बंदी / प्रथम दृश्य / जगदीशचंद्र माथुर
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पात्र
रायसाहब: हाई कोर्ट के जज
हेमलता: रायसाहब की लड़की
आया:
चेतू [चेतराम]: गाँव का मजदूर
वीरेन: प्रगतिशील विचार-धारा का एक [ग्रेजुएट] युवक
बालेश्वर: गाँव के अर्धशिक्षक नवयुवक
करमचन्द: गाँव के अर्धशिक्षक नवयुवक
लोचन: गाँव का एक साहसी युवक, वीरेन का सहपाठी
[उत्तर भारत के एक गाँव में एक बड़े घराने के बँगले का बगीचा। पृष्ठभूमि में मकान की झलक। मकान में जाने के लिए बायीं तरफ से रास्ता है और बाहर जाने के लिए दाहिनी तरफ। समय चैत्र पूनो की संध्या। चाँदनी का साम्राज्य गोधूलि वेला में ही फैल रहा है। राय तारानाथ हेमलता के साथ एक स्थान की ओर संकेत करते हुए आते हैं।]
रायसाहब: और यही वह स्थान है जहाँ तुम्हारी माँ पूजा के बाद तुलसी जी को पानी चढ़ाने आती और मैं...
हेमलता: आप तो नास्तिक रहे होंगे, पापा?
रायसाहब: तुम्हारी माँ को चिढ़ाने के लिए। लेकिन उसकी श्रद्धा अडिग थी। और तभी मैं बगीचे के किसी कोने में... शायद वही तो... वह देखती हो न पत्थर?
हेमलता: याद है।
रायसाहब: क्या याद है?
हेमलता: कि उस पत्थर पर बैठकर आप मुझे सितारों की कथा सुनाया करते थे। [रुक कर मानो कुछ याद आयी हो] पापा, कलकत्ते में सितारों भरा आसमान मानो मेरे मन के कोने में दुबका पड़ा रहता था, लेकिन यहाँ [स्निग्ध स्वर] गाँव आते ऐसे ही खिला पड़ता है, जैसे आज इस चैत्र पूनो की चाँदनी।
रायसाहब: आसमान भी खिला पड़ता है और तुम्हारा मन भी, बेटी। [हँसता है। कुछ रुक कर] बजा क्या है? [आहिस्ता से] गाड़ी का तो वक्त हो गया होगा?
हेमलता: आप भी पापा। [रूठ कर] समझते हैं कि मुझे यूँ तो चाँदनी भाती ही नहीं, सिर्फ...
रायसाहब: [बात पूरी करते हुए] वीरेन की इन्तजारी की घड़ी में ही खिली पड़ती है। [हँसते हैं।] बुराई क्या है? वीरेन भला लड़का है, इसलिए तो यहाँ आने का न्योता दिया है उसे। देखूँ गाँव की आभा उसके मन चढ़ती है या नहीं?
हेमलता: जैसे जन्म से ही शहर की धूल फाँकी हो।
रायसाहब: वही समझो। कहता था न कि बचपन में पिता के मरने पर बरेली चला गया और उसके बाद लखनऊ और तब कलकत्ता...
हेमलता: मुझे भी तो आप बचपन में ही कलकत्ते ले गये और अब लाए हैं गाँव पहली बार...
रायसाहब: मैं तुम्हें लाया हूँ बेटी या तुम मुझे?
हेमलता: पापा, आते ही मैं तो यहाँ की हो गयी। न जाने कितने युगों का नाता जुड़ गया। [उल्लासपूर्ण स्वर] यह हमारा घर, पुरानी कोठी, जिसकी दीवार में पड़ी दरारें मुस्कान भरे मुखड़े की सिलवटें हैं। ये दूर-दूर तक फैले हुए खेत, जिन पर दबे पाँव दौड़ते-दौड़ते हवा उन पर निछावर हो जाती है और यह चाँदनी जो जितनी हँसती है उतना ही छिपाती भी है। [तन्मय] कलकत्ते में चैत्र की चाँदनी और ईद के चाँद में कोई अन्तर नहीं होता। लेकिन यहाँ, झोपडि़यों पर बाँस के झुरमुटों में, खेत-खलिहान पर, बे-हिसाब, बे-जुबान, बे-झिझक चाँदनी की दौलत बिखरी पड़ रही है। ओह, पापा!
