प्लास्टिक / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित
सुशोभित
हज़रत निज़ामुद्दीन के प्लेटफ़ॉर्म पर उस रात टहल रहा था। रेलगाड़ी आने में समय था। सम्भवतया सर्वोदय वालों का पुस्तक विक्रय केंद्र रहा होगा, जहां मुझे सर्व सेवा संघ, सस्ता प्रकाशन मण्डल और रामकृष्ण मिशन की पुस्तकें दिखीं। इसमें वही सब गांधी, विनोबा, जयप्रकाश, विवेकानंद साहित्य। मैंने स्वामी गम्भीरानंद के लोकश्रुत ग्रंथ युगनायक विवेकानंद के तीनों खंड लिए। श्रीरामकृष्णलीलाप्रसंग भी लिया। चैतन्य की जीवनी ली। बिमल दे का कैलास यात्रावृत्त। गांधी, रबींद्रनाथ और कश्मीर पर विनोबा की पुस्तिकाएं। गांधी साहित्य के गुटका संस्करण। सब बहुत ही विनयी, सुंदर, देशज पुस्तकें।
मैंने कहा, ये ले तो लीं, किंतु भोपाल तक जाना है। पुस्तक विक्रेता ने कहा, कोई हर्ज़ नहीं। उन्होंने रद्दी का अख़बार उठाया और पुस्तकें उसी में सुदक्ष अभ्यास से समेट दीं और ऊपर से जूट की रस्सी ऐसे बांधी कि वह अपने में एक झोले जैसा बन गया। यानी आप पुस्तकों के उस बण्डल को हाथों में टांगकर चल सकते थे। मैं रेलगाड़ी में उसको सिरहाने रखकर सो रहा। घर तक सुभीते से ले आया। रस्सी खोलकर पुस्तकें निकाल लीं। ये सब बहुत सुगम रहा। उसको वो प्लास्टिक की पन्नी में बाँधते तो यही सब बहुत विषादपूर्ण हो जाता।
इधर मेरी नई पुस्तक आई तो एक मित्र ने चित्र भेजा कि देखिये, आपकी किताब हमने ले ली है। मेरे लिए वो संतोष का ही अवसर था, किंतु यह देखकर मन खिन्न हो गया कि अमेज़ॉन वालों ने प्लास्टिक की थैली में पुस्तक भेजी। वो पुस्तक जो काठ, दरख़्त, बाग़ और जंगल के बारे में क़िस्से सुनाती है। यों पुस्तक का काग़ज़ स्वयं जिस विधि से आता है, वह भी कोई बड़ा पुण्य नहीं। पहले मैं देखता था कि फ़्लिपकार्ट वाले गत्ते की पैकेजिंग में पुस्तकें भेजते थे। बहुधा वो रिसाइकिल किया गया पदार्थ हुआ करता था। किंतु अब प्लास्टिक ही पुस्तक-प्रेषण में सर्वव्यापी हो गया है। मैंने सोचा कि जितनी बार मेरी पुस्तक ख़रीदी जाएगी, उतनी बार इकोसिस्टम में प्लास्टिक की और एक थैली चली जाएगी। उसका पाप भी मेरे ही सिर, क्योंकि उसका निमित्त मैं ही बना! जीवन में कुछ भी कर लें, किसी न किसी पापकर्म के हेतु आप बन ही जाएँगे। जीवित रहते इससे मुक्ति सम्भव नहीं। क्या ही अच्छा होता कि ये गत्ते में पुस्तकें भेजते, या किसी कपड़े की थैली में, अगर सुरुचि के चलते सर्वोदय वालों की तरह अख़बार में नहीं लपेट सकते तो।
