प्रियकांत / भाग - 22 / प्रताप सहगल

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माधव ने जल्दी से अपने वकीलों को बुलाया और उन बड़े वकीलों ने क़ानून की बारीकियाँ निकालकर प्रियकांत को कोर्ट में पेश होते ही ज़मानत पर रिहा करवा लिया।

प्रियकांत और माधव-दोनों पुराने मित्र अकेले आश्रम में ही बैठे थे।

“यह तूने क्या किया प्रियकांत!”

प्रियकांत ने ख़ामोशी ओढ़ ली।

माधव विचलित हो रहा था। वह प्रियकांत से संवाद स्थापित करके उसे उस दलदल से निकालना चाहता था, जिसमें वह फँस गया था।

माधव ही फिर बोलने लगा-”पैसे मैंने भी कमाए हैं, खूब कमाए हैं...तू तो विश्व-कल्याण के लिए निकला था और ख़ुद ही...नेहा से तेरा कुछ चक्कर था या सब अफ़वाहें हैं ?”

“था।” प्रियकांत ने एक शब्द से अपना मुँह खोला।

“क्यों ?”

“क्यों ? मैं पुरुष नहीं हूँ क्या ?” प्रियकांत ने कहा।

“यह मैंने कब कहा! शादी कर लेते न...कुछ सेविकाएँ भी हैं तुम्हारी।”

“हाँ, पर उनके साथ वैसी बात नहीं है।”

“और ड्रग्स...हथियार...”

“मेरा उस सबसे कुछ लेना-देना नहीं।”

“तुम कमलनाथ को कितना जानते थे, जो विश्वास करके बिना किसी लिखा-पढ़ी के उसे दो करोड़ दे दिए।”

“मेरे पास भी तो दो करोड़ का कोई हिसाब नहीं था...क्या लिखा-पढ़ी करता।”

“बेहिसाब पैसा रखा क्यों ? तुममें पैसे की इतनी हवस...मुझसे कहता यार...मैं अपने बिज़नेस में तेरी पत्ती डाल देता।”

प्रियकांत पानी-पानी हो गया-”माधव! ऐसी बात मत कर...दरअसल जिस दिन तू मुझे गुप्ता जी के घर ले गया था, उसी दिन वहाँ अपमान और उपेक्षा झेलने के बाद मैंने निश्चय किया था कि मैं पैसा कमाऊँगा...बेहिसाब कमाऊँगा...और पैसा कमाने का जो ज़रिया मैं जानता था...वो मैंने चुना।”

“अब ?”

“अब तो फँस गया हूँ...देखता हूँ...कई भक्त हैं मेरे...”

“पहले भगवान् भक्तों को बचाता था...अब भक्त भगवान् को बचाएँगे।” कहकर माधव ज़ोर से हँसा।

“हँस ले...मेरी फटी पड़ी है, तू हँस ले।”

“आचार्य प्रियांशु, ऐसी भाषा नहीं बोलते। तू फिक़र मत कर...मैं करता हूँ सब इंतज़ाम...तुझे कुछ नहीं होगा...”

“वो चिप अगर पुलिस के हाथ लग गई या लग चुकी है तो सत्यानाश...”

“नेहा के साथ है न...देखता हूँ...बात सामने तो आए न, फिर देखते हैं...मैंने तो विदेश में तेरे प्रवचनों का प्रबंध कर दिया था और तू यहाँ फँसा बैठा है। अब कोर्ट की इजाज़त के बिना देश से बाहर नहीं जा सकेगा।”

“हाँ, इच्छा तो मेरी है...पर देखो...” क्षण-भर रुककर प्रियकांत फिर बोला-”माधव, कितने साधु-संत घूम रहे हैं देश-विदेश-क्या-क्या नहीं करते वे...एक हैं सदानंद महाराज, एक और हैं आचार्य शांतिदेव...एक और हैं आसानंद-सबकी अपनी-अपनी कहानियाँ हैं-फिर भी मस्त घूमते हैं...मैंने थोड़ा-सा कुछ किया और फँस गया।”

“यह राह तुम्हारी थी ही नहीं प्रियकांत...तुम स्वामी विद्यानंद के शिष्य हो...उनके संस्कार नहीं मिले किसी और को...”