[अपरिमित सुखानुभूति का मौन]
आया: [नेपथ्य में] हेम बीबी, चाय तैयार है।
रायसाहब: चाय! इतनी देर में?
हेमलता: आया की जि़द! कहती है सर्दी हो चली है, थोड़ी चाय पी लो।
[मकान की ओर रुख करके] यहीं ले आओ आया, बगीचे में। और दो मूढ़े भी।
रायसाहब: [स्मृति के सागर में उतराते हैं] सोचता हूँ कि अगर तुम्हारी माँ तुम्हारी तरह बोल या लिख पाती तो वह भी कवि या तुम्हारी तरह आर्टिस्ट होती।
हेमलता: अगर माँ बोल पाती तो आपको कलकत्ते न जाने देती!
रायसाहब: रोका था। दो-चार आँसू भी गिराये थे। लेकिन क्या तुम सच मान सकती हो हेम, कि मैं न जाता? कैसे न जाता? सारे कैरियर का सवाल था। यह जमींदारी उन दिनों भरी-पुरी थी, लेकिन आखिर को ले न डूबती मुझे अपने साथ!
हेमलता: काश, इस गाँव में ही हाई कोर्ट होता। यहीं आप वकालत करते और यहीं जज हो जाते।
रायसाहब: वाह बेटी! तब तो यहीं वह बड़ा अस्पताल भी होता जहाँ तुम्हारी माँ की लम्बी बीमारी का इलाज हुआ था और यहीं वह कालेज और हाई स्कूल होते, जहाँ तुम्हारी शिक्षा-दीक्षा हुई और यहीं वे थियेटर-सिनेमा... [आया का प्रवेश। हाथ में ट्रे। अपनी धुन में बात करती है]
आया: यही तो मैं कहती थी सरकार! इस देहात में कैसे हेम बिटिया की तबियत लगेगी। सनीमा नहीं, थेटर नहीं, क्लब नहीं। [पीछे की तरफ देखकर पुकारती हुई] अरे ओ चेतुआ, किधर ले गया मेज?... देहात का आदमी, समझ भी तो मोटी है! [चेतुआ एक हाथ में छोटी-सी टेबल और एक में मूढ़ा लिए हुए आता है।] उधर रख... हाँ बस [मेज पर चाय की ट्रे रख देती है। चाय बनाती हुई] आपके लिए भी बनाऊँ सरकार?
रायसाहब: [कुछ अनिश्चित-से मूढ़े पर बैठते हुए] मे...रे...लिए...
आया: [चेतुआ को खड़ा देखकर] अरे खड़ा क्यों है? दूसरा मूढ़ा तो उठा ला दौड़कर।
चेतराम: [जाते हुए] अभी लाया जी!
आया: [प्याला देती हुई] लो बीबी जी, गर्म कपड़ा नहीं पहना तो गर्म चाय तो लो।
हेमलता: तुम तो आया समझती हो कि जैसे हम बरफ की चोटी पर बैठे हैं!
आया: [दूसरा प्याला बनाते हुए] नहीं हेम बीबी, देहात की हवा शहरवालों के लिए चंडी होती है चंडी!
हेमलता: तुम भी तो देहात ही की हो आया।
आया: अब तीन चौथाई जिन्दगानी तो गुजर गयी आप लोगों के संग [चाय का प्याला राय साहब की ओर बढ़ाते हुए] लीजिए सरकार! [राय साहब को देख, कुछ चौंक कर] अरे!
रायसाहब: [प्याला लेते हुए] क्यों क्या हुआ?
आया: आप भी सरकार गजब करते हैं। यहाँ खुले में आप यों ही बैठे हैं।
[घर की तरफ तेजी से बढ़ती है]
हेमलता: किधर चली, आया?
