प्रियकांत / भाग - 8 / प्रताप सहगल

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‘गुलशन सत्संग सभा’ में आने वाले तमाम लोग हिंदू ही थे। अधिकतर सनातनधर्मी। दो-चार आर्यसमाजी और दो-चार सिक्ख ही नज़र आते थे। न गुलशन और न ही दूसरे सत्संगियों को कोई ख़तरा लगता था।

तभी गुलशन ने कहा-”ऐसा होगा तो हम निपट लेंगे।”

दरअसल इधर जो ‘हिंदुत्व’ की लहर उठी थी और उसी लहर के चलते बाबरी मस्ज़िद गिरा दी गई थी-अयोध्या में राम-मंदिर बनवाने के लिए राम-नाम की ईंटें इकट्ठा की जा रही थीं-इसलिए गुलशन और उस जैसे तमाम हिंदुओं के हौसले बढ़े हुए थे।

शेखर का धीरज जवाब दे रहा था। उसने सीधे ही पूछा-”आप केस वापस लेंगे या नहीं ?”

चिंतन : आप मुझे धमकाइए मत।

शेखर : मालूम है हमें। आप पत्रकार हैं, कोई बात होगी तो सारा मीडिया आपके साथ खड़ा हो जाएगा...आपको मुफ़्त की शोहरत तो हम न लेने देंगे...

घनश्याम : बाहर बैठे लोग भी बेचैन हो रहे होंगे, उन्हें हम क्या बताएँ ?

चिंतन : यही कि केस कोर्ट में है और कोर्ट जो भी फ़ैसला देगी, वही सभी को मंज़ूर होगा।

गुलशन : कोर्ट-वोर्ट का चक्कर छोड़िए चिंतन साहब! कहाँ-कहाँ खड़ी होगी कोर्ट...हमें पार्क से निकालोगे तो हम सड़कों पर कीर्तन करेंगे। बहुत कोर्ट-कचहरियाँ देखीं हैं हमने...हाँ, जो गड़बड़ होगी, उसके ज़िम्मेदार आप होंगे।

चिंतन : और कुछ...मुझे कुछ काम करना है...

गुलशन : चलो भाई, चलो...हो गई बातचीत...अब हम कोई और राह सोचेंगे...सत्संग तो यहीं होगा...

गुलशन यह कहकर घनश्याम और शेखर सहित भनभनाते हुए बाहर निकल आया। वहाँ कीर्तन करने वालों की संख्या पहले से दोगुना हो गई थी। गुलशन, शेखर और घनश्याम को बाहर आते देख कीर्तन रुक गया। सभी ने उत्सुक निगाहों से गुलशन की ओर देखा।

“सीधी उँगली से घी नहीं निकलता यारो...नाम से चिंतन...क्या चिंतन करते होंगे यह...न राम-नाम...न सत्संग...ऐसे हिंदुओं ने ही हिंदू समाज और देश का बेड़ा ग़र्क़ कर रखा है।”

“चलो, आर्य जी से मिलते हैं।” उस इकट्ठे में से एक ने कहा।

“सीधे आडवाणी जी से मिलते हैं न!” दूसरी आवाज़ आई।

लोग आपस में बात करने लगे। कोई सिंघल का नाम लेने लगा। कोई तोगड़िया का। कोई शिव सेना की बात करने लगा। कोई बजरंग दल की। कुल मिलाकर एक अव्यवस्था का माहौल बन गया।

किसी ने कहा-”बिना लाउडस्पीकर के सत्संग करें तो शायद किसी को परेशानी न हो।”

दूसरे ने कहा-”क्यों बंद करें लाउडस्पीकर। सुबह एक-दो घंटे ही तो बजता है। दूर-दूर तक राम-नाम की वर्षा होती है...दो अच्छे बोल कानों में पड़ते हैं...न जाने इस देश में ऐसे-ऐसे हिंदू कहाँ से आए गए हैं।”

तीसरे ने कहा-”ज़ोर-ज़बरदस्ती सत्संग करोगे तो पुलिस डंडा चलाएगी...इसलिए बेहतर यही होगा कि हम राजनीतिक, क़ानून और मीडिया-तीनों तरीक़ों से अपनी बात रखें...जीत हमारी ही होगी।”

आनन-फानन में ‘सत्संग बचाओ समिति’ बन गई। गुलशन, घनश्याम, शेखर तो उस समिति में थे ही-तीन लोग और भी जुड़ गए।

उस दिन वहीं प्रसाद बाँटा गया-लोग तरह-तरह की बातें करते हुए अपनी-अपनी राहों पर निकल गए। ‘सत्संग बचाओ समिति’ ने पार्क में ही अपनी बैठक जमा ली। उनके बीच हुई चर्चा में कई बातें सामने आईं। संक्षेप में सारी सोच कुछ इस तरह बनी कि कोर्ट से स्टे हटवाने के लिए प्रयास हों। दो-चार दिन सत्संग को स्थगित कर दिया जाए और इसे फ़िर से शुरू करने के लिए राजनीतिक समर्थन जुटाया जाए। अगर किसी को लाउडस्पीकर से एतराज़ है तो उसके बिना ही सत्संग चलाया जाए या उसका वॉल्यूम इतना ही रखा जाए कि वहाँ मौजूद लोग आराम से प्रवचन सुन सकें। प्रसाद आदि बनवाने के लिए पार्क में चूल्हा वग़ैरह न जलाया जाए। सत्संग के आसपास की जगह पर कर-सेवा करवाकर वातावरण साफ़-सुथरा रखा जाए।

