सोवियत विज्ञान-साहित्य / आइंस्टाइन के कान / सुशोभित
सुशोभित
सोवियत-प्रकाशनों में हम रादुगा, प्रोग्रेस और एफ़एलपीएच से भलीभाँति परिचित हैं, जो उच्चकोटि का साहित्य प्रकाशित करते थे। लेकिन इन्हीं का एक अनुषंग मीर प्रकाशन भी था, जो मुख्यतया विज्ञान और गणित विषयक पुस्तकें प्रकाशित करता था। इनमें से अधिकतर पुस्तकें बाल-साहित्य के रूप में छापी गई थीं, जो स्कूली छात्रों को अपना प्राथमिक-पाठक मानती थीं, अलबत्ता स्वाध्याय में रुचि रखने वाले वयस्कों के लिए भी उनकी उपादेयता कम नहीं थी।
विज्ञान-विषयक सभी सोवियत-पुस्तकें मीर से नहीं आई हैं, रादुगा और प्रगति से भी कुछ टाइटिल्स प्रकाशित हुए हैं, किंतु मोटे तौर पर आप मीर पब्लिकेशंस को सोवियत-प्रकाशनों की विज्ञान-विषयक शाखा मान सकते हैं। ये पुस्तकें अत्यंत रोचक शैली में- क़िस्सों, पहेलियों और दृष्टांतों के साथ- लिखी जाती थीं और पाठकों में कठिन और दुरूह विषयों के प्रति रुचि जगाने का यत्न करती थीं।
याकोव पेरेलमान की मनोरंजक भौतिकी इस श्रेणी की सबसे लोकप्रिय पुस्तकों में है। यह दो खण्डों में है और हमारे दैनन्दिन जीवन की वैज्ञानिक परिघटनाओं पर सुबोध शैली में वार्ता करती है। पेरेलमान की ही एक अन्य पुस्तक सरस गणित का भी अपना एक प्रशंसक-वर्ग रहा है। इसके अतिरिक्त आओ दूरबीन देखें, सौर पवन के संग, सामान्य रसायन, नवीन मनोरंजक खगोलिकी, सामान्य भौतिकी प्रश्नमाला, मैं पिता जैसा क्यों हूं, नन्हें-मुन्नों के लिए ज्यामिति आदि भी लोकप्रिय सोवियत-पुस्तकें रही हैं। विज्ञान गल्पमाला के अंतर्गत एक था जलथलिया, मुन्ना आदि पुस्तकें प्रकाशित हुईं और पढ़ी-सराही गईं।
इनमें से लगभग सभी के अंग्रेज़ी, बांग्ला, मराठी और मलयालम में संस्करण प्रकाशित हुए हैं। अस्सी के दशक में पुस्तक-भण्डारों में ये पुस्तकें सुसज्जित रहती थीं। अपनी सुंदरता, आकर्षक सज्जा और रोचक रीति के साथ ही किफ़ायती दामों के कारण अनेक स्कूलों और वाचनालयों में भी इन्होंने प्रवेश पाने में सफलता पाई थी। अस्सी-नब्बे के दशक में शिक्षा पाने वाली पीढ़ी इन पुस्तकों से अवश्य ही परिचित होगी। किंतु कालान्तर में वे परिदृश्य से ओझल हो गईं।
हमें भूलना नहीं चाहिए कि सोवियत-संघ में विज्ञान का केंद्रीय महत्व था। कृषि और उद्योग से लेकर अंतरिक्ष-अनुसंधान के क्षेत्र तक विज्ञान ही अधिष्ठाता की भूमिका में था। इसी के बूते एक सदी पहले तक सामन्तों और दहक़ानों (मूझिकों) का देश माना जाने वाला रूस शीतयुद्ध के दौरान अंतरिक्ष में अमरीका से मुक़ाबला करने लगा था और अंतरिक्ष में पहला मनुष्य भेजने में भी उसी ने सफलता पाई थी। इस कालखण्ड में सोवियत-संघ में अथाह विज्ञान-गल्प साहित्य रचा गया और तत्विषयक फ़िल्में बनाई गईं। श्रेष्ठ वैज्ञानिकों को स्कूली-छात्रों के लिए सुबोध विज्ञान साहित्य लिखने के लिए प्रेरित किया गया।
लोकशिक्षण में राजकीय-नीति का केंद्रीय महत्व होता है। किसी देश का मानव-संसाधन-विकास मंत्रालय या तालीम के मामले देखने वाला महक़मा अपने नागरिकों को किस दिशा में ले जाना चाहता है, इसके आधार पर पाठ्यपुस्तकों और लोकप्रिय संस्कृति का निर्माण किया जाता है। यथा राजा तथा प्रजा वाली मिसाल अकारण नहीं है।
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू- जो निजी रूप से सोवियत-संघ के प्रति झुकाव रखते थे- भारत में वैज्ञानिक-चेतना का विकास करना चाहते थे और इसी ध्येय से उन्होंने अनेक संस्थाओं की स्थापना की थी। भारत जैसे धर्मप्राण और मिथकजीवी देश में बौद्धिक-संस्कृति का निर्माण सहज नहीं था। कालान्तर में- जैसा कि अनिवार्य ही था- वे प्रयास विपथ हुए और सोवियत-विघटन के बाद मुक्त-पूँजीवाद व सूचना-प्रौद्योगिकी की आँधी ने बाज़ारवाद, भौतिक लिप्साओं, मनोरंजनवाद, व्यापक-सम्भ्रम और अर्धसत्यों की जैसी दुनिया रची है, उसने तो रैशनल-थिंकिंग की परिपाटियों से हमारा सम्बंध ही विच्छेद कर दिया है और हम पहले से अधिक प्रतिगामी हो गए हैं। व्हाट्सएप्प-विश्वविद्यालय ने सूचना के प्रमाणिक स्रोतों को पृष्ठभूमि में धकेला है। मीर प्रकाशन की पुस्तकों को इस परिप्रेक्ष्य में भी स्नेह से स्मरण किया जाना चाहिए।
खगोलविद मिशियो काक्यू कहते हैं कि वह जीवन कितना विचित्र और दयनीय होता होगा, जिसमें हमारे भीतर बुनियादी महत्व के प्रश्न नहीं होते कि पृथ्वी कैसे बनी, सूर्य क्यों जलता है, चंद्रमा क्यों चमकता है, तारे कितनी दूर हैं, सभी पिण्ड गोल क्यों होते हैं, जीवन का विकास कैसे हुआ, मनुष्य की इस ब्रह्माण्ड में क्या स्थिति है। विज्ञान इस तरह के प्रश्नों के उत्तर तलाशने का विनम्र प्रयास करता है और इसी क्रम में विद्यार्थियों के भीतर निरीक्षण-परीक्षण, नीर-क्षीर-विवेचन, सत्यान्वेषण और तर्कसंगति का विकास करता है। यह कोई छोटी बात नहीं है।
क्या ही अच्छा हो अगर भारत सरकार के द्वारा विज्ञान-साहित्य की इन विलुप्तप्राय सोवियत-पुस्तकों के पुन:प्रकाशन का बीड़ा उठाकर नई पीढ़ी के ज्ञानोदय का सम्यक प्रयास किया जावे।