आया: [जल्दी से] ड्रेसिंग गाउन लेने।... साहब का बेरा कलकत्ते से आता तो ऐसी गफलत नहीं होती।
[चली जाती है]
रायसाहब: हा हा हा [ठहाका मारते हैं] गुड ओल्ड आया! [चाय पीते हुए] समझती है कि सारी दुनिया नादान बच्चों का झुंड है और अकेली वह माँ है।
हेमलता: क्या सच उसे देहात नहीं सुहाता, पापा? मैं नहीं मान सकती। मगर... [चेतू मूढ़ा ले आया है।] यहीं रख दो मूढ़ा मेज के पास।
रायसाहब: मुझे ये पुराने मूढ़े पसन्द हैं। कमर बिलकुल ठीक एंगिल में बैठती है। [चेतू को रोककर] ए, क्या नाम है तुम्हारा?
चेतराम: जी, चेतराम।
रायसाहब: कहार हो?
चेतराम: मुसहर हूँ, सरकार।
रायसाहब: मुसहरों की तो एक बस्ती थी करीब ही कहीं, गन्दी-सड़ी। बाप का नाम?
चेतराम: कमतूराम! - अ ब गन्दगी नहीं सरकार!
रायसाहब: अरे, तू कमतू का लड़का है?
हेमलता: क्यों नहीं है अब गन्दी बस्ती?
[आया का प्रवेश]
आया: लीजिए सरकार ड्रेसिंग गाउन, जब बैठना ही है यहाँ खुले में तो... अरे तू यहीं खड़ा है चेतू?
रायसाहब: [ड्रेसिंग गाउन पहनते हुए] आया, यह तो उसी कमतू का लड़का है जो 15 बरस पहले यहाँ...
आया: हाँ, सरकार मैंने तो उसे ही बुलाया था, मगर उसने लड़के को भेज दिया। खैर, जाने-पहचाने का लड़़का है। चोरी-ओरी करेगा तो पकड़ना मुश्किल नहीं।
हेमलता: तुम तो, आया...।
आया: अरे हाँ बीबी जी, अब ये देहाती सीधे-सादे नहीं रहे। हमारे-तुम्हारे कान काटते हैं। चेतू चाय की ट्रे लेकर जल्दी आना। पलंग-वलंग ठीक करने हैं [चलते-चलते] देखूँ बावर्ची ने खाना भी तैयार किया कि नहीं।
रायसाहब: डीयर ओल्ड आया।
[आया जाती है। रायसाहब चाय की चुस्की लेते हैं।]
हेमलता: चेतराम!
चेतराम: जी बीबी जी।
हेमलता: मुसहर बस्ती में अब गन्दगी नहीं! क्यों?
चेतराम: बस्ती ही बह गयी सरकार!
रायसाहब: बह गयी?
चेतराम: पिछले साल बहुत जोर की बाढ़ आयी। हमारी तो बस्ती ही खत्म हो गयी। चालीस घर थे। मेरे दादा के पास धनहर खेत था आठ कट्ठा। जैसे-तैसे महाजन से छुड़ाया। वह भी बालू में पड़ गया। और कान्हू काका की चार बकरी थी। सब पानी...
रायसाहब: सरकारी मदद मिली?
चेतराम: बातचीत तो चल रही है... पर अब तो हम लोग पहाड़ी की तलहटी में चले गये हैं। नयी टोली बस रही है।
रायसाहब: ओ हो, बड़े जोम हैं। लेकिन वहाँ तो ऊसर जमीन है। खेती की गुंजायश कहाँ?
चेतराम: मुश्किल तो हुई सरकार। पर बारी-बारी से दस-दस जन मिल कर तैयार करते हैं। एक बाँध बन जाए तो बेड़ा पार है सरकार।
रायसाहब: हिम्मत तो बहुत की तुम लोगों ने!
हेमलता: लेकिन है मुसीबत ही। रोज का खाना-पीना कैसे चलता होगा इन लोगों का?
रायसाहब: यही, नौकरी-मजूरी। जब मिल जाय।
चेतराम: वह तो हई सरकार! पर अब तो बाँस का काम करने लगे हैं। हाट-बाजार में बिक जाता है। इनसे भी बढ़िया मूढ़े बनाने लगे हैं।
रायसाहब: अच्छा? लाना भई हमारे लिए भी एक सेट।
चेतराम: जरूर सरकार! दादा तो इसी में लगे रहते हैं रात-दिन। मैंने भी टोकरी बनाना सीख लिया है, रंग-बिरंगी। लोचन भैया को बहुत पसन्द है। कहते हैं सहर में तो बहुत बिकेंगी...
