प्रेम के संताप / पवित्र पाप / सुशोभित
सुशोभित
प्रेम के संताप कोई कम थोड़े ना रहे!
किशोरवय तो लज्जा-संकोच में ही बीत गई। स्त्री की ओर आँख ना उठी। कल्पना से ही हृदय कांपता रहा।
नवयौवन में यह उद्भ्रांति कि इतना भला हूँ, कोई तो मन हारेगी ही। किंतु स्त्री मन हारे तो भी बतलाती कहाँ है?
जो कहीं आता न जाता, किसी से बोलता न बतियाता, फिर उसके दरवाज़े पर प्रेम निवेदन की डाक क्यूं कर हो? प्रेम तो उद्यम का सुफल है। आँगन में आ गिरी वस्तु नहीं।
जब व्यग्रता बढ़ी तो अभिमान और संकोच तजकर उद्यत हुआ। किसी को कविता लिखकर दी, किसी को कोई भेंट। उन्होंने कविता पढ़कर कहा, बहुत अच्छी लिखी है। भेंट देखकर कहा, कितनी तो सुंदर है! किंतु बात वहीं रह गई।
तो क्या स्पष्ट शब्दों में कहना होगा? यह तो कल्पना न थी। जब पहला प्रेम निवेदन किया तो प्रत्युत्तर में लोक-समाज की बाधाओं का ज्ञान मिला। कि यह सुंदर तो है पर सम्भव नहीं। और जो सम्भव ही नहीं उस दिशा में चिंतन से क्या लाभ?
बात सही थी। प्रेम में यों भी कोई लाभ न था। उलटे दु:ख ही थे, कष्ट ही थे, सौदा घाटे का था।
एक ने अनुरोध का डोला लौटाया, फिर दूसरी ने, फिर एक और। तब मैं रुआँसा हो रहा कि क्या सच ही इतना बुरा हूँ?
यह तो बाद में समझ आया कि भले-बुरे की बात नहीं, प्रेम के नियम दूसरे हैं। यों मन में अभिमान और संकोच रखकर प्रेम नहीं होता। फिर प्रतिकूलता से तुरंत लौट आना भी बुद्धिमानी नहीं। प्रयास निरंतर हों तो मरुथल में भी जलधार फूट आती है। स्त्री का मन चंद्रमा की कलाओं की तरह है। जिस दिन तुम्हारे पक्ष में उसका उजाला हो, उस दिन उसके सम्मुख रहो तो तुम्हीं सुपात्र हो रहोगे। किंतु यह सब तो बाद में समझ आया।
लोक की बुद्धि हो, गुणों की गठरी हो, सर्वांग सुंदर हों-- तब भी प्रेम की पात्रता एक दूसरी ही नियति है। और जो हृदय प्रेम के लिए कसक से भरा रहता है, उसको तो वो भूले से नहीं मिलता।
कि प्रेम तो कुपात्र का कंठहार है!
फिर देखा कि वो सब प्रेम-पात्राएं, जो दुविधा और औचित्य की मूर्ति थीं, ब्याह करके ऐसे समर्पित हुईं कि जैसे ईश्वर ने उन्हें इसी के लिए सिरजा था। तब यह विवेक आया कि प्रेम मूरख का उद्यम है, संसार की आधार-वस्तु तो अनुबंध है। वही लोक की रीति है। बाद के वर्षों में जीवन अनेक मर्यादाओं और असम्भवताओं से भर गया। वो बाधाएँ प्रतिपक्ष का तर्क बन गईं। तब मैं उपहास से मुस्कराया कि जब ये मर्यादाएं और असम्भवताएं नहीं थीं, तभी तुमने कौन-सा प्रेम कर लिया था, सुंदरी?
यह जीवन यों ही कट गया।
आयु का उत्तरकाल चला आया हो, वैसा तो नहीं है, किंतु प्रेम की वय अवश्य प्रौढ़ हो रही। आशा भी अब नहीं करता। फिर भी, कभी कभी हृदय में आवेग होता है कि-- तुम यों ही प्रेम किए बिना मर जाने को धरती पर आए थे क्या, रे दुर्भागे!