प्रियकांत / भाग - 7 / प्रताप सहगल
अगले ही दिन ‘गुलशन सत्संग सभा’ का बैनर भी लग गया और गुलशन बाऊजी उस सभा के अघोषित प्रधान, सचिव, कोषाध्यक्ष-ऑल इन वन-बन गए। पहले वे सभी के साथ ज़मीन पर बैठते थे। अब वे एक कुर्सी लगाकर उस पर बैठने लगे। मानस का पाठ लगातार चलता रहा। अब दूसरे लोग भी पाठ करते। कोई अर्थ भी समझा देता। कोई भजन भी गा देता। मधु पार्क का एक हिस्सा इसी सत्संग के लिए आरक्षित हो गया।
धर्म हो या अध्यात्म, मनोरंजन हो या फ़ैशन-एक ही सिक्का बहुत दिन नहीं चलता। हर आदमी कुछ नया माँगता है। धर्म और अध्यात्म को भी नए-नए तरीक़ों से परोसने से ही
आकर्षण बना रहता है। सभी के मन में यह इच्छा बलवती हो रही थी कि कुछ नया आना चाहिए। नया होने भी लगा। नए-नए लोगों को प्रवचन देने के लिए बुलाया जाने लगा।
इसी प्रक्रिया में वहाँ प्रियकांत को भी बुलाया गया। तीन दिन चला उसका प्रवचन गुलशन, शेखर सहित अनेक लोग प्रियकांत के प्रवचन से बहुत प्रभावित हुए थे। धर्म के नाम पर लोग जल्दी जुटते हैं। धन भी देते हैं। ‘गुलशन सत्संग सभा’ भी कोई अपवाद नहीं था। फिर ख़ुद गुलशन के पास ही इतना धन था कि वह अकेले ही यह सत्संग भव्य तरीक़े से चला सकता था। लोग बढ़े तो लाउडस्पीकर भी बजने लगा।
पार्क में दो तरह के लोग थे घूमने वाले। कुछ लोगों के लिए सत्संग के माध्यम से अमृतवाणी बरस रही थी और कुछेक के लिए यह सत्संग शांत पार्क में ध्वनि-प्रदूषण फैलाने वाला मंच बनता जा रहा था।
आज मधु पार्क में अजीब-सी हलचल थी। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि पार्क में इतनी पुलिस किसलिए खड़ी है। क्या किसी आतंकवादी हमले की आशंका थी ? बम रखे जाने की कोई ख़बर ? या कोई मर्डर या छीना-छपटी की कोई वारदात हुई थी ?
बहुत सुबह से ही पुलिस पार्क में मौजूद थी। कोई पूछता तो उसे कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिलता। नीहार भी घूमने वालों में से एक था। उसने वहाँ मौजूद पुलिस के एक बड़े अफ़सर के पास आकर पूछा-”क्या माजरा है ?”
इससे पहले कि वह पुलिस अफ़सर कोई जवाब देता, गुलशन, शेखर और घनश्याम कुछ लोगों के साथ आते दिखे। वे भी सीधे उसी पुलिस अफ़सर के पास पहुँचे।
गुलशन ने कहा-”देखिए साहब! सत्संग तो हम करेंगे। अपने धर्म को मानना और उसका प्रचार करना हमारा मौलिक अधिकार है।”
“हमारे पास कोर्ट का स्टे ऑर्डर है।”
“हमारे पास तो नहीं है न!” शेखर ने कहा।
“उससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता...कोर्ट के आदेश का पालन हमें करना ही है...आप यहाँ सत्संग नहीं कर सकते।”
“देखता हूँ, कौन रोकता है हमें...मेरी लाश गिरेगी तो बंद होगा यह सत्संग...और उसके ज़िम्मेदार आप होंगे।” यह ऊँची आवाज़ गुलशन की थी।
पास ही खड़ा नीहार उनका वार्तालाप सुन रहा था। गुलशन को वह जानता था। बोला-”बाऊजी! एक मिनट...इधर आएँगे...”
“यहीं बोलिए न...सभी सुनें...”
“देखिए, आप पुलिस के साथ क्यों उलझ रहे हैं ? ये लोग तो अपना फ़र्ज़ ही निभा रहे हैं न!”
“हम कुछ नहीं जानते...हम सत्संग करेंगे...”
“इनसे पूछिए तो सही...किसने लिया है स्टे ?”
नीहार ने फिर पुलिस अफ़सर से मुख़ातिब होते हुए कहा-”यह तो आप बताएँगे न कि स्टे किसने लिया है ?”
“यह देखिए...यह हैं कोई मिस्टर चिंतन...यहीं रहते हैं मधु पार्क के पास।”
“बाऊजी! पुलिस से पंगा लेने का कोई फ़ायदा नहीं। क़ानून की बात क़ानून से ही निपटेगी न!”
“क़ानून धर्म से ऊपर नहीं है।” गुलशन ने अपनी आवाज़ का वॉल्यूम ऊँचा ही रखा।
“एक बार चिंतन से बात तो कर लीजिए...तब जो चाहे कीजिए।”
वहीं खड़ा घनश्याम बोला-”यह ठीक कह रहे हैं...एक बार बात कर लेते हैं।”
गुलशन घनश्याम की बात मान गया-”चलो, सभी चिंतन के घर।”
अभी तक जो बीस-पच्चीस लोग इकट्ठा हुए थे, उन सभी ने चिंतन के घर की ओर रुख़ किया।
चिंतन के घर पहुँच गुलशन ने तीन बार घंटी बजाई। कोई बाहर नहीं आया।
किसी ने कहा-”डरकर भाग गया स्साला!”