मैंने कहीं पढ़ा कि अगर आप जंगल में भूल से प्लास्टिक की बोतल छोड़ आएँ तो चिंता नहीं कीजिए। आप पाँच सौ साल बाद भी जाएँगे, तो वो आपको वहीं मिलेगी, भले मिट्टी में लथपथ हो जाए। ये प्लास्टिक कोई हज़ार साल तक गलता नहीं। रेलगाड़ी का टिकट होगा तो दो सप्ताह में विलीन हो जाएगा, संतरे का छिलका छह महीने बाद ढूंढे ना मिलेगा, टिन के डिब्बे ज़रूर गलने में पचास साल लेंगे लेकिन देर-अबेर गल ही जाएंगे। धात्विक होने के कारण मौन ही मृदा में धंस रहेंगे, पर्यावरण में सहज-प्रवाह के तंत्र को बाधित न करेंगे, कोई गाय उन्हें नहीं चरेगी। ये प्लास्टिक की समस्या बड़ी भीषण है। न तो ये गलता है, न ये किसी का आहार बन पाता है, उल्टे ये पारिस्थितिकी तंत्र में जाकर उसका दम अवश्य घोंट देता है।
इधर सरकार ने गांधी जयंती से एक प्लास्टिक-निषेध आंदोलन छेड़ने का आह्वान किया। सरकारों की अपनी सीमा है, सरकारें पहले भी प्लास्टिक पर रोक लगाने की कोशिशें कर चुकीं। किंतु जब तक कोई चीज़ जनभावना न बने, तब तक बात आगे नहीं बढ़ती। फिर प्रकृति के संरक्षण का ज़िम्मा अकेले सरकार का नहीं, सभी का साझा उत्तरदायित्व वो होता है। श्रेयस्कर तो यही है कि कपड़े की थैलियों का प्रसार फिर से पहले जैसा हो। दुकानदार कपड़े की थैली नहीं लाने वाले को सामान देने से इनकार कर दें। यों, वैसा होना अब सम्भव नहीं लगता, फिर भी आशा तो की ही जा सकती है।
टोलियाँ की टोलियाँ आगे बढ़कर यत्र-तत्र बिखरी प्लास्टिक की थैलियाँ बीनें और उन्हें रिसाइकिल करने की सोचें, वह तो बाद की बात है, परिवेश में व्याप्त इस प्लास्टिक को ही अगर चुनकर एक जगह रख दिया जाए तो बड़ी कृपा हो। नया प्लास्टिक बनाने और उसका उपयोग करने से रोक नहीं सकते तो कम से कम इतना तो करें कि किन्हीं भीमकाय वेयर हाउसों में उसको डम्प कर दें, ताकि वो नदी, समुद्र, चरागाह, पर्वत, अंतरिक्ष में न जाए। अभी तो आकाश से पाताल तक प्लास्टिक ही सर्वव्यापी है।
मित्रों को प्लास्टिक-पैकेजिंग में पुस्तक मिलेगी, उसे खोला जाएगा, पुस्तक को पढ़ा जाएगा, किंतु वह प्लास्टिक कहाँ जाएगा? कूड़ेदान में फेंकने भर से वह हमारी आँख से ओझल भले हो जाए, नष्ट तो न होगा। सार्वजनिक-सफ़ाई का तंत्र उसको आपके यहाँ से ले जाकर कहां फेंक आएगा, कौन जाने? यह पाप से कम नहीं।
बिजली का नंगा तार हो तो उसे कोई छूता नहीं। काँटों की बाड़ पर कोई पाँव नहीं रखता। विषधर नाग हो तो उससे सभी दूर रहते हैं। फिर ये प्लास्टिक को ही खुले में क्यों फेंका जाता है? ये क्या किसी विनाशलीला से कम है? सरकार के स्तर पर प्लास्टिक-निषेधी अभियान जब चलेगा तब चलेगा, किंतु प्रजा अगर यही प्रण ले ले कि यथासम्भव इसको घर में आने नहीं देंगे और अगर घर में आ गया तो इसको भले तह करके रख दें किंतु खुले में जाने नहीं देंगे, तो ही कोई कम पुण्य न होगा। प्लास्टिक की सौ थैलियाँ तह करके आपके घर में रखी हों, किसी को ख़बर तक ना होगी। ये ही बाहर खुले में बिखर जाएं तो सर्वनाश का वो सजीव चित्र है। इस पर विचार करें। अपनी धरती का गला ना घोंटें, पहले ही हम पर उसके कम ऋण नहीं, पहले ही उसके प्रति हम कम अपराधी नहीं।