हेमलता: तो तुम्हारे भाई भी हैं?
चेतराम: [हँसता है] न बीबी जी! लोचना भैया? लोचन भैया तो... सबके भैया हैं! कहते हैं...
रायसाहब: जगत भैया!
आया: [नेपथ्य में] चेतू, ओ चेतू!
चेतराम: चाय ले जाऊँ, सरकार?
रायसाहब: हाँ, और तो नहीं लोगी हेम?
हेमलता: ऊँ...हाँ...हँ...नहीं। ले जाओ!
[चेतू ले जाता है। रायसाहब ड्रेसिंग गाउन की जेब में हाथ डालकर घूमने लगते हैं।]
रायसाहब: तो यह है इन लोगों की जिन्दगी। गरीब भी और गन्दे भी। उन दिनों तो उस टोली में बिना नाक बंद किये जाना हो ही नहीं सकता था। बाप इसका मेहनती था। असल में काम करने में पक्के हैं ये लोग, लेकिन हैं जाहिल!
हेमलता: पापा, आपको याद है हमारे आर्ट मास्टर ने वह तस्वीर बनायी थी 'किसान की साँझ' - कंधे पर हल, आगे थैला, थका-माँदा किसान, साँझ की चित्ताकर्षक रंगीनी में भी निर्लिप्त...
रायसाहब: पाँच सौ रुपये दाम रखा था न उन्होंने उसका?
हेमलता: पापा, आपने गौर किया इस चेतराम की शक्ल उससे मिलती है... मास्टर साहब कहते थे देहाती जिन्दगी और दृश्यों में अनगिनती मास्टर-पीसेज के बीज बिखरे पड़े हैं। एक-एक चेहरे में सदियों का अवसाद है। एक-एक झाँकी में युगों की गहराई। अमृता शेरगिल...
रायसाहब: अमृता शेरगिल... भई, उसकी तसवीरों पर तो मातम-सा छाया रहता है।
हेमलता: वह तो अपना-अपना एटीट्यूड है। अपनी भंगिमा! लेकिन पापा, यह तो मानिएगा कि शेरगिल के रंगों में भारत के गाँव की मिट्टी झलक रही है। पापा, मुझे लगता है जैसे मेरी कूची, मेरे ब्रश को यहाँ आकर नयी दृष्टि मिली हो। कितने चित्र मैं यहाँ खींच सकती हूँ? पकते हुए गेहूँ के खेत में चकित-सी किसान बाला। रंग-बिरंगी बाँस की टोकरियाँ बनाता हुआ इसी चेतराम का बाप! सबेरे की किरन में घुली-घुली-सी गाय को दुहता हुआ ग्वाला...
रायसाहब: और यह चाँदनी! [हँसता है] मगर हेम, वह चित्र भी तैयार हुआ या नहीं?
हेमलता: कौन-सा?
रायसाहब: अरे वही... खास चित्र!
हेमलता: पापा आप तो [शर्मीली-सी] लेकिन बीरेन ने पन्द्रह मिनट भी तो लगातार सिटिंग नहीं दी। इधर से उधर फुदकते फिरते थे।
रायसाहब: इस वक्त भी जान पड़ता है कहीं फुदक ही रहे हैं, हजरत।...
हेमलता: आपने भी फिजूल भेजा ताँगा। जिसके पैर में ही सनीचर हो...
[बीरेन पीछे से हठात् निकलता है।]
बीरेन: सनीचर नहीं आज तो शुक्र है। कहीं इसी वजह से तुम ताँगा भेजना नहीं भूल गयीं?
हेमलता: बीरेन!
रायसाहब: बीरेन? अरे! क्या तुम्हें ताँगा नहीं मिला स्टेशन पर?...
बीरेन: नमस्ते पापा जी। जी, मुझे ताँगा नहीं मिला, शायद...