स्वामी विद्यानंद का नाम आते ही हर बार की तरह प्रियकांत का पूरा शरीर एक बार फिर पसीने से भीग गया। उसकी शिराएँ उबाल खाकर ठंडी पड़ने लगीं। माधव ने प्रियकांत को पसीने से भीगते देखा-”प्रियकांत! क्या हुआ...स्वामी विद्यानंद का नाम सुनते ही...कहाँ हैं वे आजकल ?”

“पता नहीं, दो साल पहले कैलास की ओर गए थे...उसके बाद से उनके साथ कोई संपर्क नहीं।”

“पर उनका मन ज़रूर देख रहा होगा अपने शिष्य को।”

“हाँ...नहीं...पता नहीं।” प्रियकांत कुछ भी ठीक से कह पाने की स्थिति में नहीं था।

माधव और प्रियकांत बातों में मशगूल थे। तभी एक सेवक ने कमरे में आकर प्रियकांत को एक विज़िटिंग कार्ड दिया। कार्ड देखते हुए प्रियकांत बोला-”नितिन। बाहर बिठाओ, आता हूँ।”

“कौन नितिन ?” माधव ने पूछा।

“नितिन कपूर। फ़िल्में बनाता है...”

“यहाँ किसलिए आया है ?”

“मुझसे मिलने तमाम तरह के लोग आते हैं-राजनेता, फ़िल्मवाले, बिज़नेसवाले, नौकरीपेशा, छात्र-शिक्षक-सब। यह नितिन वही है, जिसे कभी मैंने फ़िल्म में अपना संगीत देने की बात चलाई थी...आज वही मेरे द्वार...वक़्त भी न क्या-क्या रंग दिखाता है।”

“उसे बाहर क्यों बिठाया...यहीं बुला लो न!”

“यह मेरा निजी कक्ष है माधव! यहाँ तुम आ सकते हो, कोई ऐरा-ग़ैरा नहीं।” कहकर उसने सेवक को बुलाया और कहा-”जो साहब आए हैं, उन्हें ‘चिंतन-कक्ष’ में बिठा दो...पानी दो।”

“पानी दे दिया है आचार्य जी!” कहकर सेवक बाहर चला गया।

“तुम यहीं आराम करो...मैं उससे मिलकर आता हूँ।” प्रियकांत ने माधव से कहा।

“मैं भी चलूँ तो ?”

“क्या करोगे ?”

“वो पता नहीं क्या बात करने आया है! देख, जैसे हालात है, उसमें मेरा तेरे साथ रहना ही ठीक है।”

प्रियकांत न नहीं कर सका।

दोनो मित्र चिंतन-कक्ष में पहुँचे। नितिन ने खड़े होकर आचार्य प्रियांशु को प्रणाम किया।

प्रियकांत ने संकेत से ही उसे बेठने को कहा। चिंतन-कक्ष में नीचे ही बैठने की व्यवस्था थी। प्रियकांत के बैठने की जगह थोड़ी ऊँची थी। वह वहीं बैठा। उसने माधव को अपनी बग़ल में बिठा लिया। सामने थोड़े नीचे बने आसन पर नितिन बैठा था।

प्रियकांत ने ही बात शुरू की-”कैसे आना हुआ नितिन ?”

नितिन ने माधव को लक्षित करते हुए कहा-”आपसे अकेले में कुछ बात करना चाहता था।”

“यह माधव हैं...मेरे पुराने मित्र...इनके सामने आप निःसंकोच कुछ भी कह सकते हैं।”

नितिन का संकोच टूटा तो नहीं, लेकिन वह जो बात करने आया था, वो तो करनी ही थी...सो बोला-”आचार्य जी! इधर जो ख़बरें मीडिया पर हैं, अख़बार, टी.वी., रेडियो...हर जगह...मैं सोच रहा था कि यह एक हिट फ़िल्म की परफ़ैक्ट स्टोरी है...एक फ़िल्म बनाऊँ...इसका स्क्रीन प्ले मैं ही लिखूँगा, आपकी मदद से...आपकी परमीशन चाहिए।”