प्रेम-चतुर्दशी / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
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अंग्रेज़ी कैलेंडर के दूसरे महीने की चौदहवीं तारीख़ को प्रणय पंचांग पर प्रेम चतुर्दशी का तिथिफूल खिलता है!
साधुभाषा में उसी को वैलेंटाइंस डे कहते हैं।
चंद्रमास के ऐन मध्य में, तिथियों के दो अनुक्रमों को विभाजित करता, वो दिन आता है, और केवल फ़रवरी का महीना ही नहीं, लोकमानस भी जैसे इस दिन ध्रुवीकृत हो जाता है!
वैसे भी वो प्रणय ही क्या, जो सर्वसम्मत हो, सर्वस्वीकार्य हो, ध्वनिमत से किसी अध्यादेश की तरह पारित हो जाए, जिसके पक्ष में बहुमत हो, सृष्टि जिसके सम्भव होने का प्रयोजन मालूम हो!
क्योंकि, प्यार पर बहुत बंदिशें होती हैं, बंदिशों से भले किसी को प्यार ना हो!
किंतु बहुधा ऐसा भी होता है कि ‘असम्भव’ की वर्तनी ‘अवश्यम्भावी’ में बदल जाती है।
कहीं और हो ना हो, प्यार में तो ऐसा ही होता है।
प्यार उलटबांसियों का त्योहार है!
लोक कहता है, यह अनुचित है, विधिविरुद्ध है, निषिद्ध है, प्रेम कहता है, तब तो यही अपरिहार्य, यही वांछनीय, कि यह तो होकर ही रहेगा, कि यह गुरुत्वाकर्षण की तरह अटल!
असंख्य असम्भवताओं के अरण्य में प्रेम का जुगनू आलोक की ऐसी ही कनी को जिलाए रखता है, ऊष्मा और दीप्ति के साथ।
हस्बेमामूल, फ़रवरी की चौदहवीं तारीख़ को -- चौदहवीं के चांद की तरह -- प्रणय का जो पर्व मनाया जाता है, उसे केवल अंग्रेज़ी कैलेंडर के इस दिनांक तक महदूद कर देना भी ठीक नहीं होगा।
क्योंकि ये ऋतु ही वसंत की है, परम्परा से ही प्रेमियों को मदनोन्मत्त कर देने वाली।
ऋतु अनुकूल हो तो बिना न्योते के भी फूल खिल जाते हैं।
किंतु मनुष्य के साथ शायद यह उतना सच ना हो। मनुष्य को ‘निमित्त’ की बहुत आवश्यकता होती है।
प्रयोजन-भावना हो तो वह अनुल्लंघ्य पहाड़ों को भी लांघ जाता है।
एक पर्वतारोही से पूछा गया कि आपने उस पर्वत शिखर पर चढ़ाई करने का निश्चय क्यों किया। उसने उत्तर दिया- क्योंकि वो वहां पर मौजूद था।
पहाड़ हो तो उसे लांघ जाने का मनोरथ जन्मता है।
जैसे प्रत्यंचा हो तो स्वप्न देख रहा धनुष भी तत्पर हो जाता है शरसंधान के लिए।
और प्रियवर हो तो मन में कामना का चंद्रमा अपनी समस्त कलाओं के साथ पूर्णता को अर्जित करने को अग्रसर होता है। कोई एक तारीख़, कोई एक अवसर, प्रयोजन का कोई संकेत बहुधा आपके भीतर वह निर्मित कर सकता है, जो अन्यथा सम्भव नहीं था।
फ़रवरी की चौदहवीं तारीख़ प्रयोजन का वैसा ही एक पर्व रचती है।
और माना कि प्यार कैलेंडर पर दर्ज तारीख़ों का मोहताज नहीं, उसके पंचांग में लगन-महूरत का मोल नहीं, फिर भी कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं, जो निमित्त बन जाती हैं। एक एक्सक्यूज़, एक बहाना, एक औचित्यसिद्धि, एक संगति। वही सही।
जिन संत वैलेंटाइन के नाम पर यह ‘प्रेम चतुर्दशी’ मनाई जाती है, प्रेम की ही तरह उनका बसेरा भी अनेक किंवदंतियों और रहस्यों के भीतर है।
बतलाया जाता है कि इतिहास में वैलेंटाइन के नाम से कोई एक दर्जन संत हुए हैं। इनमें से कम से कम चार ऐसे हैं, जिनकी हत्या की गई थी।
यह ग्रीटिंग और गुलाब का त्योहार है और सबसे पहला ‘वैलेंटाइन ग्रीटिंग’ ख़ुद वैलेंटाइन ने ही लिखा था।
जिस कारावास में वे क़ैद थे, वह ग्रीटिंग उसके अधीक्षक ऑस्टेरियस की बेटी जूलिया के लिए था।
रंगीन काग़ज़ नहीं एक सूखे पत्ते पर लिखी तक़रीर।
पत्र के अंत में लिखे शब्द ‘फ्रॉम योर वैलेंटाइन’ ही तो आज ‘तुम्हारे प्यार की तरफ़ से’ का पर्याय बन गए हैं।
वैलेंटाइन का दूसरा नाम प्यार हो गया है!