रायसाहब: अजब अहमक है यह साईस। रास्ता तो एक ही है।
बीरेन: लेकिन कोई बात नहीं। मेरा भी एक काम बन गया।
रायसाहब: सामान कहाँ है?
हेमलता: चेतू! [पुकारते हुए] आया, चेतू को भेजना! सामान...
बीरेन: सामान तो चौधरी जंगबहादुर की देख-रेख में स्टेशन ही छोड़ आया हूँ।
रायसाहब: यानी मिल गये तुम्हें भी चौधरी जंगबहादुर।
हेमलता: वही न पापा, जो हर गाड़ी पर किसी न किसी आने वाले को लेने के लिए जाते हैं?
बीरेन: या किसी न किसी जाने वाले को पहुँचाने। मगर यह भी निराला शौक है कि बिला नागा हर गाड़ी पर स्टेशन जा पहुँचना।
रायसाहब: दो ही तो गाड़ी आती है इस छोटे स्टेशन पर, लेकिन चौधरी की वजह से उस सूने स्टेशन पर रौनक हो जाती है।
बीरेन: जी हाँ, जब तक उनसे मुलाकात नहीं हुई तब तक तो मुझे भी लगा कि पैसिफि़क सागर के टापू पर बहक गया हूँ।
हेमलता: यहाँ चौरंगी की चहल-पहल की उम्मीद करना तो बेकार था बीरेन!
बीरेन: [ठहाका] याद है न बेकन की वह उक्ति, 'भीड़ के बीच में भी चेहरे गूँगी तसवीरें जान पड़ते हैं और बातचीत घंटियाँ, अगर कोई जाना-पहचाना न हो।' लेकिन तुमने यह कैसे समझ लिया कि मुझे वीराना पसन्द नहीं।... मैं तो चौधरी साहब से भी पल्ला छुड़ा कर भागा।
रायसाहब: तो शायद उन्होंने तुम्हें समूची दास्तान सुनानी शुरू कर दी होगी।
बीरेन: जी हाँ, यह बताया कि वे साल भर में एक बार, सिर्फ एक बार, कलकत्ते की रेस में बाजी लगाने जाते हैं। यह भी बताया कि गवर्नर साहब के जिस डिनर में उन्हें बुलाया गया था, उसका निमंत्रण पत्र अब भी उनके पास है और यह कि इस गाँव में अब तक जितनी बार कलक्टर आए हैं उनके दिन और तारीखें उन्हें पूरी तरह याद हैं।
हेमलता: गजब है!
रायसाहब: हाँ भाई, चौधरी की याददाश्त लाज़वाब है।
बीरेन: याददाश्त की दुनिया में ही रहते जान पड़ते हैं! इसलिए जब उन्होंने स्टेशन पर सामान की देखभाल का जिम्मा लिया तो मैंने भी छुटकारे की साँस ली और रास्ता छोड़कर खेतों की राह बस्ती की ओर चल दिया।
[आया का प्रवेश]
आया: बीरेन बाबू, पहले गर्म चाय पीजिएगा या फिर खाने का ही इंतजाम...
बीरेन: ओ, हलो आया कैसी हो?
आया: मैं तो मजे ही में हूँ। लेकिन आपके आने से हमारी हेम बीबी के लिए चहल-पहल हो गयी वरना...
हेमलता: वरना क्या? मुझे तो कलकत्ते की चहल-पहल से यहाँ का सूना संगीत ही भाता है।
रायसाहब: आया, हेम की उलटबाँसियाँ तुम न समझोगी।
बीरेन: लेकिन, आया, अब मैं इस जंगल में मंगल करने वाला हूँ।
आया: भगवान वह दिन भी जल्दी दिखावें। मैं तो हेम बिटिया...
हेमलता: चुप भी रहो, आया!
रायसाहब: [ठहाका] हा, हा, हा।
बीरेन: मैं दूसरी बात कह रहा था। मेरा मतलब है इस गाँव की काया-पलट करना। यह गाँव मेरा इंतजार कर रहा है, जैसे... जैसे...
हेमलता: जैसे वीणा के तार उस्ताद की उँगलियों का [किंचित हास] खूब!