समिति में एक गर्ममिज़ाज नौजवान भी था-नरेश। उसका एकमात्र एजेंडा था कि किसी भी तरह से चिंतन के होश ऐसे ठिकाने लगाए जाएँ कि फिर कोई इस तरह की हरकत न कर सके। तब गुलशन ने उसे एक ओर ले जाकर कहा था-”लाठी मारनी ही हो तो ऐसी मारो कि लगे तेज़, पर आवाज़ न हो।”

“बाऊजी! ये बौद्धिक साले ड्राइंगरूम में ही लड़ते हैं या टी.वी. पर...घर से बाहर फटती है इनकी।” नरेश के स्वर में आवेश था।

“हाँ-हाँ! ठीक है, पर जैसा मैंने समझाया है न, बस वैसे ही।” कहते हुए गुलशन ने नरेश के आवेश पर स्नेह का छींटा मारा।

चिंतन घर में निपट अकेला था। उसकी पत्नी प्रज्ञा आजकल मायके में थी। साथ में बेटा मनन भी था। चिंतन ने अपने सहयोगियों से बात की। उन्होंने कहा-”वेट। कोई घटना हो तो प्रेस स्वतः ही आ जाती है।” यह बात तो चिंतन भी जानता था, पर उसे चिंता थी अपनी पत्नी और बेटे मनन की। उनके लौटने पर ये लोग कहीं उन्हें कोई नुकसान न पहुँचाएँ।

उधर सत्संगियों ने भी अपने-अपने घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए।

नरेश अलग ही तरह की योजना पर काम कर रहा था। उसकी इसी योजना के तहत एक दिन चिंतन के घर की खिड़की का शीशा टूटा।

दूसरे दिन उसके घर के प्रवेश-द्वार पर मरी बिल्ली मिली।

तीसरे दिन जादू-टोने वाला कुछ सामान घर के आँगन में ही मिला।

चिंतन ने यह सब पुलिस को बताया। पुलिस का कहना था कि वे घटनाएँ ऐसी हैं, जिन पर वे बिना किसी ठोस सबूत के किसी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर सकते।

चिंतन को कई राजनेताओं के निमंत्रण मिलने लगे। कुछ हालचाल पूछते, फिर सत्संग की बात छेड़ते। मधु विहार के काउंसलर कथूरिया ने कहा कि उसने सभी को समझा दिया है, वे अब लाउडस्पीकर का इस्तेमाल नहीं करेंगे।

धीरे-धीरे चिंतन पर कई हिंदुत्ववादियों का दबाव बढ़ने लगा। बिल्ली की जगह कुत्ते ने ली...कुत्ते की जगह सूअर ने...लुब्बेलुबाब यह कि सभी ने मिलकर वहाँ चिंतन का जीना दूभर कर दिया। उसके काम करने की शैली में शैथिल्य आने लगा। हर वक़्त डर का साया उसका पीछा करता रहता। पत्नी और बेटा मनन जब घर लौटे तो डर का साया और गहरा, और लंबा हो गया।

अंततः एक दिन तंग आकर चिंतन ने हिंदुत्ववादियों के सामने हथियार डाल दिए और मकान बदल लिया। हिंदुत्ववादियों की यह बड़ी जीत थी। सत्संगी धीरे-धीरे फिर जुटने लगे।

लाउडस्पीकर फिर चालू हो गया। सिर्फ़ एक अंतर यही आया कि उसका वॉल्यूम नियंत्रित रहता और सत्संग के आसपास साफ़-सफ़ाई रहने लगी।

गुलशन ने सत्संग में आर्यसमाजियों और सिक्खों को भी जोड़ लिया। ‘जपुजी साहब’ का पाठ होने लगा। प्रवचन के लिए आर्यसमाजी प्रचारक तो पहले से ही बुलाए जा रहे थे। अब महीने में एक बार सामूहिक यज्ञ का आयोजन भी होने लगा। कभी ब्रह्मकुमारी आश्रम के मतावलंबी आते तो कभी रामकृष्ण मिशन से कोई। इस तरह से वहाँ ‘सर्व हिंदू समभाव’ प्रकट हुआ यानी ‘पूजा-विधि’ कोई भी हो, गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ वाली उक्ति यहाँ पूरी तरह से चरितार्थ हो रही थी।

चिंतन का मुक़दमा अपनी मौत स्वयं ही मर गया। ‘गुलशन सत्संग सभा’ फिर फलने-फूलने लगी।