प्रियकांत / भाग - 6 / प्रताप सहगल
शेखर के पिता गिरधारी लाल भी विभाजन के वक़्त अपने परिवार सहित दिल्ली आ बसे थे। अपने कठोर संघर्ष से करोबार बढ़ाया। बच्चे बड़े हुए। उन्होंने उनकी शादियाँ कीं और कामधंधा अपने तीनों बेटों को सौंप राम-भजन करने लगे।
गिरधारी लाल के तीन बेटों में शेखर सबसे बड़ा था। शेखर के दोनों छोटे भाई कमल और विमल पिता की तरह से ही कारोबारी बुद्धि वाले थे, इसलिए उन्होंने काम को आगे बढ़ाया। शेखर थोड़ी मस्त तबीयत वाला था। यारबाज़ी और शेख़चिल्ली के सपने देखना उसकी आदतों में शुमार थे। पिता ने जब तीनों भाइयों को कामधंधे को लेकर लड़ते-झगड़ते देखा तो उसने सारे काम और संपत्ति के चार हिस्से किए। एक ख़ुद रखकर शेष तीनों भाइयों में समान रूप से बाँट दिया।
शेखर के मन में एक ग्रंथि ने बहुत पहले से ही घर किया हुआ था। गिरधारी लाल की पहली पत्नी निर्मला का शेखर के जन्म के कुछ वक़्त बाद ही देहांत हो गया था। बच्चा पालने का तो बहाना था, गिरधारी लाल से अकेलापन काटा नहीं जा रहा था। सो उसने दूसरी शादी कर ली। कमल और विमल गिरधारी लाल की दूसरी पत्नी से थे। शेखर को हमेशा लगता कि उसकी सौतेली माँ की वजह से ही उसे हमेशा उपेक्षित किया गया है। पिता कितना ही आश्वस्त करते, कई बार वे ज़रूरत से ज़्यादा ही शेखर पर ख़र्च करते, उस पर अतिरिक्त स्नेह भी उँडेलते, लेकिन शेखर के मन की गाँठ नहीं खुली तो नहीं ही खुली।
ऐसा नहीं कि शेखर नालायक़ या नकारा था, बल्कि ख़ुद को बार-बार साबित करने के लिए वह अतिरिक्त मेहनत करता। देश-विदेश घूम-घूमकर उसने अपनी कंपनी के प्रोडक्ट को कहाँ-कहाँ नहीं पहुँचा दिया था। बस अपने तुर्श स्वभाव की वज़ह से वह अपने भाइयों से दूर होता चला गया।
अब जब सभी का कामधंधा अलग-अलग हो गया तो कमल और विमल मिल-जुलकर कारोबार करने लगे। शेखर के मन को यह बात गहरे कचोट गई। इस कचोट ने उसे और तुर्श, और अव्यवस्थित बना दिया। इसका उसे नुकसान हुआ। दोनों भाई मिलकर नई-नई मंज़िलें तय करते रहे और शेखर के पाँव के नीचे की ज़मीन खिसकती रही। उसे लगता कि उसके दोनों छोटे भाइयों ने उसके साथ बेईमानी की है। और पिता भी माँ के प्रभाव में उन्हीं का साथ देते हैं।
अपने चौपट होते धंधे को देखकर उसने पिता से मदद माँगी। पिता ने दो बार मदद की भी। शेखर बिना बुनियाद के सफलता का महल खड़ा करना चाहता था। अधैर्य ने नासमझी को जन्म दिया और नासमझी ने असफलता को। पिता धीरे-धीरे तटस्थ और फिर उदासीन हो गए। अकसर इंसान अपनी नाकामियों का घड़ा दूसरे के सिर पर ही फोड़ता है। शेखर भी कोई अपवाद नहीं था। उसने अपनी नाकामी की वजह अपनी सौतेली माँ को ही माना।
सही या ग़लत, जो भी हो, शेखर अपनी सोच को ही सही समझता था।
जीवन जब नाकामी का पर्याय बनने लगे तो विवेक भी साथ छोड़ने लगता है। शेखर में इतनी क्षमता भी नहीं थी कि वह दूसरे की या अपनी मानसिकता का विश्लेषण कर सके।
ऐसे में वह कई बार नीहार के पास चला जाता। नीहार और शेखर दोनों ने एक ही कॉलेज से साथ-साथ ग्रेजुएशन की थी। शेखर बीच-बीच में विदेश हो आता था। नीहार ने अपनी शिक्षा जारी रखी थी। शेखर बी.ए. भी कर पाया या नहीं, किसी को मालूम नहीं।
शेखर की एक ख़ासियत थी। अपने आसपास एक रहस्य मंडल बनाए रखना। उस ज़माने में जब और छात्र साइकिल या बस पर कॉलेज आते थे, वो हिंदुस्तान मारिस की गाड़ी पर आता। गाड़ी को उसने इतना रंग-बिरंगा किया हुआ था कि भरी सड़कों पर वह अलग दिखती। अलग दिखने का यह आसान तरीका था। क़तार से बाहर निकलकर खड़े हो जाओ। कपड़े फाड़कर सड़क पर आ जाओ। जहाँ ख़ामोशी की ज़रूरत हो, वहाँ ज़ोर-ज़ोर से बोलने लगो, अलग दिखोगे। कई लोग अलग दिखने के ये सस्ते और आसान नुस्ख़े अपनाते हैं, लेकिन अलग दिखना और अलग होना-दोनों जुदा-जुदा बातें हैं।
शेखर को हमेशा से अलग दिखने का शौक़ था। अलग बनने के लिए उसने कोई सार्थक प्रयास नहीं किया। अलबत्ता मन में यह ग्रंथि पाल बैठा कि उसके माता-पिता उसकी अपेक्षा उसके दोनों छोटे भाइयों को ज़्यादा प्यार करते हैं। हर सूरत में उनका पक्ष लेते हैं और उसकी उपेक्षा करते हैं।
शेखर जब टेंशन में होता तो यदा-कदा नीहार के पास चला जाता। नीहार उसकी दास्तान कुछ देर सुनता और फिर डाँटता-”तू निरा गधा है, गधा रहेगा...”
