विवेदी ?” शेखर ने गुस्से में पूछा।

“मेरा पुराना दोस्त है न माधव...उसी का साला है...अपना ही आदमी है...तुम चिंता मत करो...मैं इन लोगों से तुम्हारे बारे में बात करूँगा।” प्रियकांत ने शेखर के ताज़ा-ताज़ा घाव पर नमक लगाने की ग़रज़ से कहा।

शेखर का मन अंदर से तो इतना उबल रहा था कि अभी सामने पड़े गुलदान को उठाकर प्रियकांत के सिर पर दे मारे, पर उससे होता क्या ? पुलिस आती...केस बनता...झंझट ही झंझट...वह इस तरह के किसी झंझट में पड़ना नहीं चाहता था। खून का घूँट पीकर रह गया। फिर आचार्य जी ने कहा भी तो है कि वे सभी लोगों से बात करेंगे। ऐसे में झूठी सांत्वना भी शेखर को आशा की किरण लग रही थी। वह बिना कोई हंगामा किए लौट आया।

घर लौटते हुए शेखर के मन में तरह-तरह के विचार करवट लेने लगे। प्रियकांत को उसने उठाया, बनाया, उसका प्रचार किया कि कुछ लाभ होगा तो उसका भी हिस्सा होगा। आचार्य ने उसे सिर से ही साफ़ कर दिया। माउंट आबू भेजना तो एक बहाना था। सब पूर्व नियोजित ढंग से किया गया है। पर आचार्य जी को मुझसे तकलीफ़ क्या है ? क्या उन्होंने मेरे मन की बात भाँप ली है या कि वे मुझसे इसलिए छुटकारा चाहते हैं कि मैं उनके संघर्ष के दिनों का साथी हूँ ? संघर्ष के दिनों के साथी पर तो विश्वास करना चाहिए। फिर दूसरी करवट-अगर मुझे इन्होंने महासचिव न बनाया तो इनकी ऐसी-तैसी कर दूँगा।

ऐसी-तैसी, कैसी ऐसी-तैसी...क्या कर लेगा शेखर...क्या कर लेगा...अब आचार्य के साथ मीडिया है, सरकारी अफ़सर हैं, पुलिस है...लोग हैं...फिर सोचा कि वह बताएगा लोगों को कि कैसे उन दोनों ने मिलकर सारी योजना बनाई थी...फिर सोचा-नहीं, क्या कहूँगा किसी को ? यही कि मैंने एक लाख ग्यारह हज़ार एक सौ ग्यारह रुपए का चैक देकर वापस ले लिया था...तो उस फ्रॉड में मैं भी शामिल हुआ...क्या उस साँठ-गाँठ को लोगों के सामने खोलना ठीक होगा ? और भी न जाने कैसे-कैसे ख़याल शेखर के मन में आते रहे। उसे कोई भी ऐसी निश्चित राह दिखाई नहीं दी, जिस पर वह अकेला चलकर भी लड़ सके।

शेखर को अच्छी तरह से यह बात समझ में आ गई कि आचार्य प्रियांशु को अब उसकी ज़रूरत नहीं है। कुछ दिन शेखर बहुत परेशान रहा। उसे जीवन में एक बार फिर शिकस्त मिली

थी। इससे पहले भाइयों एवं पिता के सामने वह हार चुका था। व्यापार में इतना ही कमा पाता कि उसकी और परिवार की ज़िंदगी खींच-खाँचकर चल जाती। उसने प्रियकांत के साथ जुड़कर बड़ी आशाएँ पाल ली थीं और अब यहाँ भी शिकस्त। शेखर ख़ुद को बहुत टूटा हुआ महसूस कर रहा था। जब भी वह निराशा-चक्र से घिरता, उसे हमेशा नीहार की याद आती। कुछ दिनों की परेशानी और सेल्फ-इंपोज़्ड तन्हाई को झेलने के बाद वह एक दिन नीहार के पास पहुँचा।

नीहार रोज़ की तरह पढ़ने में मशगूल था। शेखर के चेहरे पर उग आई वीरानी को देखते हुए उसने सीधे ही पूछा-”ठीक तो हो न ?”

“हाँ, चाय पिऊँगा।” शेखर ने कहा।

नीहार ने दो प्याला चाय तैयार की और शेखर के हाथ में एक प्याला पकड़ाते हुए पूछा-”बात क्या है, बहुत दिनों से तू पार्क में भी नहीं दिखा...प्रियांशु के साथ घूमता रहता है क्या ?”

वाक्य का अंतिम हिस्सा शेखर को तीर की तरह से चुभा और वह उबल पड़ा-”नाम मत लो उस हरामी का।”