प्रियकांत / भाग - 19 / प्रताप सहगल

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नीहार के लिए यह अप्रत्याशित था। वह जानता था कि प्रियकांत को आचार्य प्रियांशु महाराज बनाने में शेखर की भूमिका बड़ी महत्वपूर्ण रही है। वह यह भी जानता था कि प्रियांशु के लिए शेखर के मन में एक गहरा आदर-भाव है। तब वह ऐसा क्यों कह रहा है ?

“आजकल तो उसकी बड़ी चर्चा हो रही है।” नीहार के ऐसा कहने के पीछे यह भाव था कि इसी बहाने शेखर कुछ और खुले।

शेखर खुला क्या, फट पड़ा, प्रियकांत की ‘माँ-बहन’ एक करते हुए।

“तुमने ठीक ही कहा था, फ्रॉड है वो...क्या बताऊँ...स्साला अपने आप को इतना तीसमारखाँ समझने लगा है, मुझसे मिलना ही नहीं चाहता। मिलता भी है तो दो-दो घंटे इंतज़ार करवाने के बाद। स्साला पहलवानों और हसीनाओं से घिरा रहता है। एक दिन तो हद ही हो गई...” कहकर वह रुक गया।

“क्या हुआ ?” नीहार के मन में उत्सुकता ने फन उठाया।

“एक दिन हरामी मिल ही नहीं रहा था मुझसे। जब पूछता...एक ही जवाब...आचार्य जी पूजा कर रहे हैं...क्या बताऊँ नीहार...तंग आ गया था बैठे-बैठे...पहलवान ज़रा-सा इधर-उधर हुए

कि मैं दनदनाता हुआ सीधा उसके कमरे में घुस गया...हरामी का पिल्ला...दो सेविकाओं से चरण दबवा रहा था...शिट् ‘विश्व शांति मिशन’...क्या कल्याण करेंगे यह हिंदू समाज का...।”

“मैंने तुझे कितनी बार समझाया है शेखर! इन लोगों के चक्कर में मत पड़, अपना कामधंधा कर। इन लोगों के लिए धर्म एक धंधा है...”

“पर मैंने हमेशा उसका साथ दिया।”

“देख, कुछ स्वार्थ तो तेरे मन में भी था न!”

“हाँ, था...पर इस क़ीमत पर तो नहीं...इससे तो अच्छे गुलशन बाऊजी हैं...मिलते हैं...कीर्तन करते हैं...अपने-अपने घरों को चले जाते हैं...” शेखर ने कहा।

“हाँ, वो भी कोई अच्छा तरीक़ा नहीं है भक्ति करने का...यह तो नितांत एक निजी मामला है...उसका इतना प्रदर्शन क्यों...प्रदर्शन होगा तो दूसरी-दूसरी बातें भी जुड़ेंगी...तू छोड़ यह सब और अपना कामधंधा सँभाल...”

“कुछ बदलेगा नहीं इनसे ?” शेखर ने पूछा।

“कुछ नहीं बदलेगा...समाज बदलता है जागरूकता से, जागरूकता आती है अच्छी शिक्षा से...और वहीं हम पिछड़े हुए हैं...हम लोग डिग्रियाँ कमाने को ही शिक्षा समझ लेते हैं।”...नीहार कह रहा था और शेखर सुन रहा था। चाय का आख़िरी घूँट हलक़ के नीचे उतारते हुए उसने कहा-”और जहाँ तक बात है इन धर्माचार्यों की, तो तुम देख ही रहे हो आजकल, कितने धर्माचार्य कुकुरमुत्तों की तरह से उग आए हैं।”

“पर प्रियांशु तो बरगद बना हुआ है।”

“कुकुरमुत्ते हैं यह सब...ज़हरीले कुकुरमुत्ते...इनसे बचो...” नीहार कह रहा था।

“और यह जो बरगद की बात कर रहे हो न तुम...भ्रम है उसका, तुम्हारा भी...थोड़े दिनों बाद देखना...कुछ तो तुम देख ही चुके हो, बाक़ी का फ्रॉड भी सब सामने आ जाएगा।”