रायसाहब: [हँसते हुए] हा, हा, हा! बीरेन, है न मेरी बिटिया लाजवाब?
बीरेन: लेकिन वीणा के सुर में वह मस्ती कहाँ जो एक नयी दुनिया के निर्माण में है?
हेमलता: [व्यंग्य] कोलम्बस!
रायसाहब: नयी दुनिया का निर्माण। यह तो दिलचस्प बात जान पड़ती है बीरेन! सुनें तो...
बीरेन: जिस रास्ते से... शार्टकट से... में आया हूँ, उससे लगी हुई जो जमीन है, थोड़ी ऊँची और समतल, उसे देख कर मेरी तबीयत फड़क गयी और मैंने तय कर लिया कि...
आया: बीरेन बाबू!
बीरेन: [अपनी बात जारी रखते हुए] कि बिलकुल आइडियल रहेगी वह जगह! बिलकुल मानो उसी के लिए तैयार खड़ी हो...
रायसाहब: किसके लिए?
आया: सरकार, बीरेन बाबू की बातें तो सावन की झरी हैं, पर मुझे तो बहुतेरा काम पड़ा है।
हेमलता: [चंचल] इन्हें खाना मत देना आया!
बीरेन: [उसी धुन में] मैं कहता हूँ पापाजी उससे बेहतर जगह...
रायसाहब: ना, भई, बीरेन! पहले आया का हुक्म मान लो। हेम, कमरा इन्हें दिखा दो। गर्म पानी का इन्तजाम तो होगा ही। जब तैयार हो जाएँ और खाना भी, तो आया, मुझे खबर दे देना।
आया: लेकिन इस मौसम में बाहर रहिएगा देर तक तो...
रायसाहब: बस अभी आया। चौधरी साहब इस बीच में आयें तो दो बात उनसे भी कर लूँगा।
बीरेन: [जाते-जाते] लेकिन, पापाजी, आप गौर करे देखिए, ग्रामोद्धार-समिति के लिए पहाड़ की तलहटी वाली जमीन से मौजूँ और कोई जगह हो ही नहीं सकती। मैंने उन लोगों से...
[जाता है]
रायसाहब: ग्रामोद्धार-समिति! ख्याल तो अच्छा है। एक जमाने में मैंने भी... [सामने देखकर] कौन? चेतू। अरे तू यहाँ कैसे खड़ा है?
चेतू: सरकार...
[रुक जाता है।]
रायसाहब: क्या गर्म पानी तैयार नहीं?
चेतू: कर आया सरकार! कमरा भी साफ है।
रायसाहब: ठीक।
चेतू: सरकार!
[झिझक कर रुक जाता है।]
रायसाहब: क्या बात है चेतू?
चेतू: सरकार वह तलहटी वाली जमीन!
रायसाहब: कौन जमीन?
चेतू: जी नये साहब जिसे लेने की सोच रहे हैं।
रायसाहब: अरे बीरेन! अच्छा वह जमीन, जहाँ वह ग्रामोद्धार-समिति बैठायेंगे।
चेतू: लेकिन सरकार, उस पर तो हम लोग अपना नया बसेरा कर रहे हैं। आठ-दस बाँस की कोठियाँ-झुरमुट-लग जाएँ तो बेड़ा पार हो जाय।
रायसाहब: अरे तुम मुसहरों का क्या? जहाँ बैठ जाओगे, बसेरा हो जाएगा, लेकिन गाँव में जो उद्धार के लिए काम होगा... [घोड़े की टापों और ताँगे की आवाज] यह क्या? ताँगा आ गया क्या? देख भई, बीरेन बाबू का सामान उतार ला। [चेतू बाहर जाता है। ताँगा रुकने की आवाज] चौधरी साहब हैं क्या?
बालेश्वर: [बाहर ही से बोलता हुआ आता है।] जी, चौधरी साहब ने ही मुझे भेजा है सामान के साथ। मेरा नाम बालेश्वर है, बी.पी. सिन्हा। और ये हैं करमचन्द बरैठा। [करमचन्द नमस्ते करता है।] बच्चू बाबू के चचेरे भाई हैं। मैं चौधरी साहब का भतीजा हूँ।
रायसाहब: कहाँ रह गये चौधरी साहब?
