प्रियकांत / भाग - 21 / प्रताप सहगल

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“ओऽऽऽ, तब कमल इतनी भाग-दौड़ किसलिए करता है...संतान का होना तो निहायत ज़रूरी है...बिना पुत्र के मोक्ष नहीं मिलता नेहा, न पिता का नाम चलता है...शास्त्रों में तो कहा गया है...” कहकर प्रियकांत ने शास्त्रों के हवाले से संतान और ख़ास तौर पर पुत्र-प्राप्ति की अनिवार्यता समझाई। ‘महाभारत’ के अनेक प्रसंगों को उद्धृत करके स्थापित कर दिया कि नियोग से भी संतान-प्राप्ति का विधान है और यह विधान शास्त्र एवं धर्म-सम्मत है।

प्रियकांत जब यह सब नेहा को समझा रहा था, तब नेहा मन ही मन मुस्करा रही थी। इतना प्रवचन सुनने के बाद वह अपने सोफ़े से उठी और प्रियकांत की आँखों में आँखें डाल यह कहते हुए कि ‘चलिए आज नियोग ही सही’ उसका हाथ पकड़ अपने शयनकक्ष में ले गई।

नेहा ने उस दिन प्रियकांत को फिर आने का खुला निमंत्रण दिया और यह भी कहा कि वे चाहें तो उसे अपने आश्रम में भी बुला सकते हैं। प्रियकांत ने आश्रम की अपेक्षा नेहा का घर ही सुरक्षित समझा और कहा कि वहीं आ जाया करेगा। फ़ोन तो बात करने का माध्यम था ही।

अगली बार जब प्रियकांत नेहा से पूर्व-निश्चित कार्यक्रम के अनुसार मिलने गया तो नेहा ने कहा-”आचार्य जी! बैठिए।”

“अब यह आचार्य जी छोड़ो, प्रियकांत ही कहो।”

“हाँ-हाँ, प्रियकांत! बैठो-आज आपको एक चीज़ दिखाना चाहती हूँ।” कहकर उसने रिमोट कंट्रोल से टी.वी., कैमरा ऑन किया।

थोड़ी ही देर में चलती फ़िल्म देखकर प्रियकांत के चेहरे की हवाइयाँ उड़ने लगीं “यह...यह...क्या...?”

“यह किसलिए...कैसे...”

“बस, हो गया।” दरअसल नेहा ने अपने शयनकक्ष को ‘बग’ किया हुआ था।

“यह तुमने अच्छा नहीं किया नेहा!”

“कल आप मेरे साथ हों न हों...इस बहाने यह याद तो रहेगी न!” शोख़ी-भरे अंदाज़ में नेहा ने कहा।

“यह चिप मुझे दे दो।”

“ले जाइए, चिप भी ले जाइए...देखिए या दिखाइए, बस, आते रहिए...”

“कमल ने देख लिया तो...”

“न...न...न...” कहते हुए उसने फ़िल्म रोक दी और प्रियकांत का फक पड़ा चेहरा निहारने लगी।

प्रियकांत को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि यह सिर्फ़ मनोरंजन है या षड्यंत्र ? कमलनाथ भी यह सब जानता है क्या ? जानेगा तो क्या कहेगा ? क्या करेगा ? उसने बड़ी मेहनत से ‘विश्व शांति मिशन’ को प्रतिष्ठित किया था। विदेशों तक पाँव पसारने की तैयारी थी। चेलों की संख्या लाखों में पहुँच गई थी। ऐसे में प्रियकांत यह नादानी क्यों कर बैठा ? आख़िर नेहा चाहती क्या है ? उसने नेहा से पूछा भी था-”तुम चाहती क्या हो...पैसा...दो करोड़ दे चुका हूँ...भूल जाऊँगा...और चाहिए, दूँगा...पर यह खेल मेरे साथ मत खेलो।”

“बिज़नेस की बात कमल के साथ, प्यार-व्यार, इश्क-मुहब्बत की बात मेरे साथ...अभी तो मुझे पुत्र हासिल करना है आचार्य जी! आप जैसे तेजस्वी का वीर्य-पुत्र...बहुत तेजस्वी होगा न!”