“मेरी समझ में तो कुछ नहीं आता...सच बताऊँ, मैंने सोचा था, प्रियांशु के साथ जुड़कर मैं भी चार पैसा कमा लूँगा...साथ ही कुछ ज्ञान की बात सुनूँगा...” शेखर ने कहा।

“अरे धर्म, इतिहास, दर्शन, समाज को समझना ही है तो कुछ पढ़ो-लिखो...नहीं पढ़-लिख सकते तो पढ़े-लिखों की संगत करो...असली सत्संग तो यही है...इन कुकुरमुत्तों से न तुम्हें छाया मिलेगी, न प्रकाश...क्या सोच रहा है ?”

अपने चेहरे को थोड़ा व्यवस्थित करते हुए शेखर बोला-”तुमसे बातें करके थोड़ा अच्छा लगा, हमेशा ही अच्छा लगता है...पर क्या करूँ, ज़िंदगी में आईं बार-बार नाकामियाँ मुझे अँधेरे में ठेल देती हैं...”

“वो नाकामियों से भागना है...नाकामियों से भागो मत, उन्हें उनके बालों से पकड़ो...हो जाओ दो-चार...गिरोगे भी तो मन में यह संतोष तो होगा कि नाकामियों का सामना किया, उनसे भागे नहीं।”

शेखर एकदम ख़ामोश था। उसका चित्त काफ़ी शांत हो चुका था। वह मन में नए-नए संकल्प लेकर चला गया।

गाड़ी में बैठते ही शेखर ने गुलाम अली की ग़ज़लों का कैसेट लगा लिया। अपनी मनपसंद ग़ज़ल ‘हंगामा है क्यूँ बरपा, थोड़ी-सी जो पी ली है, डाका तो नहीं डाला, चोरी तो नहीं की है’ उसे आज अपेक्षाकृत अधिक मधुर और सुकूनदेह लग रही थी। मेन रोड पर जा रही एक सुंदर लड़की को देखने के लिए उसने गर्दन बाहर की ओर घुमाई कि सामने दीवार पर चिपके आचार्य प्रियांशु के पोस्टर उसे दिखाई दिए। एक-दो नहीं, ढेरों। पोस्टर देखते हुए उसके अंदर कुछ उबलने लगा। लड़की को देखना भूल वह पोस्टर को ही देखता रहा। ग़ज़ल अभी भी हवा में तैर रही थी। उसने कैसेट प्लेयर बंद कर दिया। सड़क के बाईं ओर दीवार पर चिपके आचार्य प्रियांशु के पोस्टर उसे घूर रहे थे। मन में उद्वेलन, आँखों में अंगारे। उसने गाड़ी को एक ओर किनारे पर खड़ा किया। डैशबोर्ड से मार्कर पैन निकाला और एक बड़े-से पोस्टर पर आचार्य प्रियांशु के नाम के आगे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा-‘कुकुरमुत्ता’।

‘कुकुरमुत्ता’ लिखकर उसके मन का उद्वेलन कुछ कम हुआ। वह पुनः नीहार की कही हुई बातों की ओर लौटने लगा। ख़ामोशी का एक समंदर उसके अस्तित्व पर तारी हो गया था।

कमलनाथ के घर इन्कम टैक्स वालों ने छापा मारा। घर के चप्पे-चप्पे की तलाशी जारी थी। कमलनाथ पंजाबी बाग में एक आलीशान मकान में रहता था। घर की साज-सजावट रईसी की नई परिभाषा देती थी। कमलनाथ पिछले तीन सालों से इसी मकान में रह रहा था। वह अकसर लोगों को बताता कि उसका एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का बहुत बड़ा कारोबार है। उसका रहन-सहन और बोलचाल ऐसा कि उसके साथ बिताए कुछ पल उस पर विश्वास करने के लिए काफ़ी थे।