शेखर उसकी डाँट भी सुन लेता। अपना राग नहीं छोड़ता। पैसा, समाज में हैसियत, सफलता, माँ और पिता की उपेक्षा का शिकार, भाइयों का छल-यही सब विषय होते उसके पास-नीहार उसे समझाता-”तू पैसे को क्या समझता है-तेरा अकूत पैसा भी ग़ालिब का एक शेर नहीं ख़रीद सकता...कुछ पढ़ा कर...”
पढ़ना शेखर के लिए एक मुसीबत-भरी क्रिया थी। इसलिए नीहार से उसकी पटती नहीं थी। फिर भी उन दोनों के बीच कुछ ऐसा मैत्री-भाव था कि लाख डाँट-डपट के बावजूद शेखर नीहार की बात का बुरा नहीं मानता था और नीहार यह समझते हुए भी कि वह शेखर के साथ अपना वक़्त और शक्ति-दोनों बर्बाद कर रहा है, उसे समय देता। उसके पास बैठता। उसकी सुनता। अपनी सुनाता। शायद कॉलेज के दिनों की मैत्री ऐसी ही इनोसेंट होती है।
शेखर इन दिनों काफ़ी टूटा हुआ था, फिर भी वह नीहार के पास नहीं गया। उसे रिश्ते-नातों से बहुत गहरी वितृष्णा हो गई थी। वह अपनी ज़मीन खोज रहा था और पाँवों के नीचे उसे महसूस होती थी भुरभुरी ज़मीन।
व्यक्ति जब स्वयं को नाकामियों का सामना करने में असमर्थ पाता है, तो वह पलायन करता है। पलायन जीवन से भी हो सकता है और अपने परिवेश से भी। पलायन आंतरिक भी हो सकता है और बाह्य भी।
पलायन मन का वह द्वार है, जहाँ से वैराग्य प्रवेश करता है। शेखर के मन में भी वैराग्य प्रवेश कर गया था। वह घर से भागकर हरिद्वार चला गया। वहाँ से ऋषिकेश, वहाँ से वाराणसी। वापस मथुरा, वृंदावन। दो महीने ऐसे ही भटकता रहा कि उसके मन को कहीं सुकून मिले, कि उसे अपने जीवन का मक़सद समझ में आए। जीवन का मक़सद क्या है ? न उसे यह समझ में आया और न ही उसे कहीं चैन मिला।
व्यक्ति के जीवन में इस तरह के कई अस्थायी दौर आते हैं, जब वह ख़ुद को दोराहों और चौराहों पर खड़ा पाता है। बिना रहबर के उसे सही राह चुनने में दिक़्क़त होती है। कई बार किसी के मार्गदर्शन में जो राह वह चुनता है, वह राह उसकी राह होती ही नहीं। दुनिया में अधिकतर लोग इसी भटकाव में जीते हैं। इसीलिए रोज़ नए-नए देवता और नए-नए मसीहाओं का जन्म
होता है। आदमी ही तो उन्हें जन्म देता है, फिर उन्हीं के सामने समर्पित होकर कृतार्थ अनुभव करता है।
शेखर भी ऐसे ही लोगों में से था, जो जीवन भटकाव में ही गुज़ार देते हैं। मनुष्य को मंज़िल मिले न मिले, पर राह का चुनाव करने की समझ तो होनी चाहिए। यह समझ आती है लिखने-पढ़ने से। यह समझ आती है जीवन-संग्राम में कूदकर अनुभव अर्जित करने से। यह समझ आती है अपनी संवेदना के तंतुओं को एक शक्तिशाली रिसीवर बनाने से।
शेखर भटक रहा था। घर से भागता, लौटता, फिर भागता, फिर लौटता-बस, यूँ ही चल रही थी उसकी ज़िंदगी। सुकून की तलाश में ही वह मधु पार्क की सत्संग मंडली से आ जुड़ा। दो-चार दिन में ही उसे लगने लगा कि यहीं पर उसका उद्धार हो सकता है। इतने बड़े-बुज़ुर्ग लोगों के संपर्कों का लाभ उठाकर वह अपना कामधंधा फिर से जमाकर अपने पर लगे नाकामी के ठप्पे को मिटा सकता था। उसने जल्दी ही गुलशन का विश्वास जीत लिया और एक दिन उसके सामने अपना प्रस्ताव रख दिया-”बाऊजी! हम रोज़ मिलते हैं, सत्संग करते हैं, क्यों न एक फोरम बना दिया जाए।” गुलशन को अधिकतर लोग सम्मानवश ‘बाऊजी’ ही बुलाते थे। गुलशन को भी अच्छा लगता कि उसकी सामाजिक छवि एक धार्मिक व्यक्ति की बन रही है। फोरम बनाने की इच्छा गुलशन के मन में भी थी, लेकिन वह स्वयं यह बात कहते हुए इसलिए हिचकिचा रहा था कि कहीं लोग यह न समझें कि वह ख़ामख़्वाह चौधरी बनना चाहता है। अब जब वही बात शेखर ने कही तो रास्ता आसान हो गया और इस तरह से मधु पार्क में ‘गुलशन सत्संग सभा’ का जन्म हुआ।