प्रियकांत / भाग - 20 / प्रताप सहगल
प्रियकांत के चेहरे पर हलकी-सी मुस्कराहट तैरने लगी। पूछा-”आपने कभी फ़िल्म में काम किया?”
“क्या करना आचार्य जी...फ़िल्म लाइन में बड़ी गंदगी है।”
“पर मैंने तो सुना है कि अब वहाँ हालात बहुत बेहतर हैं...लड़कियों के लिए...”
“हालात तो वही हैं आचार्य जी, लोगों के नज़रिए बदल गए हैं...अब सिर्फ़ पैसा कमाना ही वैल्यू है। मैं वहीं से भागकर तो आपकी शरण में आता हूँ...आप ही हैं, जो आज भटके हुए समाज को सही दिशा दे सकते हैं।”
प्रियकांत जो कहना चाहता था, इतनी प्रशंसा सुनकर कह नहीं पा रहा था। उसने देखा कि इधर कमलनाथ उसकी तारीफ़ कर रहा था, उधर नेहा की साड़ी का पल्लू बार-बार सरक रहा था।
तीनों जूस पीते रहे। कुछ देर तक ख़ामोशी पसरी रही। ख़ामोशी को प्रियकांत ने ही तोड़ा-”कमल जी! बात यह है कि इधर मेरे पास कुछ धन आ गया है...सब भक्तों ने ही दिया है...पर वो मिशन के अधिकारीगण भी कुछ गड़बड़ी कर रहे हैं तो वो सब पैसा मेरे पास ही है।”
“जी...अकाउंटेड है या...?”
“अब इतना धन अकाउंटेड कैसे होगा! बस, रखा है...”
“फ़िल्म बनाने की सोच रहे हैं ?”
“नहीं, अभी तो सोचता हूँ कि उसे इन्वेस्ट कर दूँ, कोई भरोसे का आदमी ही नहीं मिलता।”
“इनकी साख...आचार्य जी...आज बाज़ार में किसी से भी पैसा माँगे, पाँच मिनट में मिलता है।” नेहा चहकी।
“मैंने भी तारीफ़ सुनी है आपकी...पर यह बात सिर्फ़ अपने तक ही रखिए...ख़ासकर नेहा जी! आपसे निवेदन है।”
“समझ गई आचार्य जी! मैं उन औरतों में से नहीं, जो बात को महामारी की तरह फैला देतीं हैं।”
“आप तो समझते ही हैं कमल जी! भक्त जन देते हैं मुझे और खा जाते हैं दूसरे।”
“कितना होगा ?” कमलनाथ ने पूछा।
“ब्याज कितना और कैसे ?” प्रियकांत की इस जिज्ञासा का जवाब दिया कमलनाथ ने-”दो रुपए सैकड़ा...ब्याज चाहें तो हर महीने, तिमाही, छमाही या सालाना...जैसे भी कहें...हो जाएगा।”
“इतना ब्याज कैसे मैनेज होता है ?”
“मिलता है न आचार्य जी! फ़िल्म लाइन में सब अनाप-शनाप चलता है...वहाँ तो बड़े-बड़े माफ़ियाओं का धन लगता है...अब धर्म से कमाया धन लगेगा तो अच्छा ही है न!”
“हाँ, इसे किसी धार्मिक फ़िल्म में ही लगवाए।” कहते हुए प्रियकांत ने नेहा के डीप कट ब्लाउज़ में झाँकते उरोजों पर निगाह डाली।
“तो कल आ जाइए...आश्रम में ही...कुछ काग़ज़-वाग़ज़ तो करेंगे न ?”
“सब करेंगे आचार्य जी...वैसे यह धंधा है विश्वास का...आप कहेंगे तो करेंगे।”
“तो चलता हूँ...नमस्कार।” कहकर प्रियकांत उठ खड़ा हुआ। जाते-जाते उसने सरसरी निगाह से एक बार फिर नेहा को देखा।
कमलनाथ प्रियकांत को बाहर तक छोड़ने आया। अगले ही दिन कमलनाथ प्रियकांत के आश्रम पहुँचा। लगभग दस एकड़ में फैला हुआ था आश्रम। वह आश्रम को देखकर विस्मित हुआ और थोड़ा विचलित भी।
प्रियकांत तक पहुँचने में उसे देर नहीं लगी। दरअसल वह उसी का इंतज़ार कर रहा था। उसने कमलनाथ को बैठने का निमंत्रण देते हुए पूछा-”अकेले ही हैं या नेहा भी है ?”
“उसका तो बहुत मन था आने का, पर घर कुछ और लोग आने वाले थे...तो...”