तीन सालों में उसने बाज़ार में बड़ी साख बना ली थी। एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का कारोबार कितना था, यह किसी को पता नहीं; लेकिन उसने ब्याज पर पैसे लेने का काम शुरू किया था। जिनके पास पैसा आ जाता है और वे उस पैसे से जल्दी से जल्दी और पैसा कमा लेना चाहते हैं, ऐसे ही मध्य वर्ग के बड़े व्यापारी उसके क्लाएंट थे। अच्छी विदेशी दारू की पार्टियाँ करना, ख़ूबसूरत लड़कियाँ परोसना और बिज़नेस लेना।

बाज़ार से कहीं ऊँची ब्याज-दर पर वह लोगों से पैसे उठाता और समय से उनका ब्याज चुकाता। उसकी इसी बात ने बाज़ार में उसकी असंदिग्ध साख बना दी थी।

कमलनाथ के घर पर इन्कम टैक्स के छापे की बात सुनकर आचार्य प्रियांशु भी बहुत विचलित था। उसे भी रह-रहकर डर सता रहा था कि कहीं...!

दरअसल हुआ यूँ था कि कमलनाथ भी आचार्य प्रियांशु के प्रवचन सुनने वालों में से एक था। उसकी चाल-ढाल आकर्षित करने वाली थी ही और ऐसे धनाढ्य भक्तों को आचार्य प्रियांशु की नज़रें खोजती ही रहती थीं।

कमलनाथ ही आग्रह करके एक दिन प्रियकांत को अपने घर ले गया था। कमलनाथ की पत्नी नेहा ने प्रियकांत का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया था।

कमलनाथ का घर क्या, एक छोटा-मोटा महल था। प्रियकांत को अपना आश्रम इस महल की भव्यता के सामने फीका लग रहा था। वह भव्यता में नहा रहा था कि कमलनाथ ने पूछा-”आचार्य जी, क्या लेंगे? दूध, जूस या...”

“नहीं, अभी कुछ नहीं कमलनाथ जी! आप एक्सपोर्ट करते हो न ?”

“जी, इम्पोर्ट भी...दरअसल इधर मैंने जो फाइनेंस का काम शुरू किया है, उसमें बड़ी बरकत हो रही है, प्रभु की कृपा से।”

प्रियकांत थोड़ी देर ख़ामोश रहा। दरअसल उसके मन में ऊहापोह चल रही थी कि वह मन की बात कमलनाथ से कहे या न कहे। कुछ टटोलने की मंशा से पूछा-”आप इतनी ऊँची ब्याज-दरों पर बाज़ार से पैसा उठाते हो, तो वह इन्वेस्ट कहाँ करते हो ?”

“आचार्य जी, आपसे क्या छिपाऊँ...मेरा ज़्यादातर पैसा फ़िल्म इंडस्ट्री में लगता है...वहाँ से ज़्यादा ब्याज और किसी धंधे में नहीं मिलता।”

फ़िल्म इंडस्ट्री का नाम आते ही प्रियकांत के दिमाग़ में नितिन कपूर कौंधा, पूछा-”वो एक नितिन कपूर...”

“जी...उसकी हर फ़िल्म में मेरा ही पैसा तो लगा है...प्रोड्यूसर अच्छा है, उसकी फ़िल्मों में लगाया पैसा कभी डूबा नहीं।”

“मेरे पास भी आया था। अपनी नई फ़िल्म में मुझे साइन करना चाहता था।”

“आपको फ़िल्म में...? आप फ़िल्मों के लिए थोड़े ही बने हैं।”

“नहीं...शायद कोई प्रसंग निकाला हो...पर मेरी दिलचस्पी तो अपने ढंग की फ़िल्म बनाने में है।”

तभी नेहा तीन गिलास जूस लेकर आई। दोनों को जूस का गिलास देने के बाद वह स्वयं ऐन प्रियकांत के सामने बैठ गई। नेहा की उम्र कोई तीस के आसपास होगी। गदराया हुआ बदन। झक्क गोरा रंग। कटावदार नैन-नक़्श। उसने अपनी कजरारी आँखों को प्रियकांत की आँखों में डालते हुए कहा-”आज तो हमारे भाग खुल गए आचार्य जी, जो आपकी चरण-धूलि हमारे घर में पड़ी।”