गुलशन ने उसकी ओर थोड़ा घूरकर देखा...फिर बोला-”अब...?”
दरअसल चिंतन पेशे से पत्रकार था-रात देर तक काम करता। देर से सोता। उठता भी देर से था।
“एक बार फिर...,” कहते हुए इस बार घंटी घनश्याम ने दबाई।
खिड़की का परदा हिला। थोड़ी देर बाद दरवाज़ा खुला। अधूरी नींद की खुमारी आँखों में भरे चिंतन ही था। सामने इतने लोगों को देख वह जल्दी ही चौकस हो गया-”जी, फरमाएँ!”
“चिंतन समझ गया था कि पुलिस कोर्ट स्टे का पालन कर रही होगी, तभी ये लोग इधर आए हैं।
“इतने लोगों को बिठाने की जगह मेरे पास नहीं है। दो-तीन लोग अंदर आ जाइए।”
गुलशन, घनश्याम और शेखर अंदर गए। शेष वहीं चिंतन के घर के सामने बैठकर राम-भजन करने लगे।
वहीं दो कॉन्स्टेबल भी पहुँच गए। तमाशबीनों की तरह वे खड़े रहे। चारों चिंतन की स्टडी में ही बैठे।
“चाय लेंगे ?” चिंतन ने पूछा।
“आप अकेले रहते हैं क्या ?”
“आजकल तो अकेला ही हूँ।”
“चाय फिर कभी...आज एक ज़रूरी बात करने आए हैं आपसे...”
“आपने कोर्ट से स्टे लिया है ?” शेखर ने पूछा।
“कोर्ट ने दिया है।” चिंतन का जवाब था।
गुलशन ने शेखर को बरजते हुए कहा-”मुझे बात करने दे।”
घनश्याम और शेखर दोनों मूक श्रोता हो गए। वे कभी बातें सुनते, कभी किताबों की ओर देखते।
गुलशन : वो हमें भी मालूम है; पर अपने देश में हम कहीं भी मिल-बैठकर अपने धर्म का पालन कर सकते हैं...यह हमारा मौलिक अधिकार है।
चिंतन : मौलिक अधिकार सिर्फ़ आपका ही है क्या ? दूसरे लोगों को भी चैन से रहने का अधिकार है कि नहीं ?
गुलशन : आपका चैन हम कहाँ छीन रहे हैं ?
चिंतन : सारा दिन मैं फ़ील्ड में रहता हूँ, रात को मुझे अपनी रिपोर्ट तैयार करनी होती है, फ़ाइल करनी होती है...देर रात तक काम करता हूँ...सुबह-सुबह नहीं जग सकता...आप सुबह छह बजे अपना लाउडस्पीकर बजाना शुरू कर देते हैं...मुझे सोने का हक़ नहीं है क्या ?
घनश्याम : चिंतन जी! सुबह-सुबह आपके कानों में राम का नाम पड़ता है...इससे अच्छी बात एक हिंदू के लिए और क्या हो सकती है ?
चिंतन : देखिए, धर्म एक नितांत निजी मामला है। मुझे राम-नाम की ज़रूरत होगी, मैं ख़ुद जप लूँगा। आप अपने धर्म का पालन घर में भी कर सकते हैं।
अब तक ख़ामोश बैठा शेखर भी बोल पड़ा :
शेखर : मुसलमानों को रोककर दिखाओ न! जहाँ चाहे हैं, चद्दर बिछाकर नमाज़ पढ़ना शुरू कर देते हैं।
चिंतन : देखिए, उनके ऐसा करने से रास्ते रुकते हों, या वे लाउडस्पीकर लगाकर सारी रात नमाज़ पढ़तें हो, तो मुझे उससे भी एतराज़ है।
शेखर : उनको रोककर दिखाइए न!
चिंतन : आप बात करने आए हैं या मुझे चुनौती देने ?
गुलशन : हम राम-नाम के बहाने रोज़ एक-दूसरे से मिलते हैं, दुःख-सुख बाँटते हैं।
चिंतन : उसके लिए मंदिर है...धर्म का सामूहिक रूप मंदिरों तक ही रहना चाहिए।
गुलशन : आप तो कम्युनिस्टों की तरह बात कर रहे हैं।
चिंतन : क्या जानते हैं आप कम्युनिस्टों के बारे में ?
गुलशन : धर्म के ख़िलाफ़, रूस और चीन के पिट्ठू, और क्या हैं वे ?
चिंतन : जिस विषय पर आप बात करने आए हैं, उसी तक रहिए तो बेहतर...और सोचिए, कल सिक्ख यहाँ अपना कीर्तन शुरू कर दें, मुसलमान कहें कि हम भी नमाज़ यहीं पढ़ेंगे...देखा-देखी ईसाई भी अपना डेरा यहाँ जमाने लगें...तो क्या होगा इस पार्क का...पार्क सैर करने के लिए है। कसरत कीजिए, सुस्ताइए, योग कीजिए...पर यह कीर्तन...। सॉरी!