प्रियकांत एकदम निहत्था हो चुका था। मन में बैठ चुके इस डर को बाँटता भी तो किससे ? माधव विदेश में है। शेखर को वह ख़ुद ही छोड़ चुका है। तब वह...किससे कहे कि वह किसी एक बड़े षड्यंत्र का शिकार हो चुका है।

आज जब उसे पता चला कि कमलनाथ के घर पर आयकर विभाग ने छापा मारा है तो वह उद्वेलित हो उठा कि कहीं पैसे के कारोबार में उसका भी नाम न आया हो ? कहीं वो चिप उनके हाथ लग गई तो ?

उसने नेहा को मन ही मन भरपूर गालियाँ दीं।

कमलनाथ को फ़ोन मिलाया। बार-बार स्विच ऑफ़। नेहा का फ़ोन भी स्विच ऑफ़।

कोई भी तो नहीं था उसका हमराज़। उसने किसी को बनाया भी नहीं था।

और फिर उसके जेहन में वो चेहरा घूम गया, जिस चेहरे से वह बहुत डरता था। स्वामी विद्यानंद का चेहरा। कहीं उन्हें यह सब पता चल गया तो ? गुरु का डर ही जैसे स्वामी विद्यानंद की दैहिक उपस्थिति को दर्ज कर रहा था। उसकी परेशानी पर पसीने की बूँदें छलकने लगीं और

वह किसी भी परेशानकुन संभावित स्थिति से सामना करने के लिए ख़ुद को तैयार करने लगा। ख़बरें छन-छनकर आने लगीं। कमलनाथ के घर जब छापा पड़ा तो वहाँ सिर्फ़ दरबान था। उसी की मौजूदगी में घर के ताले तोड़ दिए गए थे। कमलनाथ और नेहा कहाँ हैं-किसी को भी मालूम नहीं।

पता चला कमलनाथ का कंप्यूटर मिला है। पासवर्ड नहीं है। खुल नहीं रहा। हैकर्स अपना काम कर रहे हैं। कम्प्यूटर खुला। करोड़ों रुपयों के ब्यौरे हैं। लेकिन सभी बीज-शब्दों में। उन्हीं कोड्स को डीकोड करने की कोशिशें जारी हैं।

पता चला कि कमलनाथ ने बाज़ार से कोई पाँच-छह सौ करोड़ रुपए उठा रखे हैं। इधर का पैसा उधर और धर का पैसा इधर करके ही वह लोगों का ब्याज चुकाता था।

पता चला कि किसी ड्रग्स माफ़िया से भी उसका रिश्ता है; लेकिन किससे और कितना, यह अभी भी निश्चित नहीं हो पा रहा था।

पता चला कि नेहा नाम की कोई औरत थी ज़रूर, लेकिन वह कमलनाथ की पत्नी नहीं थी और नेहा उस औरत का वास्तिविक नाम भी नहीं था।

और भी बहुत कुछ पता चल रहा था। बाज़ार में हलचल थी। बचैनी। दहशत। मायूसी। जिन्होंने कमलनाथ को पैसा दिया था, हाथ मल रहे थे। सारा अनअकाउंटेड धन। कोई बोले भी तो क्या...? सभी को फ़िक्र थी कि कहीं कोड्स डीकोड न हो जाएँ...हों तो हों...किसी के अपनी डायरी या कंप्यूटर में नाम-भर दर्ज कर लेने से ही व्यक्ति अपराधी थोड़े ही हो जाता है। पैसा भूलकर सभी इन्कम टैक्स की मार से बचना चाहते थे।

सबसे परेशान प्रियकांत था। पैसे के लिए कम, उस चिप के लिए ज़्यादा।

पता चल गया कि कमलनाथ और नेहा नाम की वह औरत दोनों ही विदेश में हैं। उन्होंने हवाला से सारा पैसा वहाँ ट्रांसफर कर दिया था। उस देश से भारत की प्रत्यर्पण संधि नहीं थी, इसलिए उन्हें वहाँ से लाना भी संभव नहीं था।