बड़ी अनूठी किंवदंती है!
कहते हैं कि जूलिया अंधी थी!
कारावास के अधीक्षक ने प्रेम के संत माने जाने वाले बंदी से अनुरोध किया था कि क्या आप मेरी दृष्टिहीन बिटिया से एक बार मिल सकते हैं? संत ने हां कहा था। इस तरह वे दोनों मिले, मानो समय की जाने कितनी ही सीमाओं को लांघकर, नियति की तरह।
जूलिया ने अंतर्बोध से ही पहचान लिया कि वह किससे मिलने आई है। अपनी हथेलियों से संत की हथेलियों को छू लिया और ईश्वर से उनके लिए प्रार्थना की।
संत ने देखा कि अंधी लड़की की आंखों से आंसू बह रहे हैं!
उस रात संत ने भी ईश्वर से प्रार्थना की कि मेरी ना सही, उस अंधी लड़की के विश्वास की रक्षा करना।
किंवदंती है कि संत की प्रार्थना से और कुछ हुआ हो या नहीं, इतना अवश्य हुआ कि अगली सुबह दो सूरज खिले।
एक सूरज आकाश में उगा, दूसरा जूलिया की आंखों की रौशनी बनकर दीप गया।
अगले दिन संत को सूली पर चढ़ा दिया गया।
जूलिया उन्हें एक बार भी देख नहीं पाई। संत के ना रहने के बाद वह उसी कारागार में गई, जहां संत बंदी बनाकर रखे गए थे। उसने कारावास की दीवारों को चूमा, फ़र्श को स्पर्श किया, कि तभी उसे एक सूखा पत्ता दिखा।
उस सूखे पत्ते पर लिखा था- ‘तुम्हारे वैलेंटाइन की तरफ़ से।’
वसंत यों तो क्षणभंगुर होता है, किंतु जब वो इस कहानी की आख़िरी पंक्ति पर आकर रुकता है तो प्रेम की एक ऐसी अनवरत ऋतु बन जाता है, कैलेंडर के सभी दिन जहाज़ की तरह जिसकी ओर यात्राएं करते हों।
वसंत यों तो निमिषभर का होता है, किंतु जब वो उस टूटे पत्ते का नीड़ बनता है, तो अनुराग की अनंत ऋतु कहलाता है।
और अंग्रेज़ी कैलेंडर के दूसरे महीने की चौदहवीं तारीख़ को खिलने वाला तिथिफूल यों तो हर दिन की तरह आज होकर कल नहीं हो जाता है, किंतु बहुधा उस एक दिनमान में ऐसे जाने कितने पलछिन खिल जाते हैं, जो समय के भीतर सूखे पत्तों की तरह मर जाने से साफ़ मुकर जाते हैं।
मृत्युओं के परे, पतझड़ों के परे, समय के परे, उस लोक में, जहां प्रेम-चतुर्दशी एक दिन नहीं, हर पल की पहचान होती है।