बालेश्वर: जी ताँगे में आने की वजह से उनके घूमने का कोटा पूरा नहीं हुआ तो फिर से घूमने गये हैं।
रायसाहब: [हँसते हुए] खूब!
करमचन्द: हम लोगों ने सोचा कि आपका सामान भी पहुँचा दें और आपके दर्शन भी हो जायें।
बालेश्वर: बात यह है कि देहात में कोई 'लाइफ' नहीं।
करमचन्द: जब से शहर से लौटे हैं, जान पड़ता है कि बंदी बन गये हैं। 'ट्रांस्पोर्टेशन आफ लाइफ!'
रायसाहब: क्या करते थे शहर में?
बालेश्वर: करमचन्द तो इंटरमीडिएट तक पढ़ कर लौट आये और मैं...
करमचन्द: बात यह है कि इम्तहान के परचे ही बेढंगे बनाये थे किसी ने।
बालेश्वर: मैं तो बी.ए. कर रहा था और एक दफ्तर में किरानी की नौकरी के लिए भी दरख्वास्त दे दी थी, मगर सिफारिश की कमी की वजह से...
रायसाहब: किरानी? तुम्हारे यहाँ तो कई बीघे खेती होती है।
बालेश्वर: पढ़ाई-लिखाई के बाद भी खेती! पढ़े फारसी बेचे तेल।
करमचन्द: और फिर शहर की लाइफ की बात ही और है। खाने के लिए होटल, सैर के लिए मोटर, तमाशे के लिए सिनेमा।
रायसाहब: रहते कहाँ थे?
बालेश्वर: शहर में रहने का क्या? चार अंगुल का कोना भी काफी है।
करमचन्द: शहर की सड़कें यहाँ के बैठकखाने से कम नहीं। वह चहल-पहल वह रंगीनियाँ!
रायसाहब: भई, यह तो तुम लोग गलत कहते हो। मैंने अपने बचपन और जवानी के अनेक सुहाने बरस यहाँ गुजारे हैं।
बालेश्वर: तब बात और रही होगी, जज साहब!
करमचन्द: और फिर छोटी उम्र में शहर की मनमोहक जिन्दगी से गाँव का मिलान करने का मौका कहाँ मिलता होगा।
रायसाहब: मनमोहन... खैर। आजकल क्या शगल रहता है?
करमचन्द: गले पड़ी ढोलकी बजावे सिद्ध! सोचा कुछ पढ़े-लिखे, जानकार लोगों का क्लब ही बना लें।
बालेश्वर: वह भी तो नहीं करने देते लोग।
रायसाहब: कौन लोग?
करमचन्द: इस गाँव की पालिटिक्स आपको नहीं मालूम?
रायसाहब: यहाँ भी पालिटिक्स है?
बालेश्वर: जबरदस्त! बात यह है कि मैं और करमचन्द तो ढंग से क्लब चलाना चाहते हैं। प्रेजीडेंट, दो वाइस-प्रेजीडेंट, एक सेक्रेटरी, दो ज्वायंट-सेक्रेटरी, पाँच कमेटी मेंबर।
करमचन्द: जी हाँ, यह देखिए! [एक कागज निकाल कर रायसाहब को दिखाता है] इस तरह लेटर-पेपर छपवाने का इरादा है। ऊपर क्लब का नाम रहेगा और... यहाँ हाशिए में सब पदाधिकारियों के नाम और...
बालेश्वर: लेकिन ठाकुरों की बस्ती में दो आदमी हैं, धरम सिंह और किशनकुमार सिंह। कहते हैं, दोनों वाइस-प्रेजीडेंट उन्हीं के रहें और कमेटी में भी तीन आदमी। मैंने कहा कि एक ज्वायंट-सेक्रेटरी ले लो और दो कमेटी के मेम्बर।
रायसाहब: वे भी तो पढ़े-लिखे होंगे।
करमचन्द: जी हाँ, कालेज तक।
रायसाहब: तब?