प्रियकांत ने चैन की साँस ली। चलो अच्छा हुआ। वे दोनों पड़े रहेंगे कहीं विदेश में...कम से कम उसका सम्मान तो बचा रहेगा। लेकिन डिकोड होते ब्यौरे, वो चिप...क्या वह भी अपने

साथ ले गई होगी या नहीं ? प्रियकांत इतना परेशान हो चुका था कि उसके प्रवचन उसे ही पाखंड लगने लगे। वह ख़ुद बोलता, लेकिन उसे महसूस होता कि वह अपने ही कहे शब्दों को ठीक से सुन नहीं पा रहा।

आज प्रियकांत सुबह उठा। उद्विग्न तो था ही। उद्विग्नता पहले से ज़्यादा थी। रोज़ की तरह ध्यान लगाने की कोशिश की। ठीक से ध्यान भी नहीं लगा पा रहा था। आश्रम के अंदर प्रवेश करती पुलिस की गाड़ियों ने उसका आधा-अधूरा ध्यान भंग कर दिया। तीन बड़े पुलिस अधिकारी उसके सामने थे। आश्रम को बाहर से पुलिस ने घेर लिया था। इससे पहले कि भक्त जन आश्रम आते, बड़ी तत्परता एवं ख़ामोशी से प्रियकांत को गिरफ़्तार कर लिया गया। हालाँकि प्रियकांत के अनेक शिष्य पुलिस, इन्कम टैक्स, सी.बी.आई. आदि विभागों में थे। फिर भी प्रियकांत को अपनी संभावित गिरफ़्तारी की कोई पूर्व-सूचना नहीं मिली, वरना वह अग्रिम ज़मानत तो ले ही लेता।

मीडिया के लिए यह एक बड़ी ख़बर थी। विभाग के हाथ ठोस सबूत लगे थे प्रियकांत के ख़िलाफ़। और भी कुछ लोग पकड़े गए थे। वे कोई बड़ी ख़बर नहीं थी। प्रियकांत की गिरफ़्तारी बड़ी ख़बर थी।

माधव एयरपोर्ट से उतरा ही था कि उसे प्रियकांत की गिरफ़्तारी की ख़बर लाउँज में लगे टी.वी. से मिली। वह एकदम सकते में आ गया। उसने आश्रम फ़ोन मिलाया। कोई नहीं उठा रहा था। प्रियकांत का फ़ोन स्विच ऑफ़ आ रहा था।

पुलिस पूछताछ के लिए प्रियकांत को रिमांड पर लेना चाहती थी। माधव ने शेखर को फ़ोन मिलाया।

“हलो!” शेखर ही था।

“शेखर! मैं माधव। सुना तुमने, यह क्या हो रहा है ?”

“मुझे क्या पता माधव जी, क्या हो रहा है। मुझे तो उसने दूध में पड़ी मक्खी की तरह से निकालकर फेंक दिया था...और इसमें आप भी शामिल थे।”

“नहीं, ऐसा नहीं है शेखर! मुझे यह पता भी नहीं। प्रियकांत मेरा पुराना दोस्त है...वह मुझसे मदद चाहता था...फिर मुझे लगा कि वह देश और समाज के लिए कुछ अच्छा काम करना चाहता है...मैंने सपोर्ट किया...देट्स इट।”

“ठीक है, जाइए, करिए उसे अब भी सपोर्ट। स्साला, कुत्ता! भाषण देता है सदाचार के और...काला पैसा...क्या पता ड्रग्स माफ़िया से भी उसकी कोई साँठ-गाँठ हो। मैंने सुना है, कोई ब्लू फ़िल्म भी मिली है कंजर की किसी रंडी के साथ...मुझे कुछ नहीं करना उसका...अच्छा हुआ, जो यह दिन देखने से पहले मेरा-उसका साथ छूट गया।” कहकर उसने फ़ोन बंद कर दिया।