प्रेरक प्रसंग-11 / महात्मा गांधी
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बात 1926 की है। गांधी जी उन दिनों साबरमती आश्रम में रहा करते थे। दीनबंधु सी.एफ़. एण्ड्रूज़ भी उन दिनों वहीं थे। दीनबन्धु दया के सागर थे, दूसरों का दुख देख वे द्रवित हो जाते थे।
एक दिन मालाबार की ओर से कांग्रेस कमेटी का मंत्री गांधी जी के पास आया। उसने सार्वजनिक कोष का बहुत-सा धन लोकसेवा में ख़र्च किया था। लेकिन हिसाब-किताब में वह कच्चा था। सारा जमा-ख़र्च वह ठीक से पेश न कर पाया। हजार रुपये की बात थी। स्थानीय कार्यकारिणी का निर्णय था, “जमा-ख़र्च पेश करो या फिर पैसे भरो।”
उसने कहा, “इतने पैसे कहां से दूं?”
सदस्य ने कहा, “हम क्या बताएं? सार्वजनिक काम का हिसाब-किताब ठीक से रखना चाहिए था।”
उसने कहा,“बापू के पास जाता हूं। वे कह दें, तब तो मानोगे?”
सदस्य ने कहा, “हां मान लेंगे।”
वह मंत्री गांधी जी के पास पहुंचा। उनको उसने सारी बातें बताकर बोला, “बापू! मैं स्कूल की नौकरी छोड़कर सार्वजनिक सेवा के लिए अपने आपको समर्पित कर चुका हूं। मैंने एक भी पैसा अपने काम में नहीं लगाया है।”
गांधी जी ने कहा, “तुम जो कह रहे हो वह सच हो सकता है। लेकिन तुम्हें पैसे भरने चाहिए। सार्वजनिक काम में व्यवस्थितता बहुत ज़रूरी है।”
मंत्री बोला, “मुझसे भूल हो गई। इसका मेरे मन में पश्चाताप है। ग़लती तो हो गई, लेकिन अब क्या हो?”
गांधी जी बोले, “पैसा भरना ही एक मात्र उपाय है।”
वह युवक रोने लगा। पास ही दीनबन्धु खड़े थे। वे दुखी होकर बोले, “बापू! यह आदमी पश्चाताप कर रहा है। आप उससे इतनी कठोरता से क्यों बोलते हैं।”
गांधी जी ने कहा, “पश्चाताप केवल मन में होने से क्या लाभ? दोष का परिमार्जन हो, तो ही कहा जा सकेगा कि वास्तविक पश्चाताप हुआ। यह कुछ नहीं। इस युवक को अपनी भूल सुधारनी चाहिए। जनसेवक है यह।”
गांधी जी प्रेम-सागर थे। लेकिन समय आने पर वे कर्तव्य-निष्ठुर हो जाते थे। कभी-कभी तो कठोरता के साथ किये गए इंकार में ही अपार करुणा होती है।