करमचन्द: अपने को लाट साहब समझते हैं। कहते हैं, क्लब होगा तो उन्हीं के मोहल्ले में।
बालेश्वर: भला आप ही सोचिए, हम लोगों के रहते हुए ठाकुरों की बस्ती में क्लब कैसे खुल सकता है?
करमचन्द: आप ही इंसाफ कीजिए, जज साहब!
रायसाहब: भाई, इसके लिए तुम बीरेन से बात करो। यह लो बीरेन आ गये।
बीरेन: [हेम के साथ आते हुए] पापा जी, ग्रामोद्धार-समिति वाली वह बात मैंने पूरी नहीं की।
रायसाहब: बीरेन, वह बात तुम इन लोगों को समझाओ। यह हैं बालेश्वर ऊर्फ बी.पी. सिन्हा और ये हैं करमचन्द बरैठा। गाँव के पढ़े-लिखे नौजवान! क्लब खेलना चाहते हैं। मैं तो चलता हूँ, देरी हो रही है। हेम बेटी, बीरेन को देर मत करने देना।
[चले जाते हैं।]
बीरेन: अच्छा तो गाँव में क्लब स्थापित करना चाहते हैं आप?
बालेश्वर: जी हाँ, यह देखिए यह है हम लोगों का लेटर-पेपर और नियमावली का मसौदा। बात यह है कि...
बीरेन: आइए मेरे कमरे में चलिए, वहाँ इत्मीनान से बातें होंगी। इधर से चलिए। मैं अभी आया।
[बालेश्वर और करमचन्द जाते हैं]
हेमलता: मैं यहीं हूँ। जल्दी करना नहीं तो जानते हो, आया वह खबर लेगी कि...
बीरेन: तुम भी चलो न! क्या उम्दा मेरी योजना है। सुन कर फड़क जाओगी।
हेमलता: कमरे में चलूँ? उँह... देखते हो यह चाँदनी [बाहर दूर से सम्मिलित स्वर में गाने की आवाज] और सुनते हो यह स्वर, मानो चाँदनी बोलती हो!
बीरेन: [जाते-जाते शरारत भरे स्वर में] मैं तो देखता हूँ बस किसी का चाँद-सा मुखड़ा और सुनता हूँ तो अपने दिल की धड़कन [हाथ हिलाते हुए] टा...टा!
हेमलता: [मीठी मुस्कान] झूठे।
[सम्मिलित संगीत-स्वर निकट आ रहा है, स्त्री-पुरुष दोनों का स्वर]
चननिया छटकी मो का करो राम।
गंगा मोर मइया जमुना मोर बहिनी
चाँद सूरज दूनो भइया
मो का करो राम। चननिया छटकी...
सोसु मोर रानी, ससुर मोर राजा
देवरा हवें सहजादा मो का करो काम
चननिया छटकी मो का करो राम!
[गाने के बीच में चेतू का जल्दी से आना और बाहर की तरफ चलना]
हेमलता: कौन चेतू? कहाँ जा रहे हो?
चेतू: ही...वह...वह... गाना।
हेमलता: बड़ा सुन्दर है।
चेतू: मेरी ही बस्ती की टोली है। हर पूनो की रात को गाँव के डगरे-डगरे घूमती है।
हेमलता: इधर ही आ रही है।
चेतू: सामने वाले डगरे में। वह देखिए। और देखिए उसमें वह लोचन भैया भी हैं।...
हेमलता: कहाँ?
चेतू: वह मिर्जई पहने। मैं चलता हूँ बीबी जी। वे लोग मुझे बुला रहे हैं...
[जाता है। गाने का स्वर निकट आकर दूर जाता है]
'मो का करो राम... मो का करो राम।'
हेमलता: [अब स्वर मंद हो जाता गया है।] 'चननिया छटकी मो का करो राम।' ओह, कैसी मनोहर पीर है यह!
आया: हेम बीबी, हेम बीबी। इस ठंड में कब तक बाहर रहोगी?
हेमलता: [उच्च स्वर में] अभी आयी आया! [फिर मंद स्वर में] चाँदनी और मैं! मैं और बीरेन! लेकिन यह गाना और वह... वह... लोचन!
[विचार-मग्न अवस्था में प्रस्थान]
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