प्रियकांत ने अपने सेवकों से दरवाज़ा बंद करने को कहा और जिस गद्दी पर वह बैठा था, उसी को सरकाकर ज़मीन में दबे दो बड़े-बड़े पैकेट निकालते।
कमलनाथ की आँखें चमक उठीं। उन दोनों पैकेटों को कमलनाथ को थमाते हुए प्रियकांत ने कहा-”पूरे दो करोड़ हैं, गिन लीजिए।”
“हमारे धंधे में यह नहीं होता आचार्य जी! एक ने कहा, दूसरे ने मानी, कहे कबीरा दोनों ज्ञानी।” कहकर वह ज़ोर से हँसा।
“ब्याज ? महीना, तिमाही...या...”
“तिमाही ही ठीक रहेगा...मैं भी हर महीने कहाँ सँभालता फिरूँगा।”
“आचार्य जी! यह आपने अच्छा किया, जो पैसा इन्वेस्ट कर दिया...पड़ा पैसा और मिट्टी-दोनों एक-से ही हैं।”
“हाँ, सोचता हूँ, कुछ धन और एकत्रित हो जाए तो मैं भी एक फ़िल्म लॉन्च करूँ।” कहते हुए उसके दिमाग़ में फिर नितिन कौंधा।
प्रियकांत नितिन की उपेक्षा को आज तक भूल नहीं पाया था-”कमल जी! बस, एक निवेदन है कि यह पैसा कहीं भी लगा दें, लेकिन नितिन कपूर की फ़िल्म में नहीं...”
कमलनाथ नितिन कपूर के प्रति प्रियकांत के इस दुर्भाव का कारण नहीं जानता था। ना ही उसे जानने में कोई दिलचस्पी थी। उसका काम था धंधा करना और अपनी तरह धंधा करना, बोला-”नहीं लगेगा, और बताइए!” फिर पल-भर रुककर उसने कहा-”आचार्य जी, अब आपको देश से बाहर निकलना चाहिए।”
“यह तो आपने मेरे मन की बात कही...सिंगापुर, बैंकॉक और इंडोनेशिया से तो निमंत्रण भी आए हैं...दरअसल मेरा एक पुराना दोस्त है माधव। जर्मनी में है आजकल। उसकी ज़िद है कि मेरी विदेश-यात्रा, प्रवचन आदि सबके बारे में वही तय करेगा।”
“माधव ?” कमलनाथ के कान खड़े हो गए-”जर्मनी में...कहीं यह माधव शिरोडकर तो नहीं ?”
“नहीं।”
सुनकर कमलनाथ थोड़ा आश्वस्त हुआ-”ठीक है...माधव को ही तय करने दीजिए...तो मैं चलूँ ?”
“जी! अगले माह कुछ और देखता हूँ।”
“जी! वो नेहा कह रही थी कि उसकी तरफ़ से आपको घर आने के लिए निमंत्रण ज़रूर दूँ...सो...”
प्रियकांत पर फैले स्मित ने उसके होंठ फैला दिए-”ज़रूर आऊँगा।”
प्रियकांत एक दिन अयाचित ही कमलनाथ के घर जा पहुँचा। दरबान प्रियकांत को पहचानता था। वह आदर सहित उसे अंदर ले लिया-”बैठिए...मैडम को बताता हूँ।”
“वो कमलनाथ...।”
“वे तो बाहर गए हैं...मैडम हैं।”
प्रियकांत दीवारों पर टँगी महँगी पेंटिंग्स को देखने लगा। थोड़ी ही देर में नेहा दो गिलास लेकर ख़ुद ही उपस्थित हो गई। उसने प्रियकांत को प्रणाम किया और जूस का गिलास उसे पकड़ाते हुए पूछा-”आचार्य जी! न कोई फ़ोन...न मेल...”
“हाँ, बस इधर से निकल रहा था तो...पता चला, कमल जी घर पर नहीं हैं।”
“उनका क्या...उनका तो काम ही है देश-विदेश घूमना...मैं तो हूँ न,” फिर आँखों में शोखी भरते हुए कहा-”आप मिलने तो मुझसे ही आए हैं न ?”
प्रियकांत जानता था कि सच्चाई यही है, जो नेहा बता रही है, लेकिन इस सच्चाई को स्वीकार करना प्रियकांत के लिए मुश्किल हो रहा था। उसे यह भी समझ नहीं आ रहा था कि जो नारी क्षण-भर पहले उसकी चरणवंदना कर रही थी, वही एकदम से अदाएँ और शोख़ियाँ कैसे बिखेरने लगी।
प्रियकांत का आचार्यत्व धुलने लगा और उसके अंदर से कामी पुरुष झाँकने लगा-”हाँ, चाहता तो था मिलना...नेहा! तुममें कुछ बात है, जो आदमी को अपनी ओर खींचती है।”
“यह तो आप ही जानें।”
थोड़ी देर की चुप्पी।
फिर प्रियकांत का एक अटपटा-सा सवाल-”आपके बच्चे ?”
“नहीं हैं।”
“हुए नहीं या किए नहीं ?”
“नहीं हुए।”